Wednesday, November 16, 2016

‘हाफ-रेट’ थिएटर वालों का वो दौर

-वीर विनोद छाबड़ा
पुराने ज़माने में समाज का एक बड़ा वर्ग हाफ़-रेट की फिल्में देखने का शौकीन था। उस वक़्त हाफ रेट मतलब हाफ ही होता था। मसलन रूपए का आधा। बाद में यह घटी दर हो गयी। डेढ़ रूपये की जगह एक रुपया। हमने पर्याप्त अध्ययनोपरांत इस वर्ग में दर्शकों की कई किस्में तलाश कीं।
एक, वो जो फिल्म पुरानी होने पर ही देखता है। उसे बड़ी शिद्दत से इंतज़ार रहता है कि नई फिल्म की सांस जल्दी टूटे और ए-क्लास के थियेटर से उतार कर किसी जीर्ण-शीर्ण थियेटर में शिफ्ट हो। दो, कुछ लोग फिल्म को पहले फुल्ल-रेट पर देखते हैं। मगर असली मज़ा तो हाफ-रेट के थियेटर में हाफ़-रेट के शौकीनों के बीच बिंदास बैठ कर देखना है। तीन, इस किस्म में वो होते हैं जिन्हें पता चलता है कि फिल्म बकवास है, लेकिन हर फिल्म देखने का धर्मभी निभाना है। यह तलब वो हाफ रेट में पूरी करते थे। चार और पांच, आर्थिक दृष्टि से कमजोर दर्शक और स्कूल-कालेज बंक करने वाला दर्शक। इनकी जेब हमेशा ठन-ठन गोपाल रही। ऐसे में जैसे-तैसे पैसा जोड़ कर, उधार लेकर हाफ रेट की फिल्म देखना ही इनकी मजबूरी थी।
छह, पुरानी फिल्मों का शौक़ीन दर्शक। यह ख़ास वर्ग था जो मिज़ाज़ से अतीत में डूबे होने का नशेड़ी था। पुरानी फिल्म स्मृतियां पर पड़ी धूल हटाने का सबब बनती थी। हमने पिछले पांच दशक में नई पीढ़ी के दर्शकों को भी देखा, जो अपने अग्रज़ों के आग्रह पर खास खास पुरानी फ़िल्में देखते थे। यों भी एक अच्छे फिल्मबाज़ होने या सिनेमा विशेषज्ञ होने या अच्छे गीत-संगीत के प्रेमियों के लिए यह ज़रूरी भी है कि वर्तमान के साथ-साथ पुराने सिनेमा की भी अच्छी जानकारी हो।

कभी-कभी फर्स्ट रन वाले थियेटर वाले भी हाफ रेट पर पुरानी फ़िल्में दिखाते थे। जानकारों के अनुसार ऐसा किसी प्रोमो डील के अंतर्गत नई फिल्म के लिए माहौल बनाने के लिए होता था। जैसे, अगर राजेंद्र कुमार की पुरानी फ़िल्में रिपीट हो रही हैं तो इसका मतलब होता था कि उनकी नयी फिल्म आ रही है।
कभी कभी ऐसा भी होता था कि नयी फिल्म फ्लॉप हो गयी। सिनेमा मालिक को भारी नुक्सान हुआ। ऐसे में होता यह था कि नुकसान की भरपाई की ख़ातिर वितरक कोई हिट पुरानी फिल्म दो-चार हफ्ते के लिए फ्री में दे देता था। इससे वितरक और प्रदर्शक के बीच संबंध अच्छे बने रहते थे।
पुरानी फिल्म दिखाने वाले थियेटरों की भी अलग कहानी है। दरअसल, ये थियेटर बनते तो नई फिल्म के प्रदर्शन के लिए ही थे, परंतु पार्किंग की उचित व्यवस्था  नहीं होने और बहुत घनी-घिनौनी बस्ती में स्थित होने के कारण 'जेंट्री क्लास' इसमें सिनेमा देखना पसंद नहीं करती थी। तब ये हाफ रेट के हवाले हो जाते थे।

आमतौर पर हाफरेट थियेटरों का रख-रखाव भी बेहद खराब रहा। टूटी-फूटी कुर्सियां और खस्ताहाल कवर। खटमलों का भी कब्ज़ा। ध्वनिरोधक दीवारें न होने के कारण प्रतिध्वनि की गुंजन। बाहर का शोर का अंदर आना। टूटे-फूटे दरवाजों और फटे परदों के कारण अंदर आती रोशनी। बरसात में टपकती छत। पंखों का शोर करते हुए अपनी मरजी से चलना। और फिर ऊपर से बीड़ी-सिगरेट के धड़ल्ले से सेवन के कारण थियेटर में सदैव धुआं-धुआं माहौल का बना रहना। लेकिन धन्य थे वो दर्शक, जो इन्हें बर्दाश्त करते थे।
अब हर शहर में अब ज्यादातर सिंगल स्क्रीन थियेटर बंद हो चुके हैं। हाफरेट वाले तो इक्का-दुक्का हैं जो अंतिम सांसे ले रहे हैं। लेकिन हाफरेट का दर्शक आज भी है। आज मल्टीप्लेक्स का युग है। सिनेमा से तीसरे-चौथे हफ्ते में फिल्म गायब होकर टीवी चैनलों की शोभा बन जाती है। पलंग-सोफे पर पसर कर लाखों-करोड़ो लोग फिल्म देखते हैं, बिलकुल मुफ़्त में। और क्लासिक फिल्म चैनल भी हैं जो पुरानी फिल्मों तलब पूरी करते हैं और फिर इंटरनेट पर यू-टयूब भी है। दर्शकों की यह दोनों क्लास फ़िलहाल एकैडमिक इंटरेस्ट के आईटम बनने वाले नहीं दिखते हैं।
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Published in Navodaya Times dated 16 Nov 2016
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Lucknow - 226016

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