Monday, November 7, 2016

खड़ूस आदमी की कार

-वीर विनोद छाबड़ा
मित्र के सिद्धांत है, चमड़ी जाए, पर दमड़ी नहीं। दूसरों का खाया, उड़ाया और पीया। जब अपना नंबर आया तो ठनठन गोपाल बन गए - यार घर में बड़े खर्चे हैं, नाना प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त बूढ़े मां-बाप। तिस पर दो बेटियां। एजुकेशन लोन ले रखा है। बैंक से हाउसिंग लोन ले कर मकान बनवाया है। पैसा बचता ही नही है। ऑफिस आने-जाने के लिए घंटों उनकी निगाहें लिफ्ट देने वाले को तलाशती हैं।
हमने कई बार राय दी। एक अदद स्कूटी या साइकिल लेलो। मगर वही रोना। दमड़ी नहीं है। उधार दे-दो। किश्तों में अदा कर दूंगा। बड़े सयाने हैं। बैंक से लोन नहीं लेगें। मूल के साथ सूद भी चुकाना पड़ेगा। हमसे लेंगे तो ब्याज तो देंगे नहीं मूल भी गायब कर देंगे। यों एक नंबर के उधारचंदू हैं। कई भुक्तभोगी हैं। कभी मां बीमार तो कभी बेटी। और भी कई बहाने हैं, इमोशनल ब्लैकमेलिंग के। उधार लिए पैसों से कई बार सनीमा देखते और कभी डिनर लेते देखे गए। उधार कभी लौटाया नहीं। अगर अपवाद स्वरुप लौटाया भी टुकड़ों में, चवन्नी-अट्ठनी करके।
उनका अफ़सर के पद पर प्रमोशन हुआ। अफ़सरी हनक के लिए एक अदद सेकंड हैंड कार खरीदी। अब नई दिक्कत पैदा हुई। ड्राइविंग नहीं आती। स्कूटर तक तो कभी चलाया नहीं। कार क्या चलाएंगे? फिर बढ़ती उम्र। उस पर मुश्किल यह कि मुफ़्त में कौन सिखाये। दोस्तों ने भी हाथ खड़े कर दिए। किसी को इतनी फुरसत ही कहां?
एक दिन हमें फ़ोन किया। फलां शादी में हमें भी जाना है। नियत वक़्त पर हम उनके घर पहुंचे। देखते ही गुस्सा हो गए। कार क्यों नहीं लाये? हमने तर्क दिया। भई हम तो अकेले हैं और आप सपरिवार। लिहाज़ा कार तो आपकी जानी बनती है। हम ड्राईव कर लेंगे।
भाई भनभना कर रह गए। कई दिन तक हमसे कुट्टी रहे।
उस दिन ऑफिस में उन्होंने पकड़ लिया। हम भी चलेंगे। आज बस और ऑटो की स्ट्राइक है। हमें काम फिनिश करते सात बज गया। इस बीच वो हमारी सिगरेट फ्री में फूंकते रहे।
नवंबर की शुरूआत। शाम को हलकी सी ठंड हो जाती है। हम स्कूटी निकाल लाये। वो भड़क गए। ये क्या तमीज है? पहले क्यों नहीं बताया कि कार नहीं है। किसी और के साथ निकल लेते। ख़ैर, झक मार कर पीछे बैठ गए। रास्ते भर ठंड से कुड़कुड़ाते और हमें कोसते रहे।
फिर कुट्टी हो गए। हमने कहा, चलो जान छूटी। 
एक दिन फिर मिले। एक पार्टी में। वापसी में सपत्नीक हमारी कार में लद लिए। बिना पूछे स्पष्टीकरण देने लगे। आजकल ड्राईवर नहीं मिलते। हमने सुझाया। ड्राईविंग सीख ही लो अब। उनकी मेमसाब ने बताया कि सीखे तो थे। स्टीयरिंग घुमाना भूल जाते हैं। महीना भर हुआ। एक ढाबे में ठोक दिए थे। ये तो कहिये बच गया वो आदमी। टांग ही टूटी थी। दस हज़ार देने पड़े उसको ईलाज के लिए। कार मरम्मत में बीस हज़ार अलग खा गयी।

हमें तरस आ गया। हम एक ड्राईवर को जानते हैं। किसी सेठ के यहां है। सेठ जी विदेश गए हैं। आजकल खाली है। पैसा वाज़िब लेगा। मित्र तैयार हो गए। नसीब वाले होते हैं वो जिन्हें अच्छा ड्राईवर और अच्छी कामवाली बाई मिले।  

हमने उस ड्राईवर से बात की तो वो भड़क गया। उनकी गाड़ी दिहाड़ी पर चला चुके हैं। एक-एक बूंद पेट्रोल का हिसाब मांगते हैं। पक्के खडूस बाबू हैं। महीने में एक-दो बार कार निकालेंगे। वो भी तब जब उनकी मेमसाब को शॉपिंग करनी होती है। फिर उनकी छोटी सी सेकंड हैंड खटारा कार है। एसी भी नहीं है। सेठ लोगों की बड़ी और महंगी कारें रोज़ाना चलाने का मज़ा ही कुछ दूसरा है। और फिर सेठजी की मेमसाहब, बच्चों और उनके डागी को दोपहर में शॉपिंग कराने का तो लुत्फ़ ही खास है। होली दीवाली पर गिफ्ट अलग से। इससे अपना भी तो स्टेटस मेनटेन होता है। साहब, दो महीना बेकार रह लेंगे लेकिन किसी खड़ूस बाबू की गाड़ी चला कर साख नहीं ख़राब करेंगे।
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Published in Prabhat Khabar dated 07 Nov 2016
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