Tuesday, December 13, 2016

जीडी बाबू

-वीर विनोद छाबड़ा
हमने प्राईमरी से लेकर स्नातकोत्तर तक कई शिक्षण संस्थानों में शिक्षा पाई। अनेक गुरूजन के नाम, सूरतें व आदतें भी याद हैं। कुछ को तो हम अक्सर याद करते हैं क्योंकि अगर वो न होते तो जाने हम किस गट्टर में होते।
हमें लखनऊ के विद्यांत कालेज के गिरजा दयाल श्रीवास्तव बेहद याद आते हैं। उन्हें जीडी बाबू के नाम से जाना जाता था। नौवें और दसवें में उन्होंने हमें हिसाब और अंग्रेज़ी पढाई। वो हमारे क्लास टीचर भी रहे। उर्दू ज़बान बहुत अच्छी जानते ही नहीं थे बल्कि जम कर प्रयोग भी करते। आम बोल चाल की ज़बान में प्रयोग होने वाले उर्दू के शब्दों का उच्चारण ग़लत होने पर टोक देते- नुक्ता लगा, नुक्ता लगा। शीन काफ़ और तल्लफ़ुज़ दुरुस्त करने पर बहुत ज़ोर देते थे। ग़लत हिंदी बोलने पर भी टोकते। '' को '' कहने पर भी वो ऐतराज़ करते।
छोटा कद, दुबला जिस्म और सांवला रंग। मुंह पर हल्के-हल्के चेचक के दाग भी। उन्हें देखकर बिजली के खंबों और ट्रांसफॉर्मरों पर उस तख्ती की याद आती थी जिस पर एक खोपड़ीनुमा शक्ल बनी होती और साथ में ४४० वोल्ट लिखा होता था। उन्हें देखते ही नालायक छात्रों को बिजली के करंट सा अहसास होता।  पिटने वाले छात्र उन्हें पीठ पीछे चार सौ चालीस वोल्ट बोलते। कुछ भी हो थे बहुत इंटेलीजेंट।
काला और भूरा सूट पहनते थे। गर्मियों में सफेद, बादमी, आसमानी कमीज़ पहनते मगर पैंट हमेशा काली या भूरी रहती। और हाथ में छड़ी। यह छड़ी उनकी ख़ास पहचान थी। जिस दिन भूरे सूट या भूरी पेंट धारण किये होते उस दिन छड़ी शांत रहती। लेकिन जिस दिन सूट या पेंट का रंग काला होता वो दिन 'सुताई डेकहलाता था।
उनकी छड़ी ने कईयों को दुरुस्त किया था। छड़ी के शिकार कई तो डॉक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर और जाने क्या क्या बने। यों कई बार सुताई हुई। लेकिन तीन बार की सुताई तो ख़ासतौर पर आज भी याद करते हैं। 
एक बार क्लास में नवाब पटौदी के दिल्ली में टेस्ट में डबल सेंचुरी ठोकने पर जश्न मनाने पर। यह फरवरी १९६४ की बात है।
दूसरी बार स्कूल बंक करके कैपीटल में आरजू देखते हुए पकड़े गये। किसी दिलजले की शिकायत पर जीडी बाबू ने छापा मारा था। हमने उनके हमले की आहट पाते ही चश्मा उतार लिया था। लेकिन वो पहचान गये। हमने भागने का प्रयास किया। लेकिन वो ज्यादा फुर्तीले निकले। झट से दबोच लिया। यह घटना १९६५ की है।
तीसरी दफ़ा कालेज के पिछवाड़े सिगरेट फूंकते हुए पकड़ा। खूब पीटा, इत्ता कि छड़ी टूट गई। फिर हमारा चश्मा उतार कर तमाचे मारे। मार-मार कर गाल सुजा दिये। उस दिन जब हम घर पहुंचे थे तो आंखों में आंसू थे। मां को सच बताया था। मां ने कहा था - अच्छा हुआ। ग़लत का नतीजा यही होता है। फिर मां ने दूध में हल्दी दाल कर पीने को दिया था।
लंबे कद के लड़कों को जीडी बाबू उचक-उचक कर तमाचे जड़ते थे।
उन्होंने पीटने के बाद खूब पुचकारा भी। कहते थे- तुम लोगों को सुधारने के लिये यह सब करता हूं। बाप की खून-पसीने की कमाई ज़ाया मत करो।
हम उनके ऋणी हैं कि उन्होंने सपनों की दुनिया से बाहर निकाल ज़मीन पर खड़ा कर दिया।

गिरजा दयाल जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। जब भी उनकी याद आती है तो गाल सहलाने लगता हूं। 
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