Saturday, October 29, 2016

जब साहिर के गीत से नेहरू हुए परेशान

-वीर विनोद छाबड़ा
साहिर ने मोहब्बत और इंकलाब की एक साथ शिद्दत से हिमायत की। वो सही मायनों में अवाम के शायर थे। उन जैसा सदियों तक ज़िंदा रहता है। वो लुधियाना एक मुस्लिम गुज्जर परिवार में जन्मे थे। बचपन बेहद संगीन हालात में गुज़रा। उनके अब्बू बहुत ज़ालिम थे। मां को कूटते रहते। चाहे इसमें जान ही क्यों न चली जाये। उनकी मां पूरी शिद्दत से अपने हकूक़ और साहिर के हक़ और हिफ़ाज़त के लिये लड़ती रही। यही वज़ह है कि साहिर ने हमेशा जुल्म की मुख़ालफ़त की।
सुना है कि साहिर और पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। लेकिन कुछ का कहना है कि सिर्फ साहिर ने ही अमृता को चाहा और बेसाख़्ता चाहा। इसी वजह से साहिर के नगमों में रुमानियत के भरपूर दीदार होते हैं। इसके बाद साहिर का नाम सुधा मल्होत्रा से जोड़ा गया। लेकिन बताते हैं कि यह पब्लिसिटी स्टंट था। दरअसल, सुधा ने साहिर का 'दीदी' में यह गाना - तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है... इसकी रूह में घुस कर गाया ही नहीं ख़ास इसे कम्पोज़ भी किया। बस इत्ती सी बात का फ़साना बन गए। बहरहाल, साहिर ताउम्र कुंवारे रहे। सिर्फ़ और सिर्फ़ मां के लिये जीते रहे।
साहिर की तालीम और तरबीयत लुधियाना में ही हुई थी। १९४७ में साहिर लाहोर चले गये। मगर उनके इंकलाबी मिज़ाज और शायरी की वज़ह से पाकिस्तानी  सरकार ने उनको शक़ की निगाह से देखा। फिर उन्हें वहां का मज़हबी माहौल भी पसंद नहीं था। उन्हें अपने हिंदू-सिख दोस्तों की बेहद याद आती थी। वो १९४९ में वो आज़ाद ख्याल भारत आ गये। कुछ वक़्त दिल्ली में गुज़ार कर रोटी-रोज़ी के बेहतर इंतज़ाम के लिए फिल्मों की तरफ रुख किया।

साहिर की पहली फिल्म आज़ादी की राहथी। मगर न तो फिल्म और न ही साहिर को त्वज़ो मिली। पहली कामयाबी नौजवान (१९५१) में मिली - ये ठंडी हवायें, लहरा के आयें...यहीं से सचिनदा और साहिर की जोड़ी हिट हो गयी। कई बरस चला यह साथ प्यासामें टूटा। दरअसल, फिल्म की क़ामयाबी में ज्यादा ज़िक्र साहिर के नग्मों का हुआ। सचिनदा को यह अच्छा नहीं लगा।
साहिर बड़े शायर थे। इसका उन्हें अहसास था। शायर न हो गायक का क्या वज़ूद। उन्होंने शर्त लगा दी। उन्हें हर गीत का पारिश्रमिक लता मंगेशकर के मुकाबले एक रुपया ज्यादा मिले। दरअसल, साहिर ने शायर की मुफ़लिसी को जीया था। प्यासामें गुरूदत्त ने विजय नाम के जिस किरदार को जीया था वो साहिर के भीतर का शायर ही है। ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के, कहां हैं कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के? जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं...सुनते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को इस गाने ने बहुत डिस्टर्ब किया था। 
ताजमहल के बारे में साहिर के ख्यालात दुनिया के बिलकुल फ़र्क थे। वो फकीरों के मसीहा थे। रूमानियत में भी फकीरी का दीदार हुआ। तभी तो उन्होंने लिखा था - इक शहंशाह ने दौलत के सहारा लेकर, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक...साहिर ने तकरीबन हर गाना बेहतरीन लिखा। अब यह बात दीगर है कि उन्हें सिर्फ़ ताजमहलऔर 'कभी कभी' में ही बेस्ट गीतकार के फिल्मफेयर अवार्ड मिला...जो वादा किया है वो निभाना पडेगाकभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...

यों साहिर ईनामों के मोहताज़ कभी नहीं रहे। अवाम ने उन्हें सराहा यही उनका सबसे बड़ा ईनाम था। वो ज़मीनी सतह पर जुल्म और हक़ के लिये लड़ते रहे। इसी का नतीजा था कि आल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले गानों में गायक और संगीतकार के साथ गीतकार का नाम भी शामिल हुआ। नतीजतन गीतकार को भी रायल्टी मिलनी शुरू हो गयी।
पंजाबियत के जज़्बे से भरपूर साहिर लुधियानवी का योगदान उर्दू अदब के लिए बेमिसाल है। मगर आम आदमी साहिर को फ़िल्मों में हिस्सेदारी के लिए ही याद करता है। साहिर जानते थे कि दूरदराज़ बैठे अवाम तक पहुंचने के लिए फ़िल्म ज्यादा जोरदार माध्यम है।
कहते हैं साहिर ने फ़िल्म की कहानी या सिचुुऐशन सुन कर गीत नहीं लिखे। उनके खजाने में बेशुमार गीत पहले से ही मौजूद रहते थे। कुछ मशहूर नगमे हैं...न तू हिंदू बनेगा न...ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं...साथी हाथ बढ़ाना...ये देश है वीर जवानों का...बाबुल की दुआएं लेती जा....हटा दो, हटा दो मेरे सामने से ये दुनिया तुम हटा दो...हमने तो जब कलियां मांगीसर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए....न तो कारवां की तलाश है...अल्लाह तेरो नाम...मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया...संसार से भागे फिरते हो...तोरा मन दरपन कहलाये...छू लेने दो नाजुक होंटो को...तुझे चांद के बहाने देखूं...कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...अफ़सोस कि रूहानी मोहब्बत का सरपरस्त और जु़ल्म की मुख़ालफ़त करने वाला ये मसीहा २५ अक्टूबर १९८० को महज़ ५९ साल की उम्र में गुज़र गया... मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गए...। महेंद्र कपूर ने उनके लिये बिलकुल सही कहा था - मैं नहीं समझता कि साहिर जैसा शख्स दोबारा कभी पैदा होगा।
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Published in Navodaya Times dated 29 Oct 2016
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