Friday, May 12, 2017

कंजूसों की दुनिया

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह की चाय और साथ में दो अदद पार्लेजी के बिस्कुट। डुबो-डुबो कर खाने में खूब मज़ा आता है।
आज सुबह हम टहल से लौट रहे थे कि एक पुराने मित्र मिल गए। अपनी कंजूसी के लिए मशहूर। ज़बरदस्ती घर ले गए। उन्होंने पूछा - चाय चलेगी?
हमें आश्चर्य हुआ। कंजूस आदमी की चाय पीने का आनंद हमेशा कुछ और ही होता है। हमने फ़ौरन हां कर दी।
घोर आश्चर्य हुआ जब चाय के साथ पार्लेजी बिस्कुट भी प्लेट में आया।
दिल में भय भी हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि ये कंजूस बदला की ख़ातिर अगले दिन हमारे घर न आ धमके और डबल धमाका कर दे। यानी एक के बदले दो कप चाय सुड़क कर ही उठे।
बहरहाल, हमने देखा कि मित्र ने प्याली में पार्लेजी गहरे डुबोया। और हिला दिया। नतीजा, बिस्कुट का बड़ा हिस्सा टूटकर चाय में समा गया। वो थोड़ा झेंपे।
हमने उन्हें थोड़ा सहज किया - होता है, कभी-कभी मेरे साथ भी। चाय ख़त्म होने पर चम्मच से बिस्कुट की लुगदी खाने में बड़ा स्वाद मिलता है।
मित्र बोले - हूं। ठीक कहते हैं।
चाय ख़त्म हुई। मित्र ने चम्मच मंगवाया। और लुगदी बन गया बिस्कुट थोड़ा-थोड़ा करके पूरे स्वाद से खाया। जब चम्मच ने जवाब दे दिया तो उन्होंने उंगली को तकलीफ़ दी। प्याली लकालक साफ़। फिर थोड़ा पानी डाला। एक दो बार हिलाया और पी गए - भई, अन्न है यह भी। बर्बाद कुछ भी नहीं होना चाहिए। इसी बहाने प्याला भी धुल गया। आख़िर खून पसीने की गाड़ी कमाई है। और फिर मैं पेंशनर भी हूं।

हमें थोड़ी घिनाई सी हुई। मित्र महोदय तो कंजूस ही नहीं मक्खीचूस भी हैं। सहसा हमें अपने एक रिश्तेदार याद आये। वो दही का सेवन करने के बाद खाली कटोरी में पानी डाल पी जाते थे। दाल और सब्ज़ी की कटोरियां जीभ से चाट कर साफ़ करते थे। हालांकि वो खुद को दुनियाबी अर्थों वाला कंजूस नहीं मानते थे। कहते थे - यार, आनंद बहुत आता है चाटने में। बचपन की याद दिला जाता है। अब दुनिया जो भी समझती है, समझा करे। मेरे ठेंगे से।

हम सोचते हैं, कंजूस और मक्खीचूसों की भी अपनी एक दुनिया है, अपना फलसफ़ा है। वो हमेशा दुनिया से तानों से बेपरवाह अपनी राह चलते रहते हैं। बूंद बूंद से समंदर भरते रहते हैं।
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