Tuesday, January 31, 2017

मुन्नी को जल्दी भेजो

- वीर विनोद छाबड़ा
चिट्ठी के नाम पर हमें एक मज़ेदार किस्सा याद आता है। हमारी बड़ी मामी हिसाब में बहुत तेज़ थीं। मगर पढ़ने-लिखने में तक़रीबन सिफ़र। कोई पढ़ा-लिखा घर आया तो एक साथ दस-पंद्रह पोस्टकार्ड लिखवा लेती थीं। सबमें एक ही इबारत। सिर्फ़ तारीख़ ताज़ा डाल कर वो हफ़्ते-दस दिन पर रिश्तेदारों को चिट्ठी पोस्ट करती थीं। संयोग से वो मामी के नाम से मोहल्ले भर में मशहूर भी थीं। 

एक बार हम लोग भोपाल गए। गर्मी की छुट्टियां बिताने। हमारे साथ में मामी की बड़ी बेटी मुन्नी भी थी। भोपाल में हमारी नानी और छोटे मामा थे। यह बात १९५९-६० की है। मुन्नी भेंजी हम से बहुत बड़ी थीं।
कुछ दिनों बाद मुन्नी भेंजी वापस लखनऊ चली गयी। मामा उसे बाक़ायदा स्टेशन छोड़ने गए। सही डिब्बे में बैठा कर आये। यह डिब्बा झांसी में कट कर लखनऊ जाने वाली ट्रेन में लगता था।
उन दिनों के रिवाज़ के मुताबिक़ ख़ैरियत से पहुंचने की फ़ौरन इतल्ला चिट्ठी से देना ज़रूरी होता था। अगले को भी बड़ी बेसब्री से चिट्ठी का इंतज़ार रहता था।
मुन्नी को गए चार दिन गुज़र गए। मामी का पोस्टकार्ड आया। मुन्नी अभी नहीं आई है। उसे जल्दी भेजो। सब लोग हैरान। कहां गयी मुन्नी? मामा कटघरे में खड़े कर दिए गए कि किस ट्रेन में बैठा आये?
इधर से फ़ौरन पोस्टकार्ड गया कि मुन्नी को ट्रेन में बैठा दिया गया था। पहुंच की जल्दी इतल्ला दो।

Monday, January 30, 2017

मुंशीजी, बिल्ली और मुंशियाईन

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे मोहल्ले के सेवक राम एक बड़े वकील के मुंशी थे। इसीलिये उनके अड़ोसी-पड़ोसी, मित्र और तमाम रिश्तेदार भी उन्हें मुंशीजी कहते थे। यों मुंशीजी थे बहुत काबिल। वकील साहब ने उनकी नेक सलाह मान कर कई बार पेचीदा मुक़दमे जीते। अगर उनके पास डिग्री होती तो ज़रूर नामी वकील होते। इसी कारण मुंशीजी को बहुत अभिमान भी था। सब उनको झुक कर सलाम भी किया करते थे। लेकिन एक अदद बिल्ली उनकी कतई परवाह नहीं करती थी। होंगे आप काबिल वकील के काबिल मुंशी।
यह बिल्ली कोई पालतू नहीं थी। बल्कि उनके यहां बिल्लियों के आने-जाने की परंपरा थी। एक आती, कुछ महीने रहती और चली जाती। मुंशी जी राहत का जश्न भी नहीं मनाने पाते थे कि म्याऊं-म्याऊं करता हुआ कहीं से कोई बिल्ली का बच्चा चला आता था। बच्चों को तो खिलौना मिल जाता था और बिल्ली को ठिकाना। वहीं पलती और बड़ी होती थी। फिर एक दिन ग़ायब हो जाती। मुंशी जी को बिल्ली से जितनी एलर्जी थी बिल्ली को उतना ही प्यार। सारे खिड़की-दरवाज़े बंद करने के बावजूद बिल्ली को कहीं न कहीं से घुसने का मौका मिल जाता। मज़े की बात तो यह थी कि मुंशियाईन को मुंशीजी के पलट बिल्लियों से विशेष स्नेह था। कई बार मुंशीजी सोचते थे कि काश इतना प्यार मुंशियाईन ने उन पर लुटाया होता! स्वर्ग होता घर। 
 
जिस दिन बिल्ली घर में न घुस पाती उस दिन वो दरवाज़े पर बैठ कर घंटो रोती। यूं भी बिल्ली का रोना मनहूसियत की निशानी माना जाता था। उसके करुण रुदन पर पसीज कर मुंशियाईन आधी रात को धीरे से दरवाज़ा खोल देती थीं। बिल्ली दबे पांव भीतर आती और मुंशीजी के पलंग के नीचे सो जाती। इस बीच वो चूहों पर भी कड़ी नज़र रखती।
सुबह होते ही बिल्ली एक बड़ी अंगड़ाई लेने के बाद म्याऊं-म्याऊं का जाप करती। मुंशीजी की नींद इसी से खुलती। वो बिल्ली को चप्पल या डंडा, जो भी हाथ में आता, लेकर दौड़ाते और बिल्ली मुंशीजी को। इस खटर-पटर को सुनकर मुंशी जी के आधा दर्जन बच्चे भी उठ कर बैठ जाते और ताली बजा-बजा कर कभी मुंशी जी का उत्साह बढ़ाते तो कभी बिल्ली का।
खासी धमा-चौकड़ी के बाद आख़िर में मुंशियाईन की ही अकल काम आती। वो दरवाज़ा खोल देतीं। बिल्ली को यही चाहिये होता था। वो फट से बाहर हो जाती। और मुंशीजी विजई मुद्रा में बाहर भागती हुई बिल्ली पर चप्पल पर फेंकते - भागी सा...। यह नज़ारा किसी लंबे हास्य दृश्य के समान होता था।
मुंशीजी के घर से उठते शोर को सुन कर अड़ोसी-पडोसी भी जाग जाते। चलो सवेरा हो गया।
मुंशीजी को बिल्ली इसलिए भी फूटी आंख नहीं सुहाती थी कि उसने उनकी नई-नई स्कूटी की गद्दी को पैने नाखूनों से छेददार बना डाला था।
मुंशियाईन के बिल्ली से स्नेह को देख कर कई बार मुंशीजी को संदेह भी हुआ कि बिल्ली न हुई मानों सगी बहन हो गयी। मुंशीजी कई बार कहा भी करते थे कि ये बिल्लियां मुंशियाईन के मायके से जासूसी के लिए भेजी गयी हैं।
बिल्ली से परेशान मुंशीजी को एक दिन उनके कान में उपाय बताया। मुंशी जी अविलंब घर आये। प्याले में दूध उड़ेला और फिर एक पुड़िया में रखा पाउडर उसमें मिला दिया। बिल्ली आई और दूध को पीकर बेहोश हो गयी। मुंशी जी ने उसे एक झोले में डाला और दूर दूसरे मोहल्ले में छोड़ आये।
मुंशीजी विजई मुद्रा में घर लौटे तो वहां का दृश्य देख कर उन्हें सांप सूंघ गया। वो मुंशियाईन के बगल में बैठी थी।
लेकिन मुंशीजी ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने सुना था कि बिल्लियां अक्सर रास्ता भूलती हैं। कभी न कभी ये बिल्ली भी रास्ता भूलेगी। उन्होंने मास्टर स्ट्रोक खेला। इस बार करीब पचास किलोमीटर दूर एक घने जंगल में बिल्ली को छोड़ा। मगर त्रासदी यह हुई कि खुद मुंशीजी खुद भटक गए। रास्ता पूछते हुए घंटों बाद वो थके-मांदे घर पहुंचे।
देखा कि बिल्ली मुंशियाईन के बगल में बैठी दूध पी रही थी। मुंशीजी पछाड़ खा गए। उन्होंने उस दिन के बाद से बिल्लियों से पंगा लेना छोड़ दिया।
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Published in Prabhat Khabar dated 30 Jan 2017
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D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
Mob 7505663626



Sunday, January 29, 2017

हरजाई दोस्त और जूता

- वीर विनोद छाबड़ा
मित्र आया - ख़ुशख़बरी है भाई। हमारी शादी तय हो गयी है। इलाहबाद जानी है बारात। तैयार रहना। खूब डांस करना है तुम्हें।
हम खुश हुए। कई दिन से नया जूता खरीदने की सोच रहे थे। न मनपसंद सही। लेकिन इतनी रकम तो है ही कि साधारण जूता तो ख़रीदा ही जा सकता है। मौका भी है और रस्म भी। 

हम भविष्य के उस दृश्य की कल्पना करके पुलकित हो उठे कि इलाहबाद की सड़कों पर नया जूता पहने डांस कर रहे हैं....आज मेरे यार की शादी है....मेरे पैरों में घुंघरू पहना दे फिर मेरी चाल देख ले....मेरा यार बना है दूल्हा...
हम निकल पड़े जूता खरीदने। रास्ते में शादी वाले मित्र का घर पड़ा। ख्याल आया - यार को भी बताता चलूं। देखो, तुम्हारी शादी की ख़ुशी में नया जूता खरीदने जा रहा हूं। सुन कर बड़ा खुश होगा।
लेकिन जब हमने मित्र को ये बताया तो वो खुश होने की बजाये उदास हो गया। उसकी आंखें भीग गयीं - कैसी त्रासदी है। शादी तो मेरी है। लेकिन नया जूता तुम पहनोगे। कैसा लगेगा जब सबको मेरा जूता फटा दिखेगा? कितनी तौहीन होगी। तुम तो जानते ही हो। इधर-उधर से उधार लेकर जैसे-तैसे शादी कर रहा हूं। मां का दबाव न होता तो इस कड़की में कतई शादी न करता।
यह कहते हुए मित्र ने हमारे कंधे पर सर रख दिया। हमने उसे पुचकारा, तो भलभला कर रो पड़ा। हमारे मन में भी भावुकता का समुद्र हिलोरें लेने लगा और हम उसमें बह गए। दो सौ रुपये मित्र को उधार स्वरूप दे दिये। शादी की बाद लौटा देना। हमारी जेब ठनठन गोपाल हो गयी।
हमारा और पिताजी के पैर का नाप एक ही था। हमने पिताजी का एक जोड़ी रिजेक्टड जूता उठाया। कायदे से उलट-पुलट देखा। कुछ गुंजाईश बाकी दिखी। मोची के पास पहुंचे। उसने देखते ही डस लिया। खासी चिरौरी की। पुरानी दोस्ती का वास्ता भी दिया। वो तैयार हो गया। मगर शर्त वही हमेशा वाली। डांस मत करना।
बहरहाल, फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए हम बारात के साथ इलाहाबाद पहुंचे। आपात हालात से निपटने के लिए एक जोड़ी स्लीपर रख लिया।

Saturday, January 28, 2017

आख़िर तक बरक़रार रही मेरा नाम जोकर की नाकामी की टीस

-वीर विनोद छाबड़ा
इस धरती के सबसे बड़े कॉमेडियन चार्ली चैपलिन से बेहद प्रभावित थे राजकपूर। वो अक्सर एक ऐसी फिल्म का सपना देखते थे जिसमें उनकी नाकामियां भी थीं और कामयाबियों भी। साथ ही सुनहरा भविष्य भी। कुल मिला कर आत्मकथ्य। इसका नाम भी उन्होंने प्रचारित कर रखा था - मेरा नाम जोकर। वो कहते थे कि जोकर को इतना भव्य शो बनाऊंगा कि धरती पर यह पहला और आखिरी बड़ा शो होगा। बरसों से चर्चा में था उनका यह ड्रीम प्रोजेक्ट। आखिर शुरू हुआ शो का बनना। बहुत बड़ा बजट, विशाल कैनवास। उस ज़माने की सबसे महंगी फिल्म। ज़िंदगी भर की कमाई पूंजी लगा दी इसे वर्ल्ड क्लासिक बनाने में। बाजार से क़र्ज़ भी लिया था।
बहरहाल, जैसे-तैसे मेरा नाम जोकरपूरी हुई। पूरे छह साल लग गए इस ड्रीम को पूरा होने में। राजसाब ने चैन की सांस ली।
मगर जब प्रिव्यू देखा तो कुछ बैचेन हो गए। बार-बार देखा। कुछ बात बनती नहीं दिखी। मित्रों और हमदर्दों को दिखाई। अरे, क्लासिक है यह तो। बधाई राज साहब। सबने खूब सराहा। राजसाब को तसल्ली हुई। फिर ख्याल आया कि दुनिया के सामने पेश करने से पहले किसी वर्ल्ड क्लास हस्ती से इस पर मोहर लगवाई जाये। कई नाम उनके ज़हन में आये। आख़िरकार एक जगह निगाह रुकी - सत्यजीत रे। क्लासिक फिल्में बनाने में माहिर और वर्ल्ड सिनेमा में आईकॉन। उनकी फिल्म मेकिंग की स्टाईल और सोच के बेहद क़ायल थे राजसाब। मन ही मन उनसे प्रतिस्पर्धा की चाहत भी रखते थे।
Rajkapoor
 
राजसाब ने सत्यजीत रे को न्यौता भेजा। सत्यजीत बंबई तशरीफ़ लाये। रेड कारपेट वेल्कम हुआ। राजसाब के चेहरे की चमक बता रही थी कि वर्ल्ड क्लास फिल्में रे साहब सिर्फ आप टॉलीगंज वाले ही नहीं हम बालीबुड वाले भी बना सकते हैं। हम किसी चौधरी से कम नहीं हैं। 
सत्यजीत रे भी राजकपूर के मुरीद थे। उन्होंने उनकी बूट पालिश’, ‘आवारा’, ‘जागते रहोऔर जिस देश में गंगा बहती हैजैसी क्लासिक फिल्में देख रखी थीं।  मगर मेरा नाम जोकरइन सबसे कई कदम आगे वाला वर्ल्ड क्लासिक होने जा रहा था।
राजसाहब को पूरा इत्मीनान था कि रे साहब इस पर मोहर लगा देंगे।
एक स्पेशल शो हुआ। रे साहब ने बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ फिल्म देखी। इस बीच थिएटर में अंधेरे के बावज़ूद राजसाहब की नज़रें बराबर रे साहब के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों को पढ़ने की कोशिश में लगी रहीं।
फिल्म खत्म हुई। सबकी नज़रें रे एक साथ साहब की ओर उठ गयीं। राजसाब का चेहरा गर्व से तमतमा रहा था। तो बताईये रे साहब कि कैसा लगा हमारा जोकर?
सत्यजीत रे साफगोई में यकीन रखते थे। वो बहुत गंभीर थे। बोले - राज, आपकी फिल्म तीन पार्ट में है। पहला पार्ट बेहद अच्छा है, वर्ल्ड  क्लास। इसे पहले रिलीज़ कर दें। दूसरा पार्ट बढ़िया इंटरटेनमेंट है। तीन महीने बाद रिलीज़ करो। सुपर हिट होगा। और तीसरा पार्ट दफ़न कर दो। 

Friday, January 27, 2017

सुलेख के फायदे

- वीर विनोद छाबड़ा 
सुंदर लेखनी का अपना महत्व है। यों हस्तलिपि विशेषज्ञ लिखावट की बनावट देखकर लिखने वाले का मिज़ाज़, भूत, वर्तमान और भविष्य भी बता देते हैं। लेकिन हमारा तो सिंपल सा मंतव्य है कि सुंदर लिखावट पढ़ने वाले का मन मोह लेती है। यदि आपने उनके मन के विरुद्ध भी कुछ लिखा है तो सबसे पहले वो लिखावट की ही प्रशंसा करेगा, बाकी लानत-मलानत बाद में।
हमें कभी संदेह नहीं रहा कि सामान्य ज्ञान और बुद्धि चातुर्य में काफ़ी कमज़ोर रहे हैं। लेकिन इसकी कमी को हमने सदैव अपनी सुंदर हैंड राइटिंग से पूरा किया।  हमें याद है कि पाठशाला के दिनों में तख्ती पर सेठे के क़लम से इसीलिए लिखवाया जाता था कि सुलेख मन को सकून देता है। हमारी सोच को भी प्रभावित करता है। परीक्षा में कुछ नंबर भी जुड़ते थे। इसके लिए बाक़ायदा प्रतियोगिता भी आयोजित होती थी। इसीलिए हम बड़े मनोयोग से नित्य तख्ती को धोते थे और फिर सफ़ेद मुल्तानी मिट्टी से पालिश किया करते थे। 
कई साल बाद हमने निजी कार्य हेतु एक पोर्टेबल टाईपराइटर भी ख़रीद लिया था। हिंदी तथा इंग्लिश टाईप का भी हमें अच्छा ज्ञान था, लेकिन हाथ से लिखना सदैव हमारी पहली पसंद रही। ताकि पढ़ने वाले को यह अहसास हो कि हमने बड़ी तबियत से लिखा है। उच्चाधिकारी हमारी हैंड राईटिंग के कायल रहे। हम अख़बारों/पत्रिकाओं के लिए अपने ज्यादातर लेख हाथ से लिखे हुए ही भेजते थे।
करीब तीन साल पहले जब हमने कम्प्यूटर का ज्ञान प्राप्त किया, तब भी हमने पहले हाथ से लिखा और फिर टाईप किया। लेकिन कुछ माह बाद हाथ से लिखना छोड़ सीधे टाईप करने लगे। आज स्थिति यह है कि लिखने की प्रैक्टिस ही छूट गई है। चिठ्ठी लिखे तो मानो सदियां गुज़र गई हों। मोबाईल पर बात तो ही जाती है। बैंक से पैसे निकालने के लिए ही पेन खोलते हैं। लेकिन बैंक का बाबू एक बार में संतुष्ट नहीं होता, चेक पर दो-तीन बार हस्ताक्षर करवाता है।

Thursday, January 26, 2017

जापानी प्रमोशन!

-वीर विनोद छाबड़ा
सरकारी नौकरी में एक अघोषित पद है - जापानी अफ़सर। अक्सर होता है कि अफसर रिटायर हो गया। उसकी जगह किसी अन्य का चयन नहीं हो पाया। तो ऐसी स्थिति में जो सबसे सीनियर होता है उसे अफसर का चार्ज मिल जाता है, और वो तब तक उस सीट पर रहता है जब तक कि चयन समिति योग्य कैंडिडेट का चयन नहीं कर लेती। तब तक वो जापानी अफसर कहलाता है। और यह अघोषित पद होता है।

ये जापानी बाज़ दफे बहुत खतरनाक होता है, नियमित से भी कई गुना ज्यादा। लेकिन, ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि जापानी समझ कर कोई उसे पप्पू न समझे और न बनाने पाये।
इसी बात पर हमें अपने एक बॉस त्रिलोकी लाल उर्फ़ टिल्लू बाबू की याद आ रही है। उन्हें अपने काम के अलावा बड़े साहब का चार्ज मिला। डबल चार्ज। गदगद हो गए टिल्लू बाबू। यह बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी।
बधाईयां, मुबारकां के अलावा प्रोटोकॉल के अनुसार चाय-शाय के साथ एक समोसा और एक पेड़ा तो बनता ही था। एक दिलजले ने छींटा मारा। जापानी अफ़सर बनने की मुबारक़। टिल्लू बाबू दिलजले को आंखें तरेर कर हंस दिए। हम समझे कि बात आई-गई हो गई।  
मगर वास्तव में दिलजले के छींटे से टिल्लू बाबू कुछ ज्यादा ही 'चार्ज' हो गए। उन्होंने तय किया कि लंच से पहले तक वो बतौर छोटे साहब बनकर पत्रावलियां निपटाएंगे और लंच पश्चात बड़े साहब के रूप में विराजेंगे। 
छोटे साहब के रूप में टिल्लू बाबू ने पहले ही दिन चौगुना काम किया - ये बड़े साहब भी क्या याद करेंगे मुझे
लंच के बाद छोटे साहब बतौर बड़े साहब विराजे। यहीं टिल्लू बाबू को आकाशवाणी हुई कि खुद को नियमित वाले अफसर से ज्यादा सयाना साबित करना है। बस फिर क्या था। अपने ही लिखे को उन्होंने नकार दिया। कुछ फाइलें खुद को वापस की। लिखा -चर्चा करें। कई फाइलों पर लिखा - गलत प्रस्ताव। यानी खुद का प्रस्ताव ग़लत करार दे दिया। एक फाइल पर लिखा - अनावश्यक टिप्पणी। एक और फाइल पर तो इतना ज्यादा भन्नाए कि अपने ही लिखे की धज्जियां उड़ाते खुद का जवाब-तलब कर लिया। यहां तक कि चपरासी पर गुस्सा निकालने लगे। हम लोगो को भी नहीं बख्शा - छोटे साहब को बुलाओ।
हम सब समझा-समझा कर परेशान हो गए कि वो छोटे साहब आप ही तो हो। बामुश्किल किसी तरह समझा-बुझा कर उन्हें हम लोग घर छोड़ कर भाग आये। 
अगली सुबह हमें पता चला कि टिल्लू बाबू ने गुज़री रात घर का हाल बेहाल कर दिया। कुर्सी को लात मारी। स्टूल तोड़ मारा। भोजन में मीन-मेख निकाली। तीन प्लेटें शहीद हो गयीं। एलसीडी टीवी शहीद होते-होते बचा। सोफ़ा, पलंग, डाइनिंग टेबल सब पलट दिए। इतना ज्यादा उत्पात मचाया कि डॉक्टर को बुलाना पड़ा।  घर के सदस्यों के अलावा अड़ोस-पड़ोस के चार बंदों ने मिल कर दबोचा। तब कहीं डॉक्टर नींद का इंजेक्शन लगा पाया। डॉक्टर ने बताया - सदमा है।
मगर सुबह सब नार्मल। टिल्लू बाबू दफ्तर पहुंचे। लंच तक आसानी से गुज़र गया मगर लंच बाद फिर वही कहानी - जापानी भूत चढ़ गया। खुद को ही कोसने लगे। 

Wednesday, January 25, 2017

सिपाहियों ने बलराज को असली जेलर समझ लिया था

- वीर विनोद छाबड़ा 
बलराज साहनी एक बेहतरीन नेचुरल आर्टिस्ट थे। उन्हें एक्टिंग के लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। रोल सुना और घुस गए किरदार की खाल में। रिक्शावाले हैं या खेतिहर मजदूर फिर घड़ीसाज़ या पठान, उनमें बलराज साहनी ढूंढना नामुमकिन है। याद करिये 'वक़्त' के उस अहंकारी लाला केदारनाथ को जिसकी दुनिया भूकंप के एक झटके ने तबाह कर दी थी। बलराज जिस फिल्म में रहे, किरदार छोटा रहा हो या बड़ा, अपनी मजबूत मौजूदगी का अहसास ज़रूर कराते रहे। कई फ़िल्में तो उनके आसपास घूमती रही। दो बीघा ज़मीन, काबुलीवाला, वक़्त, सीमा, एक फूल दो माली, पवित्र पापी, छोटी बहन, भाभी, नीलकमल, दो रास्ते आदि।
उन्होंने सौ से ज्यादा फ़िल्में की। हर फिल्म में बेमिसाल एक्टिंग का कोई न कोई किस्सा ज़रूर मशहूर हुआ।
उन दिनों के.आसिफ़ एक फिल्म बना रहे थे - हलचल। इसमें दिलीप कुमार और नर्गिस के साथ बलराज साहनी की भी अहम भूमिका थी।
बलराज इसमें एक जेलर के रोल में थे। लेकिन त्रासदी यह थी कि बलराज खुद उन दिनों जेल में थे। दरअसल बलराज सक्रिय राजनीति में भी थे। साम्यवादी पार्टी के सदस्य थे। एक आंदोलन के सिलसिले में सरकार ने उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था।
इधर शूटिंग रुक गयी। प्रोड्यूसर के.आसिफ़ कर्ज़ लेकर फिल्म बना रहे थे। अतः उनको बहुत आर्थिक क्षति हो रही थी। उन्होंने सरकार से दुहाई की। लेकिन नाकाम रहे। मजबूर होकर के.आसिफ़ माननीय कोर्ट पहुंच गए। अपनी गले तक कर्ज में डूबी दयनीय स्थिति का वर्णन किया। बताया कि अगर बलराज शूटिंग नहीं करेंगे तो पहाड़ टूट पड़ेगा।

माननीय कोर्ट को दया आई। हुक्म हुआ कि सुरक्षा प्रहरियों की छाया में बलराज को शूटिंग के लिए रिहा किया जाए और शूटिंग के बाद फिर वापस जेल।
अगले दिन बलराज साहनी क़ैदी की ड्रेस में चार सिपाहियों के घेरे में स्टूडियो पहुंचे। के.आसिफ़ को राहत मिली। 
बलराज मेकअप रूम में दाख़िल हुए। सिपाहियों को बाहर ही बैठा दिया गया।
थोड़ी देर बाद बलराज जेलर की ड्रेस में बाहर निकले। नेचुरल आर्टिस्ट होने के साथ-साथ रोबीला चेहरा तो बलराज का था ही। सिपाहियों ने उन्हें असली जेलर समझ लिया। हड़बड़ा कर सब खड़े हो गए। जोरदार सल्यूट मारा।
बलराज ने भी उनका अभिवादन स्वीकार किया। लेकिन अगले ही क्षण मुस्कुरा दिए - अरे भई, मैं कोई असली जेलर नहीं हूं। नकली हूं, तुम्हारा क़ैदी।

Tuesday, January 24, 2017

अफ़सोस के बहाने

- वीर विनोद छाबड़ा
अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी दिवंगत की आत्मा की शांति लिए अफ़सोस करने जाते हैं। घंटा भर वहां बैठते हैं। जैसे टाइम पास कर रहे हों। चाय पीते हैं और मीठा भकोसते हैं। इस एक घंटे में दिवंगत का हिस्सा महज़ १० मिनट भी नहीं रहता।
अभी उस दिन की ही बात है। एक मित्र दिवंगत हो गए थे। काफी क्लोज़ थे। घाट तो गए ही थे। संवेदना व्यक्त करने घर जाना भी बनता था। हम चार मित्र उनके घर पहुंचे।
शुरुआत कुरेदने से हुई - हमें पिछले हफ्ते मिले थे। अच्छे भले थे। अचानक ये सब कैसे हुआ?
उनकी पत्नी यह इस बात का जवाब शायद अब तक हज़ार बार दे चुकी थी। उनकी आंख के आंसू भी सूख चुके थे। एक साँस में सब बता गयीं। सुबह उठे। बाथरूम से वापस आये। चाय के लिए बोले। जब तक मैं बना कर लाई तब तक... 
हम में से एक बोले - वो हमारे चचिया ससुर के मौसेरे भाई के ससुर जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इंसुलिन नहीं लगाया। सुबह-सुबह इसके आगे उन्होंने एक्शन में बताया - गर्दन झटके से टेढ़ी की और दोनों हाथ ऊपर की ओर उठा दिए।
दूसरे साथी को भी ऐसा ही कोई किस्सा याद आया।
हमने देखा तीसरे वाले का भी दिल भरा था। कुछ बताने चाह रहा था।
तभी हमने दिवंगत के साथ बिताये पलों के बारे में कुछ बताना शुरू किया। हमारा मक़सद कई दिनों से उनके घर में चली आ रही एकरसता को तोडना भी था।
लेकिन हमारी बात को हमारे साथी ही काट कर कहां से कहां ले गए।
ऐसे में होना यह चाहिए कि दिवंगत की अच्छाइयों को याद करो।
उलटे घर वालों को ही लोग कटघरे में खड़ा कर देते हैं। ऐसा न करके ऐसा किया होता तो प्राण बच जाते। फलाने डॉक्टर के पास जाना चाहिए था।
अरे भाई, सुबह पांच बजे कौन माई का लाल डॉक्टर दो मिनट के नोटिस पर आपके घर पहुंच सकता है?
जैसा कि दिवंगत के पत्नी ने बताया उससे हमें तो यही लगा कि उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उन्होंने बताया कि हमारे पास तो कार भी नहीं थी। पड़ोसी के पास थी। लेकिन वो बाहर गए थे। बेटा पांच किलोमीटर दूर रहता है। जब तक वो कार लेकर आया तब तक देर हो चुकी थी। फिर भी अस्पताल गए। जवाब मिला। घर ले जाइये। तसल्ली नहीं हुई। दूसरे अस्पताल गए। वहां भी यही जवाब। बहुत देर हो चुकी है।

Monday, January 23, 2017

ये प्यार, कमबख्त प्यार

- वीर विनोद छाबड़ा
प्यार भी कमबख्त क्या चीज़ है? न सोने देता है और न आराम करने। ये दीवाना भी है और मस्ताना भी। ओमपुरी भी एक फिल्म में डायलॉग मार गए हैं -ज़िंदगी में एक बार प्यार ज़रूर करना चाहिए। यह आदमी को इंसान बनाता है।
दूसरों के प्यार से जलने वाले कहते हैं - दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है। अरे मोहब्बत अंधी होती है। अपने आइटम पर सबको गरूर होता है। खुदा भी जब आसमां से ज़मीं पर देखता होगा, मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता होगा। आसमान से आया फरिश्ता प्यार का सबक सिखलाने। महबूब मेरे, महबूब मेरे, तू है तो यह दुनिया कितनी हसीं है और तू नहीं तो कुछ भी नहीं है.
प्यार में डूबे को चारों और फैली गंदगी भी नज़र नहीं आती और न महंगाई। बुल्ले शाह कहता  है कि बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, मगर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता।
दीवानों ने मोहब्बत की याद में ताजमहल बनवा कर सारी को मोहब्बत की निशानी दी है। मगर साथ ही हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक। कितनी महंगी है मोहब्बत। आजकल के दीवाने को डर लगता है कि इतना महंगा गिफ्ट कैसे देगा?
ये दिल किसी मुल्क का तख़्त नहीं जिस पर मोहब्बत के सिवा किसी अन्य का राज चले। सख्त दिलवालों को इस डायलॉग में बग़ावत बू आती है। अरे कभी की हो तो पता चले। पत्थर दिल वाले क्या जानें।
इसमें मनुहार बहुत है। हमीं से मोहब्बत हमीं से लड़ाई हमें मार डाला दुहाई दुहाई। ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर नाराज़ न होना कि तुम मेरी ज़िंदगी हो।

प्यार की तुलना हमेशा चांद सितारों से की गई। चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था, हां तुम भी बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था। ओ तुझे चांद के बहाने देखूं कि छत पर आ जा गोरिये। रुक जा सहर ठहर जा रे चंदा, बीते न मिलन की बेला। 
फूल तुम्हें भेजा है ख़त में फूल नहीं मेरा दिल है। फूलों के रंग से दिल की कलम से लिखी रोज़ तुम्हें पाती। लिखे जो ख़त तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए, सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए, रात आई तो सितारे बन गए।
ये इंतज़ार बहुत कराता है। एक सेकंड लाख साल के बराबर महसूस होता है। बड़ी ताक़त होती है इसमें। ऊपर वाले से भी टकरा जायें। बड़ी कशिश थी यारों इस एक शब्द प्यार में। ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद।
मगर ट्रेजडियां भी खूब रही हैं। सस्सी-पुन्नू, रोमियो-जूलिएट, शीरीं-फ़रहाद, लैला-मजनू, सोहनी-महिवाल आदि। कोई नहीं सफल हुआ।

Sunday, January 22, 2017

कुत्तों वाली दालमोठ!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज बरसों बाद जीतू के घर जाना हुआ। जफ्फियां डाल कर मिले। गुज़रे ज़माने की यादों में डूब कर खूब बिंदास बातें हुईं। अच्छाइयों पर कम और बेकूफ़ियों पर ज्यादा हंसे। उसकी पत्नी चाय-शाये ले कर आई।
जीतू को कुछ कमी दिखी। पत्नी से बोला - ओ सोंढ़िये, काजू वाली दालमोठ भी ले आ। अपणा यार है। फिर वो मेरी ओर देखते हुए बोला - देहरादून से खास मंगाई है। बड़ी महंगी है। हर ऐरे-गैरे को नहीं खिलाते। पर तू तो अपणा यार है, यार।
मैंने कहा - छोड़ यार। मगर उसने मेरी एक न सुनी।
थोड़ी देर बाद जीतू की पत्नी प्लेट में दालमोठ लेकर हाज़िर हुईं। मैंने देखा उनकी निगाहें दालमोठ में कुछ तलाश रही हैं। इससे पहले कि मैं कुछ समझता, उसने दालमोठ में बचा हुआ काजू का टुकड़ा ढूंढ निकाला और पलक झपकते ही मुहं में ठूंस लिया। फिर खींसे निपोरते हुए प्लेट सामने रख दी - आप किस्मतवाले हो जी। बस इत्ती बची है।
ये कह कर वो झट से खिसक गयीं।
मैंने कनखियों से देखा। मुट्ठी भर दालमोठ। काजू का नामो-निशान नही। मैं समझ गया। जीतू की पत्नी सारे काजू बीन कर कबकी खा चुकी है। जो बचा था मेरे सामने प्लेट रखने से पहले अभी अभी खा गयी।
दालमोठ की मात्रा और उसमें काजू न देखकर जीतू तनिक खिसियाया  - हें...हें...अपनी वाइफ बड़ी शौकीन है जी काजू की।
मैंने उसको सांत्वना दी - कोई नईं प्यारे। कहानी घर घर की। काजू का दुश्मन सारा ज़माना। और यार सच्ची बात तो ये है कि मैं दालमोठ खाता ही नहीं। चाहे उसमें दुनिया भर की नियामत ही क्यों न पड़ी हो। इसका भी एक किस्सा है।

Saturday, January 21, 2017

प्राण ने रिलीज़ के बीस साल बाद देखी थी ‘ज़ंज़ीर’

- वीर विनोद छाबड़ा
किसी के भाग्य में क्या लिखा है? उसे आसमान छूना है या गटर में गिरना है, इसकी स्क्रिप्ट तो उसके पैदा होते ही लिखनी शुरू हो जाती है। यह बात अलबत्ता दूसरी है कि कोई इसी पढ़ नहीं पाता। इसी को नियति कहते हैं। अब अमिताभ बच्चन को देख लीजिये। मन में ख्वाईश थी एक्टर बनने की। लेकिन उनका ऊंचा कद और लंबी लंबी टांगें देख कर नहीं लगता था कि सिनेमा के वो सुपर स्टार बनेंगे। साठ के दशक में सिनेमा में लंबू हीरो नहीं चलता था। मध्यम ऊंचाई होनी चाहिए। हीरोईन को उसके कंधे तक पहुंचने में तकलीफ न हो। और दर्शक को भी लगे कि हमारे बीच का ही कोई बंदा है।
एक दिन अमिताभ किसी काम से बंबई आये। यह १९६० की बात है। किसी तरह जुगाड़ किया शूटिंग देखने का। आरके स्टूडियो में 'छलिया' का सेट लगा था। मनमोहन देसाई की पहली फिल्म थी वो। अब अमिताभ को क्या मालूम था कि सत्तर और अस्सी के दशक में इसी मनमोहन देसाई की कई फिल्मों के वो हीरो बनेंगे। बहरहाल, जब अमिताभ अंदर घुसे तो सामने प्राण साहब को पाया। सिनेमा के सबसे खूंखार विलेन। पाकिस्तान से आये ख़तरनाक खान की भूमिका में थे वो और अपनी मुंहबोली हिंदू बहन की तलाश में भारत आये थे। अमिताभ तो डर ही गए उनको देख कर। लेकिन जब ऑटोग्राफ लिया तो पता चला कि वो बहुत शालीन इंसान हैं। अमिताभ बहुत इम्प्रेस हुए। अब उन्हें क्या मालूम था कि आगे चल कर प्राण साहब उनके चमकीले भाग्य के विधाता बनेंगे। और एक नहीं पंद्रह हिट फ़िल्में साथ-साथ करेंगे।
Pran & Amitbh in Don
कई साल बाद अमिताभ बच्चन ने किसी तरह से ख्वाजा अहमद अब्बास के 'सात हिंदुस्तानी' से फिल्मों में एंट्री कर ली। इसके बाद बंसी बिरजू, रेशमा और शेरा, एक नज़र और बॉम्बे तो गोवा भी कर लीं। लेकिन मज़ा नहीं आया। किसी बड़े प्रोडक्शन घराने की तलाश में थे वो, जो उन्हें 'लिफ़्ट' करा दे। 
इधर हसीना मान जायेगी, मेला और समाधी के लगातार तीन हिट से कुप्पा हुए प्रकाश मेहरा सलीम-जावेद की लिखी 'जंजीर' की स्क्रिप्ट लिए घूम रहे थे। इस स्क्रिप्ट के एक और भी मालिक थे - धर्मेंद्र। वास्तव में मूल मालिक भी वही थे। दोनों ने 'समाधी' में साथ-साथ काम किया था। लेकिन धर्मेंद्र लंबे टाईम के लिए व्यस्त थे। उन्होंने मेहरा को स्क्रिप्ट बेच दी।
प्रकाश मेहरा ने सबसे पहले तो पठान की पावरफुल रोल के लिए प्राण को साईन किया। उन्होंने कभी 'छलिया' में प्राण को खान के गेटअप में देखा था। तभी से मन में वो बसे थे। बस हीरो मिल जाए किसी तरह।
प्रकाश मेहरा देवानंद के पास पहुंचे। आपकी रोमांटिक इमेज को बदल देगा यह रोल - एंग्री यंग मैन। आज मुल्क को इसी की ज़रूरत है। लेकिन देव ने शर्त लगा दी - इसमें दो-तीन गाने डाल दो या फिर स्क्रिप्ट मुझे दे दो। नवकेतन के बैनर तले फिल्म बनेगी और तुम उसे डायरेक्ट करना।
प्रकाश मेहरा उठ लिए वहां से। मैं तो उन्हें काम देने आया था और वो मुझे ही काम दे रहे हैं।
अगला पड़ाव था - राजकुमार। उन्हें बहुत पसंद आयी स्क्रिप्ट। खासतौर पर हीरो का रोल - 'जानी, फिल्मों में आने से पहले हम पुलिस इंस्पेक्टर ही थे।' लेकिन उन्होंने भी शर्त लगा दी। फिल्म मद्रास में शूट होगी। प्रकाश मेहरा तैयार नहीं हुए। फिल्म में बैकग्राउंड बंबई है।
इधर इंडस्ट्री में मेहरा का मज़ाक उड़ने लगा कि दर्जनों हीरो इधर-उधर घूम रहे हैं, लेकिन इन्हें नहीं मिल रहा है। प्राण साहब ने मेहरा का लटका चेहरा देखा। उन्होंने बताया - मेरे बेटे सुनील के दोस्त का भाई है - अमिताभ बच्चन। उसकी 'बॉम्बे टू गोवा' रिलीज़ हुई है। मैंने देखी नहीं। बेटा बता रहा था कि फाइट सीन बहुत ज़बरदस्त हैं।
सलीम-जावेद को लेकर प्रकाश मेहरा फिल्म देखने चले गए। फाइट सीन देखते ही वे फिल्म छोड़ कर सिनेमाहाल से बाहर आ गए। बहुत खुश थे वे - मिल गया हीरो।
जब अमिताभ बच्चन को प्रकाश मेहरा साईन करने पहुंचे तो वो सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ 'आनंद' की शूटिंग कर रहे थे। किसे मालूम था कि वर्तमान सुपर स्टार की मौजूदगी में भविष्य का सुपर स्टार साईन फ़िल्म कर रहा है।
बाकी तो हिस्ट्री है। लेकिन इस कहानी के साथ एक पुछल्ला भी है।
प्राण साहब आमतौर पर अपनी फ़िल्में नहीं देखते थे। करीब बीस साल बाद उन्हें 'ज़ंजीर' देखने का संयोग हुआ। फ़ौरन अमिताभ को फ़ोन मिलाया - दोस्त, बहुत अच्छा काम किया था। बधाई।
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Published in Navodaya Times dated 21 Jan 2017
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D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
mob 7505663626


Wednesday, January 18, 2017

साधारण व्यक्ति भी प्रसिद्ध होते हैं

- वीर विनोद छाबड़ा 
एक विद्वान हुआ करते थे पंडित कृपा नारायण। परम ज्ञानी और विख्यात धर्म वक्ता। दूर दूर से लोग उनसे ज्ञान प्राप्त करने आते थे। उनके विचार बहुत सुलझे हुए होते थे। स्वयं राजा भी उनको बहुत मानते थे और समय समय पर गूढ़ और जटिल मुद्दों पर उनसे सलाह-मशविरा भी लिया करते थे। उन्हें गर्व भी था अपनी ख्याति और ज्ञान पर।

कृपा जी के पड़ोस में एक साधारण बुद्धि व्यक्ति रहता था - अवतार कृष्ण। वो निर्धन भी था। छोटी-मोटी परचून की दुकान थी उसकी। इसकी कमाई से जैसे-तैसे गुज़र हो जाती थी। घर में पत्नी के अलावा और कोई नहीं था। अवतार और उसकी पत्नी का स्वभाव बहुत अच्छा था। जब-तब किसी की भी मदद के लिए तैयार रहते थे। बस उन्हें पता चल जाए कि किसी को उनकी मदद की ज़रूरत है। इसी कारण उसे भी लोग दूर दूर तक जानते थे।
लेकिन पंडित कृपा नारायण उन्हें साधारण और हीन व्यक्ति समझ कर ज्यादा तवज्जो नहीं देते थे।
जबकि अवतार उन्हें जब कहीं देखता तो झुक प्रणाम करता था। उसे गर्व था कि उसके पड़ोस में पंडित कृपा नारायण जैसे बहुत बड़े विद्वान रहते हैं। वो सबको बताया भी करता था कि वो कृपा जी का पड़ोसी है।
एक दिन एक राहगीर आया। वो किसी  दूसरे नगर से आया था और पंडित कृपा नारायण के घर का पता पूछ रहा था। कृपा जी उस समय उधर से गुज़र रहे थे। उनको उत्सुकता हुई कि यह कौन है जो उनके घर का पता पूछ रहा है। वो चुपचाप देखने लगे। उन्होंने देखा कि वो राहगीर एक पनवाड़ी से उनका घर पूछ रहा है।
पनवाड़ी ने बताया कि वो किसी कृपा को नहीं जानता। तब उस राहगीर ने अवतार कृष्ण का पता पूछा। पनवाड़ी ने हंस कर कहा - अरे उन्हें कौन नहीं जानता। वो रहा सामने उसका घर।
लेकिन अगले ही पल पनवाड़ी को आश्चर्य भी हुआ - लेकिन, तुम मिलना किससे चाहते हो? पंडित कृपा नारायण से या अवतार कृष्ण से?