Sunday, August 13, 2017

अब तुम जल्दी ठीक होंगे

-वीर विनोद छाबड़ा

आज हमें एक मित्र ने काम की बात बताई है।
वो मेरे घर नहीं आये थे। मैं ही उनके घर गया। भयानक उलझन हो रही थी। बात करने कोई पात्र व्यक्ति मिला ही नहीं। हमारी नज़र में ढंग के आदमी की पहचान वो होती है जो विधिवत चाय के लिए पूछे नहीं, बल्कि चाय ले आये।
लेकिन प्रॉब्लम यह रही कि ऐसा भला माणूस मिला नहीं। कोई सुनाने या सुनने वाला मिला नहीं। एक अदद पत्नी भी व्यस्त रही। सोचने लगा कि न सुनने वाला और न सुनाने मिला और कुछ दिनों न मिला और कुछ दिन तक ऐसी स्थिति बनी रही तो पागल हो जाऊंगा। यार कोई मिले तो। लेकिन राजनीती पर बकवास सुनाने वाला न मिले। आज जमावड़ा वाला कीर्तन भी नहीं हुआ। सब दिल्ली गए हुए थे, कोई राजनीतीक उठा पटक करने। 
याद आया कि पड़ोस में रहने वाले एक मित्र है। मैं उन्हें राजनीती सबसे कम बहस करते पाता हूँ। सिनेमा पर ज़बरदस्त बहस करते पाता हूं ज्यादा मूड में तो तरन्नुम में रफ़ी का गाना सुनाने लगते हैं अगर म्युज़िक शंकर जयकिशन का हो तो फिर तो फिर बात क्या। उठ कर गाने भी लगते हैं। यों प्यानो भी उनके पास। कम दिक्कत देने वाले मित्रो में हैं। अलप भाषी हैं। मैं उनके घर चला गया। थोङी तक कुशल-क्षेम का आदान प्रदान होता रहा। बहुत अच्छा लगा कि इन्हें मेरी मानसिक उलझन का पता नहीं है।
लेकिन आखिर वही हुआ जिसका भय था। यार, तुम्हारी बीमारी का क्या हुआ? फ़लाने मनोचिकित्सिक के पास जाओ। मनोविज्ञान के हर मर्ज़ का इलाज़ है उनके पास। हम सर झुकाये चुपचाप बहुत देर तक सुनते रहे। काफी देर तक वो बोलते रहे।
अचानक हमने पूछा - आज मैच की पोजीशन क्या रही?
वो चौंके - यानी मैं तुम्हें घंटे भर तो जो भाषण देता रहा, तुमने उसे सुना ही नहीं।
मैंने कहा - नहीं। बिलकुल नहीं। इस कान से सुनो और उधर से निकाल दो। यही गुरुमंत्र दिया है परसों एक डॉक्टर ने। और अब कुछ बेहतर लग रहा है।
वो बहुत जोर से हंसे। अब तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे, पिचले एक घंटे से मैं तुम्हें यही समझा रहा था।
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१४ अगस्त २०१७




भूख न लगना किस बीमारी के लक्षण?

- वीर विनोद छाबड़ा
क़रीब महीना भर होने को आया है। भूख नहीं लगती है। पहले रोटी की भूख गायब हुई और अब चावल नहीं अच्छे लगते। वज़न भी कम हो गया है।
यार दोस्त तो देखते ही कृपालू हो जाते हैं - अरे, क्या हो गया? इतने मुरझाये हुए दिखते? डॉक्टर को दिखाया? क्या कहा?
हम जैसे टाल जाते हैं - आज से ठीक एक महीने बात दाह संस्कार है.और फिर चार दिन बाद क्रिया।
मित्र आश्चर्य चकित हो जाते हैं। शायद वो यही सुनना हैं।
हम जोर से हंस देते हैं। मित्र हैरान होते हैं।
हम हम उनका भ्रम मिटाने के लिए हंस देते हैं - डॉक्टर कहता है। आपकी उम्र और हाइट के हिसाब से वज़न ठीक है।
लेकिन मित्र पीछे पड़े हैं। फलां डॉक्टर को दिखाओ। लेकिन किसी ने यह नहीं कहा - चलो मैं चलता हूं, तुम्हारे साथ।
एक ने इतनी मेहरबानी ज़रूर की कि मैं तुम्हारे साथ चला चलता, लेकिन मुझे कल ज़रूरी काम है। और परसों साले के बेटे का कनछेदन। कानपुर जाना।
चटपटा खाना अच्छा लगता है। लेकिन डरता हूं कि कोई और प्रॉब्लम न हो जाये। मित्रगण भी एक कदम आगे बढ़ते हैं और दो कदम पीछे। कुछ गड़बड़ हो गयी तो सारा इलज़ाम मुझ पर आ जायेगा।
कल एक जगह से न्यौता आया था। पेशे से कैटरर हैं। अपना विज्ञापन ज्यादा करते हैं। कल भी बहुत बड़ा विज्ञापन लगा था। मसवारा, नामकरण, कनछेदन वगैरह वगैरह वगैरह। लगा जैसे कहना चाहते हैं  कि यह सब संस्कार उचित दर पर सम्पन्न होते हैं।
वैसे हम उनके यहां जाते नहीं। लेकिन चले गए इसलिए कि चटपटे आईटम देख कर भूख खुल जाए। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। फिर उनका व्यवहार देख कर दिल और भी खराब हो गया। हमने व्यवहार पकड़ाया। उन्होंने हाथों से तौला। समझ गए कि रकम हलकी है। बेमन से पकड़ा। हमें उपेक्षित भाव से देखा।

क्यों न दिखे यूसुफ साहब और काका एक संग?

- वीर विनोद छाबड़ा 
दिलीप कुमार साहब पक्के परफेक्शनिस्ट थे। उन्हें एक-दो रिटेक में कभी आनंद नहीं मिला। रिटेक पर रिटेक। वो बात दूसरी है कि अक्सर पहला वाला ही फ़ाईनल रहा। नतीजा - छह महीने में तैयार होने वाली फिल्म दो साल में बनी और बजट भी बढ़ता चला गया।
कुछ-कुछ ऐसे ही थे हमारे काका उर्फ़ राजेश खन्ना। खासतौर पर तब जब अमरदीप (१९७९) से वो एक नए रूप में दिखे। उनके कैरियर में परफॉरमेंस के नज़रिये से ये यह एक शानदार फिल्म थी और साथ ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता की वापसी भी। और 'अवतार' (१९८३) इस परफॉरमेंस की पराकाष्ठा थी।
दिलीप साब की धरोहर राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट। ख़बर थी कि दिलीप कुमार और राजेश खन्ना में बहुत पटरी खाती थी। अक़्सर शामें साथ गुज़रती थीं। जाम के साथ राजनीति, फिल्म इंडस्ट्री और पारिवारिक मुद्दों पर लंबे डिस्कशन भी चले।
लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर' इन दो लीजेंड को एक-साथ लाने की कोशिश क्यों नहीं की गई?

Saturday, August 12, 2017

शुक्ला जी के बेटे

-Vir Vinod Chhabra
हमें याद है कि हमारे परिवार में एक बच्चे को 'पंडत' अर्थात पंडित कहा जाता था। कारण यह था कि न वो मीट-मच्छी खाता था और न ही अपशब्द बोलता था। और इन सबसे दूर रहने वाली बच्ची 'ब्राह्मणी' कहलाती थी। खराब काम करने पर हमें 'मलिच्छ' की उपाधि से विभूषित किया जाता था।
हमारे सीनियर मित्र Ravindra Nath Arora रवींद्र नाथ अरोड़ा जी बताते हैं कि उन्होंने जब होश संभाला था तो उनकी पहचान 'शुक्ला जी' के बेटे के तौर पर थी। कारण वही था कि उनके पिता पूर्णतया वेजेटेरियन थे। मदिरा से घृणा तो थी ही, मदिरा सेवन करने वालों से भी दूर रहा करते थे। सदैव ज्ञान-ध्यान और पांडित्य की बातें करते थे। गीता, रामायण और महाभारत सहित अनेक पुराणों का भी ज्ञान था। धार्मिक मुद्दों के अलावा सोशल समस्याओं पर भी लोग सलाह-मश्विरा करने आते थे। कर्म से पक्के ब्राह्मण और विद्वता में पंडित जी थे।

अनजाने दोस्त

-वीर विनोद छाबरा 
हमारे एक अस्सी वर्षीय मित्र को खराब लगा जब एक सोसाइटी ने एक हमारे ८२ वर्षीय मित्र को न सिर्फ वयोवृद्ध घोषित किया गया बल्कि इसी नाते बाक़ायदा सम्मानित भी कर दिया। उन्हें बहुत खराब भी लगा। हम होते तो हमें भी बेहद बुरा लगता। भाड़ में सम्मान /
मित्र कहते हैं जब तक चलने और सोचने की शक्ति है। विचारों से भी प्रगतिशील हूं, तब तक मैं वयोवृद्ध कहलाना पसंद नहीं चाहूंगा । इस सम्मान को ससस्मान वापस करना चाहता हूं। 
मैं ठीक उनकी ही तरह के विचार रखता हूं। हालांकि बस में नहीं चल सकता। लेकिन मौका मिला तो चल भी सकता हूं।
लेकिन इंसल्ट पसंद नहीं करता। गुस्सा आता है। कैसी पीढ़ी? सीनियर का सम्मान नहीं करती। कल एक नेशनल बैंक की ब्रांच में खड़ा था। शायद उस समय सबसे सीनियर मैं ही था। किसी ने बैठने के लिए सीट ऑफर नहीं की। काउंटर पर बैठी एक लड़की, जो अपने व्यवहार से ऑफिसर रैंक की थी। क्योंकि उस समय वो सबसे ज्यादा एक्टिव और हेल्पफुल थी। उसने मुझसे कहा - अंकल आप जाएँ, आपका काम हो जाएगा। शाम तक आपके अकाउंट के पैसा पहुँच चाहेगा। बाहर मौसम बहुत ख़राब हो रहा है।
मैंने कहा - थैंक्यू मेडम, मौसम तो ख़राब हो चुका है। मेरे पास कार है, थोड़ा भीग ही जाऊंगा। कोई ग़म नहीं। आप नहीं जानती कि यह काम कितना ज़रूरी है। मेरे सामने बेटी के अकाउंट में पैसा ट्रांसफर हो जाएगा तो इत्मीनान हो ज्यादा हो। मैं उम्र के उस पड़ाव पर हूं कि कब क्या हो जाए, कुछ पता नहीं?
हमारी बात सुन रहा एक जवान उठा। सर, आप बैठें कृपया।
हमने ना-नुकुर की।
उसने हमें ज़बरदस्ती बैठा दिय। दस मिनट हुए थे, हमें बैठे हुए कि बैंक वाली मैडम ने सूचित किया कि पैसा अकाउंट में ट्रांसफर हो गया।
हमें चैन मिला। ऊपर वाले तेरा लाख लाख शुक्रिया। सही समय पर पैसा मेरी बेटी आकउंट में ट्रांसफर हो गया। हम कम्प्यूटर युग को इसीलिए बहुत शुक्रिया कहते हैं। हफ़्तों का काम चुटकियों में होता है। अन्यथा एक टेबुल से दूसरी टेबुल पर फाइल उठा कर रखने में चपरासी हफ्ता भर ले लिया करता है। 

Friday, August 11, 2017

दो बीघा ज़मीन।

-वीर विनोद छाबड़ा
बिमल रॉय 'दो बीघा ज़मीन' (१९५३) बनाने की योजना बना रहे थे।
कहानी कुछ यों थी। लगातार दो साल सूखा पड़ा। एक किसान शंभू महतो को दो बीघे का खेत ज़मीदार के पास गिरवी रखने को मजबूर होना पड़ा।
शंभू पर ज़मींदार दबाव बनाता है कि या तो खेत बेच दे या फिर क़र्ज़ चुकाओ। पुरखों की ज़मीन है। शंभू किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं। वो क़र्ज़ के ६५ रुपये का चुकाने के लिए अपना सब कुछ बेच देता है। पत्नी के गहने भी। लेकिन ज़मींदार ने धोखाधड़ी करके २३५ रुपये का क़र्ज़ निकाल दिया। कोर्ट में भी  शंभू को न्याय नहीं मिला।
मगर शंभू हताश नहीं होता। वो तय करता है कि शहर जाऊंगा, खूब मेहनत-मज़दूरी करेगा। खूब पैसा कमायेगा। और ज़मींदार का क़र्ज़ अदा करके पुरखों की दो बीघा ज़मीन छुड़वायेगा।
शंभू कलकत्ता आता है। वहां वो हाथे ताने रिक्शा चलाता है। मगर शहर में ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है। हालात इतने विषम हो जाते हैं कि शंभू शहर से कुछ हासिल होने की बजाये अपना सब कुछ गंवाना पड़ता है। थक-हार कर वो गांव लौटता हैं तो देखता है कि उसकी दो बीघा ज़मीन नीलाम हो चुकी है। और ज़मींदार उस पर फैक्टरी बनवा रहा है। शंभू निशानी के तौर मुट्ठी भर मिट्टी बटोरता है। लेकिन सुरक्षा कर्मी उसे ऐसा करने से भी मना कर देता है। निराश शंभू वहां से चल देता है।
शंभू के इस किरदार के लिए बिमल रॉय को किसी दुबले-पतले मेहनतकश चेहरे की ज़रूरत थी। एक दिन किसी ने उनके सामने बलराज साहनी को खड़ा कर दिया। सूट-बूट के साथ टाई और फिर ऊपर से अंग्रेज़ों को भी मात करने वाली नफ़ीस अंग्रेज़ी। बिमल रॉय को जैसे गुस्से का दौरा पड़ा। एकदम से नकार दिया। बाद में बड़ी मुश्किल से माने।
कामयाबी की इस बामुश्किल सीढ़ी को बलराज पार गए। लेकिन अभी इससे भी कठिन मुश्किलों का दौर बाकी था। सिर्फ वेश-भूषा किसान की धारण करने से कोई मेहनतकश नहीं बन जाता। मेहनतकश की यंत्रणा से गुज़रना भी होता है।
झुलसाने वाली गर्मी, तपती सड़क और नंगे पांव बलराज 'हाथे ताने रिक्शा' खींचने के लिए तैयार खड़े हैं।
बेतरह भागदौड़ वाला शहर कलकत्ता। अगर पता चले कि शूट चल रही है तो ट्रैफिक रुक जाये। जाम लग जाये। शहर की ज़िंदगी थम जाये।
बिमल रॉय ने कैमरा कार में कुछ इस अंदाज़ में छुपाया कि किसी को नज़र न आये। शहर की ज़िंदगी चलती रहे।

Thursday, August 10, 2017

छपवा ही लें पुस्तक

- वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह सुबह ही आ धमके हमारे एक बड़े भाई। दद्दा कहते हैं हम उन्हें। बोले - क्या लिख पढ़ रहे हो?
हमने कहा - फेस बुक भर रहा हूं और उसी में से कुछ चुनींदा लेख और ज़िंदगी से उठाये किस्से-कहानियां ब्लॉग में भी डालते चलता हूं।
दद्दा भन्नाये - बस यही करते रहना। किसी दिन निकल लोगे ऊपर। अब अपने ऊपर जाने की ख़बर तुम खुद तो फेस बुक पर डालोगे नहीं और तुम्हारे आस-पास रहने वाले दोस्तों-रिश्तेदारों को फेस बुक पर ठीक से नाक पौंछने तक की भी तमीज नहीं। किसी को तुम्हारे अंतर्ध्यान होने का कैसे पता चलेगा?
हमने कहा - नहीं दद्दा, ऐसी बात नहीं। कई सयाने हैं। हमारे पल-पल की ख़बर रखते हैं। कोई न कोई देर-सवेर फेस बुक पर चेंप देगा।
दद्दा बोले - अच्छा ठीक। फेस बुक पर ख़बर भर होने से क्या होगा? पांच-छह सौ लोग तुम्हारा मरना लाईक करेंगे। सौ के करीब कमेंट आ जायेंगे - दुखद। बुड्ढे को विन्रम श्रद्धांजलि। हो गया तुम्हारा पटाक्षेप। दो-चार दिन यही चेलगा। इसके बाद कोई कोई नाम लेवा नहीं रहेगा। कोई पुस्तक नहीं लिखोगे तो यही होगा। पुस्तक होगी तो लोग पढ़ेंगे, हो सकता है सहानुभूति में मरणोपरांत कोई ईनाम-विनाम मिल जाए।
हमने कहा - दद्दा, क्या लाभ। हम तो जीते-जी तो एन्जॉय कर नहीं पाएंगे। और फिर हमें कोई शेक्सपीयर या मुंशी प्रेमचंद तो बनना नहीं।
दद्दा बोले - तुम रहोगे लल्लू के लल्लू। तो मत मरो। कौन मरने को कहता है? सब इंतेज़ाम अब जीते जी होने लगा है। हर प्रोग्राम का पैकेज है। कल्लू हलवाई से लेकर प्रदेश मुखिया तक से विमोचन करा दें। फिफ्टी-फिफ्टी करो तो किसी कॉरपोरेट घराने से पचास लाख ईनाम दिलवा दूं। इत्ता जुगाड़ तो है हमारा। फिर घूमना मुर्गे की तरह गर्दन ऊंची करके, जगह जगह बांगे देते फिरना।
हम दद्दा की बातों में बह गए। हमें याद आया कि किशोरावस्था में जिस दिन स्वतंत्र भारत में हमारा लेख छपता था तो चारबाग़ की गुरुनानक मार्किट में हम सीना फुला कर टहला करते थे। एक दिन हमारा ही छपा आर्टिकल पढ़ रहे एक किरयाने वाले ने हमें टोक दिया - पिताजी से कहना, पिछले महीने का उधार नहीं चुकाया तो अगले महीने राशन नहीं मिलेगा।
इधर दद्दा बता रहे थे - अगर चाहते हो कि तमाम लायब्रेरियों में तुम पड़े रहो तो कम से कम दो-चार किताबें तुम्हारी ज़रूर आनी चाहियें। और कुछ न सही ब्रेन वेव पर ही लिख दो। हवा-हवाई किले। उड़न तश्तरियां। आजकल यह मैटेरियल भी खूब बिक रहा है। सरकारें भी खूब खरीद रहीं हैं। किसी पाठ्यक्रम में लगवा दूंगा। वैसे अंग्रेजी के प्रकाशक भी इसी की तलाश में रहते हैं।
हमने शंका ज़ाहिर की - लेकिन हमारी लिखी पुस्तकें पढ़ेगा कौन

Wednesday, August 9, 2017

कड़ी मशक्कत से मिली इज़्ज़त

-वीर विनोद छाबड़ा 
अरब देश में बुखारी नाम के एक ज्ञानी-ध्यानी रहते थे। वो अपने ईमानदारी और साफगोई के लिए दूर दूर तक प्रसिद्ध थे। रोज़ सैकड़ों लोग उनसे सलाह-मशविरा करने आते थे।
एक बार बुखारी को समुंदर पार मुल्क से बुलावा आया कि अपने नेक ख्यालात और तजुर्बों से इस मुल्क के बंदो को भी अमीर करें।
बुखारी निकल पड़े समुंद्री जहाज़ से। अपने नेक ख़यालात की वज़ह से उन्होंने बहुत जल्दी उस जहाज के बाकी मुसाफ़िरों के दिलों में भी जगह बना ली।
उसमें एक मुसाफ़िर उनके बहुत करीब आ गया। वो भी बुखारी की तरह नेक और तालीमी बंदा बनना चाहता था। बुखारी भी उस पर बहुत यकीन करने लगे थे।
नज़दीकियों की वज़ह से वो मुसाफ़िर बहुत जल्दी बुखारी के बारे में सब कुछ जान गया। उसे यह भी पता चल गया कि बुखारी के पास सफ़र खर्च के लिए एक हज़ार दीनारें भी हैं जो एक थैली में बंद हैं।
दौलत देख उस मुसाफ़िर का मन बेईमान हो गया। उसने उन दीनारों को हड़पने की एक चाकचौबंद साज़िश रची।
अगली सुबह वो उठ कर चीखने-चिल्लाने लगा - हाय मैं बर्बाद हो गया। लुट गया। किसी ने मेरी एक हज़ार दीनारें चुरा लीं हैं।
जहाज पर हड़कंप मच गया। सारे मुसाफ़िर एक-दूसरे को शक़ की निग़ाह से देखने लगे।
जहाज के मुलाज़िमों ने उस मुसाफ़िर से कहा - घबड़ा मत। जो भी चोर है। इसी जहाज में है। वो बच कर जा नहीं सकता। अभी सबकी तलाशी हो जाती है।
बुखारी समेत तमाम मुसाफ़िर भी इसके लिए तैयार हो गए। इस पर उस मुसाफ़िर को हैरत हुई - बुखारी इतनी जल्दी कैसे तैयार हो गए?
बहरहाल जब बुखारी का नंबर आया तो मुलाज़िमों ने उनकी तलाशी लेने से इंकार कर दिया - आप जैसे नेक बंदे की तलाशी हम नहीं ले सकते।
मगर बुखारी ने सख्ती से कहा - नहीं भाई। मैं अनोखा नहीं। एक आम आदमी हूं। मेरी तलाशी ज़रूर लीजिये।
बहुत ज़ोर देने पर बुखारी के तलाशी हुई। मगर चंद दीनारों के सिवा कुछ न निकला।
उस मुसाफ़िर को बड़ी हैरानी हुई - आखिर कहां चली गयी हज़ार दीनारों वाली वो थैली?
उसने डरते-डरते बुखारी से पूछा - मुझे यकीन नहीं हो रहा। आखिर वो थैली गयी कहां?
बुखारी मुस्कुराये - दोस्त, अगर मेरे सामान में से वो थैली बरामद हो जाती तो मेरी इज़्ज़त, ईमानदारी और मेरी सफाई के मद्देनज़र मेरा कुछ न बिगड़ता। मगर शक़ के घेरे में ज़रूर हमेशा रहता। ज़िंदगी में मैंने कड़ी मेहनत से ईमानदारी और इज़्ज़त कमाई है। इन पर आंच आये या धब्बा लगे यह मुझे किसी कीमत पर मंज़ूर नहीं। इसे मैंने दौलत से नहीं खरीदा था। दौलत तो मैं फिर बेशुमार कमा लूंगा। इसलिए मैंने वो थैली समुंदर में फ़ेंक दी।
वो मुसाफ़िर बेहद शर्मिंदा हुआ। और बुखारी का हमेशा के लिए मुरीद बन गया।

नोट - दादा-दादी, नानी-नाना और माता-पिता की पोटली की कहानियां जो आज इधर-उधर यूं ही बिखरी पड़ी हैं। 

चैनल मीडिया तय करता है समाज के ठेकेदार

- वीर विनोद छाबड़ा
बरसों से देख रहा हूं। सुबह-सुबह बाथरूम में घुस गए। घंटों लगाए। जम कर पानी बहाया। १०८ दफे ओम नमो शिवाय किया। पता नहीं नहाये भी कि नहीं। सर्दी के दिन हुए तो निसंदेह नहीं नहाया। मुंह-हाथ धोना ही पर्याप्त रहा। शीशा देखा। माथे पर लंबा और गहरा लाल-सिंदूर वाला टीका लगाया। गले में मणके वाली माला पहनी। खुद से बोला - जय श्री राम। और हिन्दू समाज के स्वयंभू प्रतिनिधि बन गए।
ऐसा ही नज़ारा एक और भी है। बाथरूम गए। पानी तब तक जा चुका है। इसलिए हल्का गुसल लिया। यह रोज़ की कहानी है। बेगम कहते कहते हार गई कि पहली नमाज़ के वक़्त उठा करो। बहरहाल, उन्होंने टखनों से ऊपर तक का अलीगढ़ीया पायजामा पहना। हवा में फहराती डाई की हुई लंबी दाढ़ी। सर पर काली टोपी। बदन पर कुरता। घड़ी में वक़्त देखा। घर पर ही नमाज़ पढ़ी।  हाथ में एक अदद कोई उर्दू का अख़बार या रिसाला। मुस्लिम समाज के स्वयंभू नुमाइंदे।
विचार दोनों के ही दकियानूसी और पुरातनपंथी। इन्हें मालूम ही नहीं ज़माना कहां से कहां पहुंच गया है। 

Monday, August 7, 2017

महिला विरोधी गीले साहब!

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक सीनियर सहकर्मी हुआ करते थे। घनघोर महिला विरोधी। उनका विचार था कि पशुओं की जगह कांजी हॉउस में और महिलाओं की रसोई में होने चाहिए। नेचर ने इन्हें चौका-बर्तन और बच्चे पैदा करने के लिए बनाया है। दफ़्तर इनमें निठल्लापन पैदा करता है। यहां वो दिन भर सोती रहती हैं। एक-दूसरे को जलाने के लिए रोज़ नए कपड़े पहन कर आती हैं। फैशन की नुमाईश करती फिरती हैं।
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू बहुत रोमांटिक था। जब भी किसी महिला सहकर्मी उनकी ओर मुस्कुरा कर देखा तो जीभ लपलपा गयी। दिल ओले ओले करने लगा।। जनाब पीछे-पीछे चल देते थे। बहुत दूर तक छोड़ कर आते थे।
हमने उन्हें अक्सर देखा जब भी कोई सामने आ कर बैठी नहीं कि ऊंठ की तरह गर्दन बहुत आगे तक निकल आयी। शुक्र है कि बीच में बहुत चौड़ी टेबुल होती थी। अन्यथा आभास होता था कि चुम्मी लेने में उन्हें देर न लगे। दायें-बायें बैठी महिला अगर अलर्ट न हो तो समझ लीजिये सर गोद में रखने का मौका न चूकें। 
महिला कर्मी के जीवन में दुःख हो या सुख। सबसे पहले पहुंचने वालों में वही महिला विरोधी ही होते। धन और मन से सेवा की पेशकश भी करते। तन से तो वहां मौजूद होते ही थे।
महिलाओं के प्रति उनकी यह आसक्ति देख उनके बारे में यह धारणा थी - खुदा करे कि हसीनों के मां-बाप मर जाएँ, बहाना ग़मी का हो और हम उनके घर जाएं।
मगर थे, हद दरजे के ईमानदार, चाहे धर्म हो या कर्म। दफ़्तर का काम मन लगा कर पूरा करते हैं। बहुत ऊंचे पद पर होने के कारण उन्हें ऑफिस की ओर से वाहन सुविधा भी प्रदत्त वाहन थी। लेकिन उन्होंने इस सुविधा को अपनी मर्जी से ठुकरा दिया। जैसे-तैसे ऑटो-टेम्पो में लद कर और ठसा-ठस भरी बस में पिसते हुए, धक्के खाते हुए आते-जाते रहे। इस वज़ह से ऑफिस आने और घर पहुंचने में अक्सर देर हो जाया करती रही। 
लेकिन इसके पीछे की असलियत हम जैसे उन पर पैनी निगाह रखने वाले लोग ही जानते थे।
दरअसल वो उसी बस में घुसना-ठुसना पसंद करते हैं जिसमें अधिकाधिक महिलायें हों। बाद में सांस की समस्या के कारण उन्होंने बस छोड़ शेयरिंग ऑटो में आना-जाना शुरू कर दिया। भले ही कितने ऑटो छोड़ने पड़ें, लेकिन बैठेंगे उसी में जिसमें कम से कम एक अदद महिला मौजूद हो। और महिला दिखने में कैसी ही क्यों न हो, बस महिला ज़रूर होनी चाहिए। उम्र भी कोई मायने नहीं रखती। अगर महिला के सट कर बैठने का मौका मिला तो बस फिर कहने ही क्या! उनका स्टॉप भी वही होता है जो उस भद्र महिला का है।

हम गरीबों का हेल्थ बुलेटिन


- वीर विनोद छाबड़ा
चूंकि मैं बहुत बड़ा व्यापारी नहीं हूं। प्रशासनिक अधिकारी या वरिष्ठ लेखक नहीं हूँ और न नेता हूं। इसलिए मुझे अपना हेल्थ बुलेटिन खुद जारी करना पड़ता है।
आगे खबर यह है कि सेहत में सुधार के लक्षण हूं। चल-फिर रहा हूं। स्कूटी - कार चला लेता हूं। अब यह बात दूसरी है कि कहां के लिए निकला और कहाँ जा पहुंचा। मेरी दिमागी हालत भी ठीक ही है। इसका अंदाजा मैं इससे लगाता हूँ कि फेस बुक पर एक्टिव हूं, उंगलियां कुछ धीमे चलती हैं। लिखते लिखते कभी रुक जाती हैं। क्या लिख रहा हूँ? बार बार पढता हूं। मेरी इस हालत के कारण कोई मित्र मुझे सीरियसली लेने को तैयार नहीं है।
अपनी लिखी सेलेक्टिव पोस्ट्स डाक्यूमेंट्स और ब्लॉग में नहीं डाल रहा हूँ। बेटा आया हुआ है। उसने मुझे कई बार समझाने की कोशिश की। भांजे ने भी कई बार कोशिश की। वो रायबरेली में है। कभी कभी वो आ जाता है। मगर मैं भूल जाता हूँ। नई पीढ़ी के बच्चे हैं। फटाफट समझाया और निकल लिए। मेरी परेशानी की यह भी एक वजह है।
मुझे हैरानी होती है कि पहले कितनी सहजता से ये सब काम करता था मैं। बल्कि कई लोग मुझसे समझने आते थे।

Wednesday, July 26, 2017

इक हसीं ख्वाब।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कल दोपहर खाना खाने के बाद जो नींद आयी तो शाम को ही टूटी। टूटी नहीं बल्कि तोड़ी गयी। मेमसाब 'चाय चाय' करती हुईं आयीं और एक झटके में तोड़ कर गयीं। कोई हसीन ख्वाब देख रहे थे। यूं तो 75% ख्वाब मेमोरी से गायब हो जाते हैं और बचे हुए दो घंटे बाद वाश आउट। लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ मष्तिष्क पटल पर टिके रह जाते हैं। कल वाला ख़्वाब भी कुछ ऐसा ही था। 
हुआ यों कि मंदिर के प्रांगढ़ से हमारा नया नया स्पोर्ट्स शू चोरी हो गया था। हे भगवान! तेरे दर पर ये कैसा अंधरे। भक्त भी चोर हो गए। हमने पुलिस थाने में रपट लिखाई। अभी हम थाने से बाहर निकले ही थे कि पुलिस ने चोर को पकड़ लिया। 
हमें हैरानी हुई कि लाखों-करोड़ों की चोरी तो पुलिस सॉल्व नहीं कर पाती, हमारा 809 रूपए वाले जूता चोर को कैसे पुलिस ने आधे घंटे में धर दबोचा? इतना इंटरेस्ट लेने की वजह भी समझ में नहीं आयी। हैरानी तो और भी बढ़ी जब देखा कि वो जूता चोर, चोर नहीं, चोरनी है। बाकायदा कसी जींस और टी शर्ट से लैस। 
दरोगा जी बड़े जोश में जोर जोर से ज़मीन पर डंडा और पैर फटका रहे थे। अब यह भी बता दें कि कल कप्तान साहब की मेमसाब के जो सैंडिल चुराये थे वो कहां हैं? दरोगा जी ने लड़की से उसका मोबाईल भी छीन लिया लिया था। 
अब हमारी समझ में आया कि जूता चोरी के मामले में दरोगा जी का बढ़-चढ़ कर इंटरेस्ट लेने का कारण। तलाश तो किसी सैंडिल की थी और हाथ में आया हमारा जूता। 
वो लड़की बार बार कह रही थी कि उसने जूता चोरी नहीं किया है, यह जूते उसी के हैं। आजकल लेडीज़ भी जेंट्स जैसे जूते पहनती हैं। चाहो तो हमारे पापा से पूछ लो। हमारा मोबाईल वापस करो। हम उनसे बात करा देते हैं। या आप खुद बात कर लें। उनका मोबाईल नंबर है.....। 
दरोगा जी ने बड़ी कातिल अंदाज़ में लड़की को घूरा और गालियों के बादशाह को भी शर्मिंदा करती हुई एक साथ कई मोटी गालियां की बौछार कर दी। फिर मूंछों पर ताव देते हुए गुर्राए  - हां, हां। क्यों नहीं। अभी तुम्हारे बाप को बुलाया है। आ ही रहे हैं। दोनों बाप-बेटी को अंदर न कराया तो मूंछ मुड़ा दूंगा। 
तभी एक नीली बत्ती वाली कार भन्न से आकर रुकी। सिपाही ने इतल्ला दी - सर, कप्तान साहब हैं। 
दरोगा जी ने फ़ौरन सर पर कैप रखी, कॉलर ठीक किया और एक लंबा सलूट मारा। इतने में वो चोरनी कप्तान साहब को देखते ही 'पापा पापा' कहती हुई लिपट गयी। दरोगा जी के पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गयी। कभी दायें देखें और तो कभी बायें। और कप्तान साहब थे कि बेटी की आंख से आंसू पोंछते हुए दरोगा साहब को बस घूरते ही जा रहे थे। 
अब ऐसे माहौल में हमने बेहतर यही समझा कि अपना जूता भूल जाओ। और हमने यही किया। 
नोट - हमारा सपना तो वहीं टूट गया था जब जूता चोरी के आरोप में एक हसीन लड़की पकड़ी गयी। अब लड़की इतनी हसीन थी तो सोचा कि इस सपने को एक हसीन मोड़ दे कर ख़तम करना बेहतर। 
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२६-०७-२०१६

Tuesday, July 25, 2017

मन से आज़ादी

- वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। हमारे पेट में बहुत दर्द उठा। डॉक्टर से मिले। वो सिगरेट फूंक रहे थे। हमें देख कर सिगरेट बुझा दी। हमें सर से पांव तक देखा। कायदे से परीक्षण किया। दवा लिख दी और साथ में एडवाइस किया - बरखुरदार, सिगरेट पीना बंद कर दो। यह कह कर उन्होंने बुझी सिगरेट दोबारा सुलगा ली।
हमारे पिताजी कैंसर से पीड़ित थे और एसजीपीजीआई में भर्ती थे। हम यूरोलॉजी के एक प्रोफ़ेसर से मिलने उनके चैंबर में गए। वो सिगरेट के लंबे लंबे कश खींच रहे थे। बोले - अपने पिताजी से कहना कि सिगरेट छोड़ दें।
यूं हम जिस विभाग में कार्यरत थे, वहां पांच प्रोजेक्ट हॉस्पिटल थे। उनमें तैनात डॉक्टर्स का इस्टैब्लिशमेंट कुछ समय हमने देखा। इस नाते डॉक्टरों के संपर्क में अक्सर रहना पड़ा। कई डॉक्टर धुआंधार सिगरेट पीते दिखे जो दूसरों को सिगरेट न पीने की सलाह दिया करते थे। हमने एक डॉक्टर साहब से कहा - दूसरों को एडवाइस करते हैं, लेकिन खुद अमल नहीं करते। क्या प्रभाव पड़ता होगा मरीज़ों पर?

चाय में दोस्ती की मिठास

वीर विनोद छाबड़ा
यूं तो हमें दिलो जान से चाहने वालों की कमी नहीं है। लेकिन एक हैं रवि प्रकाश मिश्रा मेरे पक्के भाजपाई दोस्त। लेकिन दोस्ती पहले और पॉलिटिक्स बाद में। मुझसे महीने भर ही बड़े होंगे। कहीं खाया-पीया और पेमेंट का नंबर आया तो इन्होंने मुझे कभी जेब में हाथ नहीं डालने दिया।
सत्तर के दशक का शुरुआती दौर था। हमने इनकी हवेली (मिश्रा भवन) में बहुत चाय पी है। पटियाला साइज़ के शीशे वाले गिलास में।
चाय वाकई बहुत बढ़िया होती थी। दो वजहों से।
एक तो प्यार की मिठास। और दूजे चीनी की मिठास। गिलास के पैंदे में इतनी ज्यादा चीनी जमा रहती थी कि चम्मच खड़ा हो जाए। यह समझिए की चाश्नी घुली चाय पी रहें हैं।
बीच बीच में मिश्रा जी पूछते भी रहते थे - चाय ठीक लग रही है न?
हम लोग सिर्फ़ हां ही बोलते थे। बहुत बढ़िया कहने की गलती नहीं करते थे। जब कभी गलती हुई तो समझिए कि फिर एक पटियाला गिलास में ऊपर तक भरी चायचाश्नी वाली चाय हाज़िर।

Monday, July 24, 2017

प्रमोशन और प्रोटोकॉल

- वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। मैं नया-नया अफ़सर के पद पर प्रमोट हुआ था। हमारे ख़ानदान हम पहले थे.जो क्लास वन अफसर के लेवल पर पहुंचे थे। इससे पहले क्लास टू आधा दर्जन धक्के खाते रहे हैं।
वो कहते हैं कि ख़ुदा जब हुस्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है। कुछ ऐसा ही हाल अपना भी हुआ। क्लास वन अफ़सर बहुत बड़ी तोप होती है।
पद की गरिमा को मेन्टेन करने के लिए कई तरह के प्रोटोकॉल अपनाने पड़े। जैसे नमस्ते का जवाब बोल कर या हंस कर नहीं देना चाहिए। बल्कि हौले से सर हिला कर अनदेखी कर आगे बढ़ लेना चाहिए। कोशिश करिये कि बहुत जल्दी में हैं। ज़रूरी ओप्रशन करने जा रहे हैं। और अगर नमस्ते करने वाली भद्र महिला हो तो बा-अदब हलकी मुस्कान ही छोड़नी है।
अगर अंदर से आप बहुत मजबूत हैं तो खड़े होकर बात करना चाहिए। चाय का ऑफर दीजिये। जेब से चॉकलेट या टॉफ़ी ज़रूर रखें। मुट्ठी खोल दें। जितनी आपकी श्रद्धा हो उस हिसाब से न्यौछावर कर दें। भले ही वो मन ही मन आपको 'गीले साहेब' टाईप दर्जन भर की पदवियों से विभूषित कर दे।   
सड़क किनारे ढाबे पर खड़े होकर चाय नहीं पीनी है। खुद इमेज ख़राब होती है। कोई कह भी सकता है। बाबू की आदत से दूर हो। वरना यह कहने वालों की कमी नहीं है - साले, अब तो बाबू की योनि से बाहर आ जाओ। आदमी बनो।
बॉस के कमरे में जाएं तो शर्ट के बटन ऊपर तक बंद कर ले और आस्तीन पूरी नीचे हाथ तक ले जाओ। वगैरह, वगैरह। पान या मसाला खाते हैं तो अच्छी तरह  कुल्ला कर लो। वो पत्नी ने बात दीगर है कि यह सब ज्यादा देर तक नहीं चला। ज्यादातर प्रोटोकॉल रिलैक्स कर दिए। दरअसल दोस्तों और हमदर्दों की संख्या कम होने लगी थी।
घर में तो पहले ही दिन से प्रोटोकॉल की ऐसी कम तैसी दी। काहे के अफसर। पगार तो बढ़ी कहीं नहीं। बतावें हैं कि एक ठो इंक्रीमेंट लग गया है। पत्नी  के लिए में इंक्रीमेंट मिली रक़म की कोई अहमियत नहीं। हमारे खानदान में पत्नी से बड़ा अफसर कोई नहीं हुआ है और अगले जन्मों तक यही व्यवस्था रहनी है। तो मैं भला इस परंपरा को कैसे बनाये रखने की ज़ुर्रत करता।
सारी दिनचर्याऐं  पूर्वरत रहीं। उसी क्रम में एक दिन मैं सुबह-सुबह चूहेदानी में फंसा चूहा दूर एक नाले में छोड़ने जा रहा था।

Saturday, July 22, 2017

अभी हम सब बाक़ायदा ज़िंदा हैं


-वीर विनोद छाबड़ा
हर साल का ०४ अक्टूबर मेरे लिए महत्व का दिन होता है।
नहीं, नहीं। न मेरा जन्मदिन है और न पत्नी का। न बच्चों का। न विवाह का दिन है। न माता-पिता या भाई-बहन का जन्मदिन। न ही साली-साडू या साल साले की पत्नी  का जन्मदिन। प्रेमिका कोई थी नहीं। एक जो थी भी तो वो एकतरफा थी। न वो कुछ बोली और न कुछ हम बोले। एक दिन दिल कड़ा किया कि आज मन की बात कर लूंगा। लेकिन वो उस दिन यूनिवर्सिटी नहीं आई। हफ्ते भर बाद दिखी। दिल को धक्का लगा। मांग भरो सजना!
दरअसल १९७१ को आज ही का दिन था। लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा पहला कदम। उस साल ज़बरदस्त बाढ़ के कारण सेशन देर से शुरू हुआ। यूनिवर्सिटी में भी पानी घुस गया था। पॉलिटिक्स में पोस्टग्रेजुएट डिग्री हासिल करने के लिए दाखिला लिया था।
जहां तक मुझे याद है आज ही के दिन मेरी रवि मिश्रा, प्रमोद जोशी, उदय वीर श्रीवास्तव और विजय वीर सहाय से भेंट हुई थी। पढाई पूरी करने के बाद प्रमोद जोशी और विजय वीर पत्रकारिता में चले गये। आज भी वहीं हैं। मैं, रवि और उदय अब पॉवर सेक्टर से रिटायर्ड हैं। विजय भारत मिश्र कुछ समय बाद मिले। वो अमीनाबाद इंटर कॉलेज में वाईस प्रिसिपल से रिटायर हुए।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव मुझसे एक क्लास आगे थे। हरीश रावत,पूर्व मुख्य मंत्री उत्तरांचल भी सीनियर थे।
अच्छी बात यह है कि हम सब ज़िंदा हैं और फेस बुक पर हैं। 
यूनिवर्सिटी में पढ़ने का अलग ही आनंद है। को-एजुकेशन भी एक बड़ा फैक्टर होता है। बहुत से लड़के-लड़कियां अलग-अलग शहरों से आते हैं पढ़ने। कोई अमीर और कोई ग़रीब। सबके अपने अपने सपने।
कोई नाना प्रकार के वस्त्रों में सुसज्जित। और कुछ मस्ती के लिए आते हैं। उछल-फांद यही जीवन है इनके लिये। बाप-दादाओं की कमाई इतनी ज्यादा है कि सात पुश्तें उस पर पल जायें।
और कुछ वास्तव में पढ़ने के लिए। कुछ बनने। दीन-दुनिया से बिलकुल बेख़बर। परीक्षा नज़दीक आते ही ज्यादातर को कैरियर की फ़िक्र लग जाती है।  माहौल बहुत प्रतिस्पर्धा वाला बन जाता है। कोई किसी को एक शब्द भी बताने से कतराता है।  
मैंने यहां पोलिटिकल साइंस में एम.ए. किया और फिर एम.ए. स्पेशल।  इरादा था पत्रकार बनने का। लेकिन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी लग गयी। फिर भी पढ़ता रहा। सुबह की क्लासेज अटेंड करते हुए सोशियोलॉजी में एम.ए. कर डाला। एलएलबी में एडमिशन हो गया था। फीस देने के लिए कैशियर ऑफिस गया। पैसों के साथ विंडो में हाथ डाला। लेकिन अगले क्षण खींच लिया। बस और नहीं, बस और नहीं। भाग खड़ा हुआ। जम के नौकरी भी तो करनी थी।
मित्रों आपको याद है यूनिवर्सिटी या कॉलेज या स्कूल का पहला दिन? उस दिन की याद को शेयर करें।
नोट - उन दिनों की एक तस्वीर। इसमें हम वो पांचों दोस्त हैं जो ०४ अक्टूबर १९७१ को मिले थे। सबसे ऊपर बायें मैं, मेरे बाद विजय वीर सहाय दूसरी पंक्ति में बाएं से दूसरे उदय वीर, दायें से दूसरे प्रमोद जोशी और पहली पंक्ति में सबस दायें बैठे हैं रवि मिश्रा।
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२३ जुलाई २०१७ 
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D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
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mob 7505663626


























अंग्रेज़ी में हाथ तंग

-वीर विनोद छाबड़ा 
अंग्रेज़ी में हाथ तंग होना कोई शर्म की बात नहीं है। हम खुद इसके मरीज़ रहे हैं। अंग्रेज़ी अख़बारों और फ़िल्मी रिसालों को पढ़ कर हमने अंग्रेज़ी सीखी। बाकी कसर बड़े बुज़ुर्गों ने ठीक कर दी। नौकरी के शुरुआती १५ साल तो अंग्रेज़ी में ही काम करना पड़ा। यों सरकारी कार्यालयों में माशाअल्लाह अंग्रेज़ी से भी काम चल जाता है।
कहने का मक़सद यह कि हम अंग्रेज़ी के फन्ने खां कतई नहीं हैं। इसलिये पौने दो साल पहले जब हमारा फेस बुक पर आने का आईडिया बना तो दिल बैठ गया। यहां तो सब अंग्रेज़ी वाले लाटसाहब और राय बहादुर होंगे। हमारी बिसात तो लाइक और शेयर से आगे शायद ही बढ़ पाये। मगर इस आभासी दुनिया में कदम रखते ही जब हमने हिंदी वालों का जलवा और वर्चस्व देखा तो दिल बल्लियां उछलने को हो गया।
पहले अंग्रेज़ी से हिंदी के लिए भार्गव साहब की डिक्शनरी होती थी। अब तो गूगल ही सेकंडों में बता देता है सही क्या और गलत क्या। ठीक-ठाक स्पेलिंग भी गूगल बता देता है।
अब मैं आपको उस ज़माने की बात बताता हूं जब अंग्रेज़ी में हाथ तंग होने के बावजूद लोग चूं तक नहीं करते थे। प्रशंसा समझ स्वीकार कर लेते थे और जब असल मतलब समझ आता था तो ज़ाहिर है हंगामा तो होना ही था।
एक भद्र महिला जब ज्यादा सर खाती थी तो हमें मजबूरन क्षोभ के साथ कई बार कहना पड़ा  - प्लीज, गेट लॉस।
लेकिन उन पर कोई असर नहीं होता था। वो मुस्कुरा देतीं। हमीं उठ कर चल देते।
एक दिन वो उन्होंने हम पर चारों और से हमला बोल दिया। बहुत बिगड़ीं। दरअसल उन्हें किसी ने 'गेट लॉस' अर्थ बता दिया था - निकल जाओ यहां से। कुछ दिन बाद वो रैपीडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताब पढ़ कर इतनी अच्छी अंग्रेज़ी तो सीख ही गईं कि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके।

आग लगी हमरी झोंपड़िया में हम गावें मल्हार!


-वीर विनोद छाबड़ा
वो भी क्या सुखद दिन थे! साठ के दशक की शुरुआत। लखनऊ के आलमबाग का चौराहा। वहीं होता था चार टांगों पर खड़ा एक विशाल ट्रांसफार्मर। 
याद पड़ता है पूरे चंदर नगर और आस-पास के कई मोहल्लों को यहीं से थी बिजली की सप्लाई। मार्टिन एंड बर्न के ज़िम्मे था लखनऊ में बिजली सप्लाई। ऐशबाग़ और तालकटोरा दो तापीय पावर हाउस थे। बिल जमा करने रेसीडेंसी तक दौड़ लगती। टाइम पर बिल जमा नहीं हुआ तो अगले दिन बिजली कट।
कभी-कभार ही जाती थी बिजली। ट्रांसफर भी कभी-कभी दगते, ज़बरदस्त ब्लास्ट के साथ। चौबीस से छत्तीस घंटे लगते थे इसे बदलने में। गर्मी के दिनों में तो जान निकल जाती। लेकिन जनता भी थी कमाल के सबर वाली। चूं तक न करती। हाथ से झलने वाले तरह-तरह के पंखे। और फिर जनता इतनी सुविधा-परस्त भी नहीं थी। दिन किसी तरह कट जाता और रात के लिए तो वैसे भी खुली छत। ठंडी-ठंडी हवा। दरी बिछाई और सो गए। 
बहरहाल ट्रांसफार्मर का दगना बहुत बड़ा इवेंट होता। तमाम बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े तक जमा हो जाते। टकटकी लगाये फूंके ट्रांसफार्मर को रस्सियों के सहारे उतारते और फिर दूसरे-तीसरे दिन नया या उसी को मरम्मत होकर चढ़ाते देखना। यह जटिल और कौतुहलपूर्ण प्रक्रिया होती। और जैसे ही बत्ती आती एक साथ कई मोहल्लों से ख़ुशी का शोर उठता। आस-पास खड़े लोग खूब जोर-जोर से तालियां बजाते। बिजली कर्मियों को लोग शुक्रिया कहते। ऐसे ही आत्मिक सुख का अहसास टूटे तार को जोड़ते हुए देखने पर भी होता।
बचपन से लेकर जवानी तक फूंके ट्रांसफॉर्मरों की तलाश और उन्हें उतरते-चढ़ते देखने का शौक जारी रहा।
बड़े हुए। संयोग से नौकरी बिजली विभाग में मिली। बड़े-बड़े ट्रांसफार्मर और विशालकाय पावर हाउस देखे। लेकिन जले ट्रांसफार्मर की जगह नया लगते देखने की चाह नहीं चूकी।
अस्सी के दशक में इंदिरा नगर आये तब पता चली बिजली की अहमियत और दिक्कत । कभी तार का टूटना तो कभी टीपीओ उड़ जाना। कभी बस-बार तो लीड जल जाती। ट्रांसफर तो अक्सर उड़ा करते। डिमांड ज्यादा सप्लाई कम। ट्रांसफार्मर और तारें लोड न ले पातीं। ऊपर से आंधी तूफ़ान जैसी दैवीय आपदाएं।