Sunday, May 14, 2017

पोख

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक मित्र हैं राजन प्रसाद। राजन का परिवार पेशावर से संबंधित है और मेरा परिवार पेशावर से करीब दो सौ किलोमीटर के आस-पास स्थित मियांवाली से है। बोली भी तकरीबन एक सी है- यानी सरायकी। 
इस नज़रिये से हम अपने पुरखों के साथ उस संस्कृति की भी याद कर लेते हैं, जो अब कहीं गुम हो गयी है या किसी कोने में पड़ी आख़िरी सांस से पहले की हिचकियां ले रही है।
सरहद पार के पंजाब में ऐसी ही एक परंपरा थी - पोख या पोखा। विभाजन के वक़्त वहां से आये रिफ्यूजी आये तो इसे भी साथ लेते आये । 
हां, पोख है क्या? इसे मिसाल देकर बताता हूं। 
उन दिनों लखनऊ के आलमबाग इलाके के चंदर नगर में रिहाईश थी। मां आचार डालने से पहले कलई किये हुए बड़े से पीतल के थाल में सारा सामान मिक्स करने के लिए जमा करके बैठी है। तभी मैं उसके सामने आ कर बैठ जाता हूं।
मां हुश करके भगाती है - जा बाहर, तेरा दोस्त विंदी तुझे बुला रहा है। गुल्ली-डंडा वेड़े में रखा है। गुलेल वी है। वेख किसी दा शीशा न तोड़ीं।
मैं नहीं जाता था। उल्टा पाल्थी मार कर बैठ गया। क्योंकि में जानता हूं मां झूठ बोल रही है। दरअसल, वो मुझे वहां से भगाना चाहती है। लेकिन मैं वहीँ बैठा रहना चाहता हूं। मुझे आचार डालने का प्रोसेस देखना है। मां फिर भगाती है। मैं अड़ा ही रहता हूं।
मां मुझे इकन्नी देती है - जा कुछ खा ले। पर चूरन नईं खाईं। डंडी वाली आइसक्रीम ले लईं।
लेकिन मुझे दुनिया की कोई ताक़त नहीं डिगा सकी। मैं पसड़ गया।
मां उठी और मेरी बांह पकड़ कर मुझे स्टोर में बंद कर दिया। बोली - तेरा पोखा भैड़ा (ख़राब) हे।
तब मां ने मेरी छोटी बहन को सामने बैठाया और अचार बनाने की प्रक्रिया विधिवत पूर्ण की।
अचार ही नहीं। बाकी कामों में भी यही होता था। वो चाहे सिलाई मशीन पर काम शुरू करना हो या दस्ते में इमाम के साथ मिर्ची कूटना हो। लड़कों को सामने बैठा काम शुरू नहीं करना। ये काम बिगाड़ू होते हैं।
लड़कियों को शुभ माना जाता था। अपनी नहीं है तो पड़ोसन की बेटी को बुला लिया। वो नहीं मिली तो पड़ोस वाली मासीजी  भी चलती थी। बशर्ते वो झगड़ालू नहीं हो। गुणकारी हो तो बहुत ही अच्छी बात।
बताता चलूं कि उन दिनों पड़ोसनों को आंटियां का नहीं मासियां का दरजा हासिल था।
मां कहती थी - जा विमला मासी नू बुला ला। आखीं सलवार कमीज़ सिलणी शुरू करणी हे। पोखा डे जाए।
भंगन (मैला साफ़ करने वाली) भी शुभ मानी जाती थी। बदले में पैसा-दो पैसा नेक देनी ज़रूर बनती थी।

यहां तक कि कुत्ता भी आ जाये तो स्वागत होता था, ख़ासकर काला कुत्ता। कारज सौ फ़ीसदी सुफल होता था। उन दिनों दरवाज़े खुले रहते थे। लेकिन क्या मज़ाल कि कुत्ता बिना न्यौता मिले ड्योढ़ी का दरवाज़ा लांघ जाये। कुत्ते भी सियाने होते थे।
अब आप समझ गए होंगे की पोख या पोखा एक तरह की शगुन की पप्पी टाइप की कोई परंपरा थी जिसके अनुसार लड़की को सामने बैठा कर काम शुरू करोगे तो सब शुभ ही शुभ होगा। क्योंकि वो शांत,गंभीर, धैर्यवान और केयरिंग होती हैं। उनके होते हुए समझो सारे काज संवरे।
और लड़के ख़राब, उदण्डी, वाचाल और वानर प्रवृति के होते हैं। कार्य प्रारंभ में उनकी दखलंदाज़ी अवांछनीय। इसे पनौती भी कहा जा सकता है।

मगर बदलते वक़्त की आंधियां बहुत कुछ अपने साथ उड़ा कर ले गयीं हैं। अच्छी या बुरी, जो भी समझें, यह पोख या पोखा परंपरा भी फ़ना हो चुकी है। जब कभी राजन या उस जैसा कोई मिलता है तो पुरानी रस्मों/कुरीतियों को याद करने की जुगाली कर लेते हैं।
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