Sunday, November 27, 2016

शेव से अब भी भागता हूं।

- वीर विनोद छाबड़ा
सच बताऊं मूलतः मैं कतई आलसी नहीं हूं। लेकिन बात जब शेव करने की होती है तो सोचता हूं बनाने वाले ने पुरुषों को दाढ़ी क्यों दी?
एक ज़माना था जब चेहरे पर दाड़ी नहीं उगी थी। रोज़ ऊपर वाले से दुआ करते थे कि जल्दी से दाढ़ी दे ताकि एडल्ट फ़िल्में देखने की चाहत पूरी हो। उन दिनों सिनेमा हाल के मैनेजर बहुत सख़्त किस्म के हुआ करते थे। गेट पर खड़े हो जाते थे कि कोई नाबालिग़ घुसने न पाये। किसी थानेदार से कम हनक नहीं थी उनकी।

ख़ैर, हर घूरे के दिन बदलते हैं। हमारे भी बदले। घनी दाढ़ी। गल गल हो उठते थे हम। कभी-कभी शेव भी होती। चेहरा खिल उठता था। एकदम से चिकना-चुपड़ा। अंग्रेज़ी की एडल्ट फिल्म देखने घुसते तो गेट-कीपर बड़ी घूर कर ऊपर से नीचे तक देखा करता था।
हमें याद है १९७० की बात है। गर्मी की छुट्टियां मनाने हम दिल्ली गए थे। हर तरीके से एडल्ट थे। प्लाज़ा में 'ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड' चल रही थी। शुद्ध एडल्ट फ़िल्म। दिल्ली के मुक़ाबले लखनऊ में अंग्रेज़ी फ़िल्में बहुत लेट आती थीं। चाचा ने कहा यह दाढ़ी तो हटाओ। कनॉट प्लेस जा रहे हो। हमने बात अनसुनी कर दी। लेकिन रास्ते में हमने सोचा कि चाचा ने ठीक ही कहा है। हमारा चेहरा-मोहरा अच्छा है तो दुनिया को भी अच्छा दिखना चाहिए। अंग्रेज़ी फिल्म है जेंट्री भी टॉप-क्लास होगी।
हमारे दिल में तो लड़कियों को देख कर अक्सर हूकें उठा करती थीं, हो सकता उनमें से किसी की हुक हमें देख कर उठे। आखिर उन्नीस प्लस के नौजवान हैं हम। घुस गए एक हेयर कटिंग सैलून में। अब तक हम घर में ही शेव करते थे। बहरहाल, नाई को इंस्ट्रक्शन दिए कि मूंछ ज़रूर रहनी चाहिए। मगर उससे थोड़ी गड़बड़ हो गई। सफ़ाचट ही कर दिया। अब उन्नीस प्लस से सीधा चौदह-पंद्रह के दिखने लगे। नाई से जो बहस हुई सो हुई, नुक्सान यह हुआ कि सिनेमा हाल में एंट्री नहीं मिली। बहुत समझाया कि हम बीए के स्टूडेंट हैं। बात मैनेजर तक पहुंची। वहां अंगेज़ी में बोले तो बामुश्किल बात बनी। उसने बहुत घूर कर भी देखा था हमें।
यूनिवर्सिटी के दिनों में हम अक्सर दाढ़ी-मूंछ में ही रहते थे। परिवर्तन के लिए किसी दिन सफ़ाचट भी होना पड़ा। उन दिनों लंबे बालों का फैशन था। साथ में छींटदार शर्टें। लड़कियों के झुंड में हमें खड़े देख कई लोग कन्फ्यूज़ हो जाते थे।

एक बार दोस्त की शादी में गए। दाड़ी बढ़ी हुयी। हमने कहा शादी मेरी तो है नहीं। जनवासे में फ्री में शेव हो रही थी। लालच आ गया। उसने उस्तरा ऐसा चलाया कि कई जगह से हमारा नाज़ुक गाल कट गया। वो दिन है और आज का दिन, हमारे गाल को किसी नाई ने नहीं छुआ है।
कई कई दिन तक शेव न करने का चलन हमारा तब ख़त्म हुआ जब हम उच्च पद पर पहुंचे। मगर रोज़ाना वाले फिर भी नहीं रहे। बीच में एक दिन छोड़ते रहे। कभी कभी मंगल, बृहस्पति और शनि का बहाना भी मिल जाता।

रिटायर हुए तो फ्रेंच कट रख ली। लेकिन आजू-बाज़ू शेव तो फिर भी ज़रूरी है न। इन दिनों सफ़ाचट हैं। शुभचिंतक कहते हैं दस साल कम हो गए। कहीं समारोह में जाना हो थोड़ा ख्याल रखना पड़ता है। चेहरा सफ़ेद सफ़ेद लगता है। वरना दो-चार दिन यूं ही निकल जाते हैं। फैमिली साथ हो तो शेव मैंडेटरी है, दिन चाहे कोई हो।
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