Friday, June 9, 2017

कभी अख़बार में रचना देने खुद जाते थे

- वीर विनोद छाबड़ा 
वो ज़माना मोबाईल और ऑनलाईन सिस्टम का नहीं था।
बाहर के अखबारों में लेख प्रकाशनार्थ प्रेषित करने का एक ही जरिया था - पोस्ट ऑफिस। कई बार पैकेट खो भी जाता था और कभी-कभी पहुंचते पहुंचते विलंब हो जाता। कारण दो तीन छुट्टियां पड़ गयीं। या पोस्टमैन बीमार पड़ गया। मैच ही ओवर हो गया यानि विषय की प्रासांगिकता ही ख़त्म हो गयी। टिकट लगा लिफ़ाफ़ा नत्थी हुआ तो कभी-कभी खेद की पर्ची सहित रचना वापस हो गयी।
'अमर उजाला' को तो आज भेजिए कल मिल जाए वाली स्थिति थी। यहां लखनऊ में लाल कुंआ पर ब्यूरो ऑफिस होता था उसका। हम तो वहीं अपना पैकेट छोड़ देते थे। रात ग्यारह बजे नौचंदी से डाक निकलती और अगली सुबह मेरठ। 
स्थानीय अखबारों में तो स्वयं ही जाना होता था। लेकिन वो थे मज़े के दिन।
स्क्रिप्ट आम तौर पर हाथ की लिखी हुई या कभी-कभी टाईप की हुई। हमारे पास पोर्टेबल टाईपराइटर होता था। यों फैसला हाथ के हाथ कभी नहीं हुआ कि रचना छपनी है या नहीं। मगर रचना के पन्ने पलटते हुए फ़ीचर एडिटर की बॉडी लैंगुएज देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल न होता कि इस रचना का अंजाम क्या होगा। अमूमन तीसरे-चौथे दिन छप ही जाती थी। नहीं तो एक-आध हफ्ते बाद सही। बहुत ज्यादा हुआ तो कालातीत होने या कतिपय अन्य कारणों से रचना को वापस ले लिया। रद्दी की टोकरी में नहीं जाने दिया।
इसी के साथ अगली रचना के लिए भी डिस्कस हो जाता था। कभी फ़ोन आ जाता या कहीं से मैसेज मिल जाता - ऑफिस से लौटते हुए मिल लीजियेगा। लेकिन अपनी मर्ज़ी से लिखने का आनंद अलग ही रहा।
अक्सर जाते-आते अख़बार में काम करने वाले तक़रीबन सभी बंदों से मुलाक़ात होती रहती। छपे हुए लेख पर त्वरित प्रतिक्रिया भी मिल जाती - अच्छा लिखा, आज क्या लाये? कभी कभार मज़ाक भी चल जाता था - अरे भाई, हमारे लिए भी जगह छोड़ दिया करो।
प्रमोद जोशी, नवीन जोशी, क़मर वहीद नक़वी, डॉ तृप्ति, दयानंद पाण्डेय, राजीव मित्तल, नागेंद्र सिंह, मनोज तिवारी, घनश्याम दुबे, आलोक मेहरोत्रा, संतोष तिवारी, विजय वीर सहाय, राजीव शुक्ला, आदर्श प्रकाश सिंह, नागेंद्र सिंह, विनोद श्रीवास्तव, क़माल ख़ान, कमलेश श्रीवास्तव, सुफ़ल भट्टाचार्य, राम भाटियाएक लंबी फ़ेहरिस्त है जो हफ़्ते में कहीं न कहीं दिख जाते थे। कभी स्वतंत्र भारत में तो अमृत प्रभात में या फिर नवभारत टाइम्स या हिन्दुस्तान में।

पत्रकार बंधुओं से आत्मीयता स्थापित हो गयी। अपने प्रतिस्पर्धी मित्रगणों से तो हमारी वहीं मुलाकात हुई। शुरू में दुआ-सलाम हुई और वक़्त हुआ एक प्याली चाय और सिगरेट। यह मुलाकातें दोस्ती में भी बदलीं। लेकिन पत्ते कभी नहीं खोले कि क्या लिखा और अगली रचना कौन सी लिखने जा रहे हैं। अंदर ही अंदर प्रतिद्वंदिता भी थी।
सदी का अंत आते-आते ज़माना बदल गया। पता नहीं पुराने सब कहां गए। हम भी क़लम बंद करके ऑफिस और घर में खो गए।

अब तो सारे फ़ीचर पेज दिल्ली में तैयार होते हैं। स्थानीय खुशबू ग़ायब हो गयी है। सब ऑन लाईन हो गया है। अपवाद छोड़ दें तो कोई लेखक अख़बार के फ़ीचर संपादक को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। किसी के दुःख-सुख में भी शरीक़ नहीं होता। सब दूर दूर जो हैं। और फिर अब फ़ुरसत ही कहां जी। पुराने लेखक कबाड़ खाने की नज़र हो गए हैं। कुछ हैं जो खुद को फेस बुक पर प्रोमोट करते दिखते हैं। या स्वांतः सुखाय की गति को प्राप्त हैं। किसी पारखी की नज़र पड़ जाए तो अख़बार में छाप देगा वरना ठीक है पुराने ज़माने को याद करते रहो।
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10-06-2017
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