Monday, March 6, 2017

भिखारी भी ऑनलाईन है

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक रिश्तेदार हैं। हर साल वो अपने जन्मदिन पर देवी-जागरण का आयोजन करते हैं और तत्पश्चात विशाल भंडारा। भंडारा दो किस्म का होता है। एक, भिखारियों के लिए और दूसरा, स्वजनों के लिए। दोपहर में भिखारी और शाम को स्वजन। भिखारियों की संख्या २५१ तक लिमिट है। और स्वजन पर कोई रोक-टोक नही। पांच सौ तक को वो स्वयं न्यौता दे आते हैं, मगर सात सौ से ज्यादा ही खा जाते हैं। दूर दूर तक के पड़ोसी और उनके बाहर से आये रिश्तेदार भी।
मगर अगले साल से उन्होनें भंडारा बंद करने का फैसला अभी से कर लिया है। वो इसकी वज़ह बताते हैं कि - यों तो भिखारी हर गली मोहल्ले अस्पताल और मंदिर के आसपास ढेर संख्या में मिलते हैं। लेकिन भिखारी की पहचान मुश्किल है। अब भिखारी मेकअप करके बैठता है। ऊपर चीथड़े और लेकिन अंदर जींस होती है। कुछ दिन पहले हमने एक ब्यूटी पार्लर से एक महिला को निकलते देखा। परफेक्ट भिखारिन का मेकअप। इच्छा हुई हम भी करा लें। लेकिन यह सोच कर रुक गए कि अभी पेंशन मिल रही है।

और फिर आजकल प्रतिस्पर्धा भी बहुत है। आठवां फेल से लेकर पीएचडी कर चुके भी इस लाईन में घूम रहे हैं। कई तो नकली भी हैं। मुफ़्त की रोटी तोड़ने में सबको मज़ा मिलता है। कुछ नकदी भी मिल जाती है। शाम को मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की जुगाड़ हो जाती है। इन्हें संगठित करना और फिर ढोकर ले आना एक टेढ़ी खीर है। और इसके लिए भिखारियों के ठेकेदार का सहारा लेना पड़ता है। अंग्रेज़ी बोलने वाला पांच सौ से कम नहीं। इसकी मौजूदगी से यजमान का स्टेटस बढ़ता है। ये वीआईपी कहलाता है। यों प्रति भिखारी की दर तीन-चार सौ रूपए के आसपास होती है। सब लक्सरी बस से ढोकर लाये गए हैं। हज़ार रुपया उसका अलग से। ठेकदार की अपनी कमीशन अलग। ठेकेदार भिखारी से भी कमीशन मारता है। ठेकेदार भिखारियों की संख्या में भी हेरा-फेरी करता है। डेढ़ सौ लाएगा और बताएगा पूरे ढाई सौ। कई भिखारी तो ड्रेस बदल कर दोबारा खड़े हो जाते हैं। हो गयी संख्या पूरी। घोटाला ही घोटाला। अब यह तो संभव है नहीं कि भिखारी के नाखुन पर इलेक्शन वाली स्याही लगा दी जाए।
पिछली नवरात्री के दिन पत्नी की ख़ुशी के लिए हम मंदिर चले गये। बहुत भीड़ थी। हम बाहर ही खड़े रहे। देखा, एक सज्जन कार से उतरे। उनके हाथ में एक बैग था और उसमें ढेर सारे आलू-पूड़ी के पैकेट। वो वहां भिखारियों में बांटने के लिए लाये थे। मगर मार खाते-खाते बचे। 'पहले मैं, पहले मैं' के चक्कर में भिखारियों की भीड़ ने उन पर अटैक कर दिया। उनमें कुछ जेंटिलमैन भी शामिल थे। शुक्र है कि हम थोड़ा दूर थे अन्यथा मौके पर पहुंचे सिपाही लूट और हमले के जुर्म में हमें भी गिरफ़्तार कर ले गए होते। 

अभी उस दिन की ही बात है। कल्लू प्रोविजन स्टोर वाले शाह जी एक भिखारी को डांट रहे थे - रोज़ सुबह-सुबह बोहनी के टाइम चले आते हो। 
भिखारी पूरे अधिकार से कह रहा था - अरे भाई, हमें भी कोई शौक तो है नहीं कि सुबह-सुबह तुम्हारी सूरत देख कर अपनी बोहनी ख़राब करें। मज़बूरी है कि सबसे पहले तुम्हारी ही दुकान खुलती है। हमने कित्ती बार तो कहा है। महीना बांध दो। बार बार आने से फुर्सत। और यह लो हमारी बैंक की डिटेल्स। ऑनलाईन भीख भेज दिया करो। 
एक दिन हमने एक भिखारी से पूछा। कुछ काम करोगे? उसने न कर दी। भीख मांगने से बढ़िया और क्या काम हो सकता है? न हींग लगे, फिटकरी। किसी तरह एक को तैयार कर लिया। उसे हज़ार रूपए दिए। और बताया कि अमूक दुकान पर तुम्हें बूट-पालिश की किट मिल जायेगी। रात दोस्त के साथ हम नाईट शो फिल्म देखने गए। देखा कि वो लड़का हमारे बगल में बैठा था। हमें देखते ही फ़ुर्र हो गया।
हमारे एक मित्र ने सलाह दी - वो अपना छब्बीस साल पुराना शादी वाला कोट पहन कर इसी धंधे में लग जाओ। कोई नहीं पहचानेगा। अब हमीं को देखो। तुमने हमें कभी पहचाना कभी।
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Published in Prabhat Khabar dated 06 March 2017
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