Sunday, March 19, 2017

प्लेटफॉर्म टिकट प्लीज!

-वीर विनोद छाबड़ा
याद आते हैं वो दिन। लगभग २२ साल तक रहे लखनऊ के उत्तर रेलवे स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में। इसमें उत्तर रेलवे के ही कर्मचारी रहते थे।
आइस-पाइस खेलते खेलते हम अक्सर स्टेशन पहुंच जाया करते थे। थोड़ी देर बाद खेलना भूल कर ए.एच.व्हीलर के बुकस्टाल पर खड़े हो जाते। राजा भैया, पराग, बालक, मनमोहन, चंदामामा आदि ढेर पत्रिकाएं उलटते-पलटते थे।
बरसों तक गहरा नाता रहा व्हीलर से और रेलवे प्लेटफॉर्म से। न कभी प्लेटफॉर्म खरीदा और न किसी ने मांगा। दरअसल सबको मालूम था कि हम रेल कर्मचारियों के बच्चे हैं और प्लेटफॉर्म हमारा प्लेग्राउंड है और कई तो मॉर्निंग वॉक भी करते थे। चार-पांच टीसी तो मल्टी स्टोरी में ही रहते थे।
बगल में था उत्तर-पूर्व रेलवे का लखनऊ जंकशन स्टेशन। यहां तैनात रेलवे का स्टाफ हमें नहीं था। लेकिन फिर भी घूमते-घामते चले ही जाते थे। यहां के टिकट चेकर थोड़े सख्त होते थे। कई बार धरे गए। बहुत मिन्नतें करके छूटे। एक बार तो बात इतनी बढ़ी थी कि हम नाबालिग बच्चों को बचाने के लिए नॉर्दन रेलवे के किसी बड़े अफसर का दखल दिलवाया गया। हम बच्चों ने कान पकडे कि यहां कभी नही जायेंगे टहलने। लेकिन बच्चे उस ज़माने के भी होशियार थे। जल्द ही हम लोगों ने वहां से बच निकलने छेद तलाश ही लिए थे।
जब बड़े हुए और नौकरी लगी तो बिना प्लेटफॉर्म टिकट के टहलना बंद कर दिया। रिस्क लेने से कोई फायदा नहीं। बदनामी होगी और अपनी नौकरी पर भी बन आ सकती है। यों हमारे एक मित्र भी थे अनिल द्विवेदी। पक्की यारी थी। पार्सल ऑफिस में थे। हम पहले चेक कर लेते कि वो ड्यूटी पर है। तभी बिना प्लेटफॉर्म टिकट एक नंबर से घुसते थे और पार्सल ऑफिस के रास्ते से बाहर निकलते थे। निकलते हुए अनिल की चाय पीना नहीं भूलते थे।
हम अपने मित्र प्रमोद जोशी के साथ भी रेलवे प्लेटफॉर्म पर कई बार टहले, लेकिन प्लेटफॉर्म टिकट लेकर। उस दौर में टिकट बहुत कम पैसे का था। दस पैसे के दौर से अब तक का दौर तो याद है।

पिताजी रिटायर हुए तो मल्टी स्टोरी छूट गयी। बारह किलोमीटर दूर इंदिरा नगर में जा बसे। जब भी स्टेशन आना हुआ तो बिना प्लेटफॉर्म टिकट के कभी प्लेटफॉर्म पर पैर नहीं रखा। यों हम बच निकलने के कई लूप होल जानते थे। लेकिन रिस्क लेना ठीक नहीं समझा। पत्नी के साथ तो कतई नहीं। यों पत्नी के पिता भी रेलवे में गार्ड थे। उन्हें कई लोग पहचानते थे। इस तरह जान-पहचान तो दोनों तरफ से थी। लेकिन इसके बावज़ूद प्लेटफॉर्म टिकट लिया। पत्नी को कभी पता नहीं चलने दिया कि प्लेटफॉर्म टिकट जेब में है। वरना वो कहती - कहते थे बड़ी धाक है रेलवे स्टेशन पर। फिर ये प्लेटफॉर्म टिकट क्यों?
अब तो रेलवे में कोई जान-पहचान वाला नहीं है। हमारे वक़्त में कुल जमा 22 जोड़ी गाड़ियां गुज़रती थीं उधर से। अब तो 120 से ऊपर हैं सिर्फ दिल्ली जाने के लिए रोज़ 50 जोड़ी ट्रेनें तो लखनऊ से गुज़रती हैं। भीड़ भी बहुत ज्यादा हो गयी है कि प्लेटफॉर्म न तो बच्चों के खेलने का स्थान रहा है और न ही कोई टहलने का। और सुना है प्लेटफॉर्म टिकट भी बीस रूपए का हो गया है। इस महंगाई में लोग अपने परिजनों को गेट पर ही रिसीव करते हैं और सी-ऑफ भी।
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19-03-2017 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
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१९-०३-२०१५ 

Above posted on face book dated 19 March 2015   

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