Monday, November 28, 2016

बैंड, बाजा और बारात।

-वीर विनोद छाबड़ा 
बंदा जब कभी विवाह मंडप सजा देखता है तो साठ और सत्तर के दशक की गलियों में पहुंच जाता है.... 
मोहल्ले में लड़की की शादी है। पूरा मोहल्ला उमड़ पड़ा है। तजुर्बेकार ताऊ चार दिन पहले ही मैनेजरी की भूमिका में दिखता है। सब ताऊ से ही पूछते हैं - जी कुछ काम बताओ। गली के लड़कों ने परसों से ही स्कूल से छुट्टी ले रखी है। पतंगी कागज़ की रंग-बिरंगी झंडियां बन चुकी हैं और अब चारों ओर बंध रही हैं। स्वागत बारात के लिए पाठशाला का मैदान तय है। तंबू तन रहे हैं। बिजली की झालरें भी साथ साथ लग रही है। दरियां भी बिछ रही हैं।
लावां-फेरे के लिए मंडप घर के विशाल और खुले आंगन में  सज रहा है। भोजन के लिए साठ थालियां का सेट कल्याण समिति से आया है। हर थाल में तीन कटोरियां, गिलास और चम्मच। सब स्टील का माल है। जो बंदा गिन के लाया है वही गिन के वापस भी करेगा। इसका कोई चार्ज नहीं होता था। बस श्रद्धा स्वरूप ५१ या अधिक से अधिक १०१ का दान। 
बड़े-बड़े पतीले और कढ़ाईयां का तो हलवाई ने जुगाड़ किया है। वो पड़ोसी मोहल्ले का है। भरोसेमंद है। अपना समझ कर काम करता है। भाव तय नहीं होता। जो ख़ुशी हो दे देना। न भी देना तो भी चलेगा। अरे, बेटी की शादी है। आपकी हो या मेरी। लड़के की होती तो दिल खोल कर ईनाम मांगता।
छत पर लाऊडस्पीकर तो एक दिन पहले बज रहा है - सैयां झूठों का बड़ा सरताज निकलामाना जनाब ने पुकारा नहींझूम झूम कर नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत.
इधर ताऊ हर तीन-चार घंटे पर कामों की समीक्षा करते हैं। जहां कमी देखी या सुस्ती पाई तो जम कर लथेड़ दिया।
सब्जीमंडी से लोग लौट आये हैं। औरतें अपने घरों से निकल पड़ीं और चाकू-छुर्री लेकर आलू-प्याज और गोभी काटने पर जुट गयीं। कुछ को मटर और कुछ को गाजरें दे दी गयीं। 
बारात आने में दो घंटे बाकी हैं। बर्तन धोकर और कायदे से पोंछ मेज़ों पर सजा दिए हैं। लीजिये आ गयी बारात। गैस-बत्ती की रोशनी में नाचते-गाते बाराती। मोहल्ला छतों पर चढ़ गया है। बड़े कौतुहल से देख रहे हैं।
खाने पर बाराती बैठ गए हैं। हम लोग छोटी-छोटी बाल्टियां, चौघड़े-दोघड़े में सब्जी रसेदार-सूखी, रायतादान, रोटी तंदूर-तवा, पूड़ी, गाजर हलवा या गुलाब जामुन लिए कुर्सी-कुर्सी जाते हैं। इसरार करते हैं - एक रोटी और लीजिये प्लीज, ये गोभी-आलू तो आपने लिया नहीं, ये मीठा कहां चखा.
इस बीच ताऊ उत्पादन, प्रेषण और वितरण पर बराबर नज़र रखते हैं। कहीं कोई रूकावट न आये, कमी न होने पाये। साठ बाराती भोजन कर चुके हैं। मेज़ों पर पड़ी चददर पलट दी गयी। इस बीच हम युद्धस्तर पर बर्तन धोते हैं। कुछ पोंछते भी जाते हैं।

हम लोगों ने भोजन नहीं किया। लड़की वालों के घर भला कुछ खाया जाता है? यों भी काम में कुछ इस कदर ढूबे रहे कि भूख ही मर गयी है।
लावां-फेरे शुरू। ताऊ खोपड़ी पर सवार हैं। पाठशाला के कमरों में चारपाईयां, गद्दे और तकिये लगाओ। ठंड के दिन हैं। चाय पिलाते रहो। पतीला नहीं उतरना है।
तारों की छाँव तले डोली उठी - छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा.रिश्तेदारों, दुल्हन की सहेलियों और आस-पड़ोस की महिलाओं को जार-जार रोते देख हमारे आंसू भी छलक आये। ताऊ की हिदायत याद है। ध्यान रहे कि कोई दहाड़ें न मारे। दूल्हा पक्ष में गलत मेसेज जाएगा न।
दुल्हन विदा हो गई। कुछ दूर तक गुब्बार देखते रहे। लेकिन अभी हमें घर नहीं लौटना, फैला हुआ समेटना है। जो जहां से आया, वापस करो। और फिर अगली शादी का इंतज़ार...
हम मेमोरी लेन से लौटते हैं। मिल कर काम करना, खिलाना-पिलाना। एक दूसरे के प्रति छलकता प्यार। क्या सुख था! पता ही नहीं चला कि कब ये सुख वेटरों और इवेंट मैनेजरों के हाथों में खिसक गया।
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Published in Prabhat Khabar dated 28 Nov 2016
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