- वीर विनोद छाबड़ा
बात पुराने ज़माने की है। लड़की की शादी तय हो गयी।
लड़के वालों ने दहेज़ नहीं मांगा है तो क्या हुआ।
अपनी हैसियत के हिसाब से कुछ न कुछ देना तो है ही।
परिवार जमा हुआ। मासी ने कहा कि मैं सिलाई मशीन
दूंगी और बुआ ने साईकिल देने का वादा किया। चाचा ने कलाई घड़ी और ताऊ ने सोने की मुंदरी।
नानके वालों ने डिनर की व्यवस्था कर दी। इसी तरह बाकी रिश्तेदारों ने कुछ न कुछ देने
का वादा कर दिया। दहेज़ पूरा हो गया।
दहेज़ बाक़ायदा एक कमरे में डिस्प्ले भी हुआ। लड़की
पक्ष के सारे रिश्तेदारों ने देखा और मोहल्ले वालों ने भी।
दहेज ज्यादा हुआ तो कइयों ने हैरान हो कर दांत
तले उंगली दबा ली। एक बोली - बनती तो कंगाल बनी फिरती थी। मगर अब देख। बड़ा पैसा है, इसके पास तो।
दूसरी फुसफुसाई - अभी तो पहली लड़की की शादी है।
दूसरी और तीसरी लड़की की शादी में भी इतना ही करे, तो हम मानें।
इधर लड़के वाले भी खुश। वहां भी दहेज़ का प्रदर्शन
हुआ। पड़ोसी सूरी साहब बोले - वाह!वाह! क्या बात है? भई, चावला साहब ने समधी दिल वाला किया है। और एक हमारे समधी हैं गुलाठी साहब। दहेज़
छोड़ो। अपनी लड़की को भूल गए हैं। लेकिन शुक्र है कि लड़की अच्छी है। बड़े भागों वाली।
ऐसा रिवाज़ था पंजाबियों में।
लेकिन धीरे-धीरे यह सब गायब होने लगा। कोहली साहब
ने ग़रीब घर की लड़की ली। दहेज़ कम मिला। उन्होंने रूलिंग दे दी। क्यों किसी को बतायें
कि हमने क्या लिया? कोई नुमाईश है क्या? अपने समधी की बेइज़्ज़ती क्यों कराएं।
जिन्हें ज्यादा दहेज़ मिला उन्होंने भी दिखाना
बंद कर दिया। लोग नज़र लगा देते हैं। फिर हमें भी बेटी ब्याणी है। दहेज़ लिया है, तो दो भी।
सयाने लोगों की संख्या भी बढ़ी। भई, न तुम दिखाओ और न हम दिखाएंगे। दुनिया से क्या
वास्ता। नतीजा यह हुआ कि बंद दहेज़ की प्रथा चल निकली।