Wednesday, November 30, 2016

दारासिंह को उर्दू सिखाने आया टीचर पंजाबी सीख गया

- वीर विनोद छाबड़ा
दारासिंह का नाम जुबां पर आते ही एक ६ फ़ीट २ इंच ऊंचा मांसल शख्स सामने आता है, जिसका वज़न १२७ किलो है और सीना ५३ इंच चौड़ा। देश-विदेश में न जाने कितनी कुश्तियां उसने लड़ीं और दुनिया के नामी पहलवानों को हराया। हालांकि लोग कहते थे कि कुश्तियां पहले से 'फिक्स' होती थीं, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। कुछ भी हो पचास और साठ के दशक में वो शौर्य और शक्ति का प्रतीक बने रहे। शोहदों की डंडे से खबर लेते हुए सिपाही ललकारते था - अबे, खुद को दारासिंह समझाता है क्या? मास्टर जी भी डोले दिखाने वाले लौंडो को कालर पकड़ कर क्लास से बाहर कर देते थे - दारासिंह बनना है तो अखाड़े में जाओ। आज की साठ साल से ऊपर वाली पीढ़ी तो दारा सिंह की कुश्तियों और उनकी फिल्मों को देखते हुए ही बड़ी हुई है।
फिल्म वाले तो दारासिंह की शोहरत को पचास के दशक में ही भुनाना चाहते थे। १९५२ में दिलीप कुमार-मधुबाला की 'संगदिल' और १९५५ में रिलीज़ किशोर-वैजयंतीमाला की 'पहली झलक' में उनकी कुछ झलकियां दिखीं भी। कुछ फिल्मों में स्टंट भी किये। लेकिन दारा सिंह को फ़िल्मी दुनिया रास नहीं आ रही थी। गुरू लोग खूब डांटते थे - अखाड़े को तमाशा बनाना है क्या?

एक दिन दारासिंह को खबर हुई कि रुस्तम-ए-जमां गामा पहलवान की तबियत बहुत नासाज़ है। वो उन्हें देखने लाहोर गए। उनकी बदहाली ने दारासिंह को बहुत भीतर तक हिला दिया। समझ में आ गया कि ज़िंदगी चलाने के पहलवानी काफ़ी नहीं है। फिल्मों में काम करने को राज़ी हो गए। पहली फिल्म थी - बाबूभाई मिस्त्री की - किंगकांग। मज़े की बात तो यह रही कि १९६२ में रिलीज़ इस फिल्म में किंगकांग विलेन था। यह सफल फिल्म थी। इसके बाद दारासिंह ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक के बाद एक १२२ फिल्मों में काम किया। फौलाद, हर्क्युलीज़, बॉक्सर, सैमसन, नसीहत, लुटेरा, आया तूफ़ान, संग्राम, जरनैल सिंह, डाकू मंगल सिंह, रुस्तमे हिंद, सिकंदर-ए-आज़म आदि बहुत मशहूर हुईं। आगे चल कर नानक दुखिया सब संसार, मेरा धर्म मेरा देश, भगत धन्ना जट्ट, सवा लाख से एक लड़ाऊं, भक्ति में शक्ति, धयानू भगत और रुस्तम निर्देशित भी कीं। मुमताज़ उनकी सबसे प्रिय नायिका थी। दोनों ने १६ फ़िल्में कीं। दर्शकों में पागलपन की हद तक दीवानगी थी। 
DaraSingh with Mumtaz
एक दिन दारासिंह का मन फिल्मों में पहलवानी करते-करते ऊब गया। भक्ति की तरफ रुख किया। 'वीर भीमसेन' में वो भीम बने। 'बजरंगबली' में हनुमान की भूमिका में वो इतने फबे कि रामानंद सागर को टीवी सीरियल 'रामायण' में वही हनुमान दिखे। बीआर चोपड़ा के टीवी सीरियल 'महाभारत' में वो बूढ़े हनुमान थे। 'लवकुश' में एक बार फिर हनुमान वही थे। एक समीक्षक का कहना था कि असली हनुमान दारासिंह जैसे ही दिखते होंगे। तुलसी विवाह और हर हर महादेव में भगवान शिव की भूमिका में उन्हें देख कर एक अन्य समीक्षक ने उनके उच्चारण पर टिप्पणी की थी - भगवान शिव ज़रूर पंजाबी रहे होंगे।
पंजाबियत उनके खून में ही नहीं उच्चारण में भी थी। दारासिंह को इसका अहसास था। वो अंत तक भारत को 'पारत' और मोहब्बत को 'मोबत' कहते रहे। वो खुद ही चटखारे लेकर सबको बताया करते थे कि उन्हें उर्दू सिखाते-सिखाते उनका टीचर मुशर्रफ़ हुसैन पंजाबी सीख गया।

बॉक्स ऑफिस पर दारासिंह का नाम सफलता की गारंटी था। यही वजह रही कि ऊंचाई के दौर में वो बी-ग्रेड फिल्मों के सुपर-स्टार थे और उनकी फीस सबसे ऊंची साढ़े चार लाख रूपए थी। दारासिंह की फिल्मों में संगीतकारों ने भी बहुत मेहनत की। हर फिल्म में एक आध गाना ऊंची पायदान पर रहा - रात से कहो रुको ज़रा... जहां डाल डाल पे सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा...नींद निगाहों में खो जाती है...हम प्यार किये जाएंगे...
अपनी रफ-टफ इमेज के विपरीत दारासिंह विनम्रता की मिसाल थे। कामयाबी कभी सर पर चढ़ कर नहीं बोली। अपने रिश्तेदारों को ही नहीं दोस्तों को भी फिल्मों में काम दिलाया। किंगकांग को उन्होंने कई बार हराया। वही उनका व्यवसाय देखने लगे। सौदागर सिंह और टाईगर जैसे पहलवानों को भी फ़िल्में दिलाईं। एक बार एक पहलवान ने उन्हें चैलेंज किया कि असली दारासिंह वो है। तब दारासिंह ने उसे अखाड़े में हरा कर बताया कि असली घी खाने वाला कौन है। बाद में दारासिंह ने उसे भी काम दिलाया।

दारासिंह की सज्जनता का प्रताप था कि उन्हें राजकपूर की 'मेरा नाम जोकर' और दिलीप कुमार के साथ 'कर्मा' में अच्छी भूमिकाएं मिलीं। मनमोहन देसाई जब अमिताभ को लेकर 'मर्द' बना रहे थे तो मर्द के पिता की भूमिका में दारासिंह से बेहतर कोई कलाकार नहीं जंचा। दारासिंह ने अपनी ज़िंदगी का बेहतरीन हिस्सा फ़िल्मी दुनिया में गुज़ारा। लेकिन राज्यसभा में वो स्पोर्ट्स कोटे से २००३ में सांसद नामांकित हुए। उन्होंने दो विवाह किये। उनकी छह संताने हुईं। बड़ा बेटा प्रद्युमन सिंह एक्टर है और विधु दारासिंह भी। १९ नवंबर १९२८ में जन्मे दारासिंह ताउम्र शक्ति और फिटनेस की मिसाल बने रहे। अंत समय में उनको ब्रेन हैमरेज हुआ। अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन उन्होंने घर में अंतिम सांस लेना पसंद किया। १२ जुलाई को ८४ साल की उम्र में वो ब्रह्मलीन हो गए। 
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Published in Navodaya Times dated 30 Nov 2016
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