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वीर विनोद छाबड़ा
मेरे पढ़े-लिखे मित्र मुझसे अक्सर पूछते हैं कि तुम्हें इन साहित्यिक गोष्ठियों
में कवियों की कविताओं में क्या दिखता है और क्या मिलता? रात-रात भर उल्लू की
तरह जाग-जाग कर रिपोर्ट तैयार करते हो। कुछ पैसा-वैसा भी नहीं मिलता। इसलिये घरवाली
चाय बना कर भी तुम्हें नहीं देती । खुद ही बना-बना कर पीते हो।
मैं उसे बताना चाहता हूं कि मुझे आत्मिक सुख मिलता है। लेकिन बताता नहीं हूं। कौन
दीवार पर सर फोड़े? क्योंकि मुझे मालूम है कि उसका अगला सवाल होगा कि यह आत्मिक सुख क्या होता है?
उसे समझ में नहीं आयेगा अगर मैं उसे बताऊं कि जो आत्मिक सुख उसे मंदिर में घंटी
बजाने पर मिलता है वही सुख मुझे रिपोर्ट तैयार करने में मिलता है।
मैंने साहित्य ज्यादा पढ़ा नहीं है। लेकिन सौभग्यशाली हूं कि एक से बढ़ कर एक साहित्यकारों
को बहुत क़रीब से देखा है। गोष्ठियों में भी उन्हें देखता हूं। उनकी बातें सुनता हूं
। आमजन की पीढ़ा पर उनके विचार सुनें हैं और उनको ठहाका लगाते भी देखा है। उनके विमर्श
बड़े मयार पर फैले होते हैं। उनकी कही पंक्तियों के बीच में कुछ ऐसा होता है जिसको पढ़ने
और समझने में बेहद मेहनत करनी पड़ती है,
लेकिन परमानंद की प्राप्ति होती है।
मैं रिपोर्ट को फेस बुक पर लगाता हूं, उन्हें ब्लॉग में भी प्रकाशित करता हूं। एक साप्ताहिक अख़बार
में प्रेषित करता हूं। अपनी ओर से और अपनी तरह से, साहित्य को समुंद्र
में एक छोटी सी बूंद समान एक छोटी सी सेवा है यह मेरी।
अख़बार में तो वक्ता के वक्तव्य को एक-दो पंक्तियों में समेट दिया जाता यही। मैं
प्रयास करता हूँ लेखक का वक्तव्य ख़बर की तरह न लगे अपितु बाक़ायदा वक्तव्य लगे। दस्तावेज़
लगे।