Friday, September 30, 2016

दरारें!

-वीर विनोद छाबड़ा
कल्लू मेरा रिश्तेदार नहीं है और न ही दोस्त। वो एक दुकानदार है। बल्कि दो भाई और एक दुकान। दोनों को ही लोग कल्लू कहते हैं। दो जिस्म एक जान।
परचून का काम है। हम अपनी रसोई का और दूसरे कई घरेलू उपयोग के आइटम उनसे खरीदते हैं।

बिना कहे वो एमआरपी से कम कीमत पर सामान भी देते हैं। कभी पैसे कम पड़ गए तो बाद में देने पर भी उन्हें कोई ऐतराज नहीं होता। तक़ादा भी नही करते। शायद उन्हें याद भी नही रहता। हमीं  याद दिलाते हैं।
सामान ख़राब होने पर या अनुपयोगी होने पर वो फ़ौरन वापस भी कर लेते हैं। बोलते वक़्त उनका वाल्यूम इतना धीमे होता है कि उनके लिप्स मूवमेंट से हम अंदाज़ा लगाते हैं कि वो क्या कह रहा है।
मैं उसके बारे में इतना क्यों बता रहा हूं? दरअसल आज मैंने देखा कि उनकी दुकान के बीचों-बीच दीवार खड़ी थी। यह देख कर मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। दो भाई अलग हो गए।
कल तक गलबहियां चल रही थीं। अच्छा भला कमा रहे थे। कमाई पर बराबर बराबर का हक़ था। जाने रातों-रात क्या हुआ कि आज दरार पड़ गयी। पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
इसलिए कि कारण में नया कुछ नहीं होता। यह दरार भाइयों के दिलों में नहीं स्वयं नहींउठती, बल्कि पैदा की जाती है। कारण बाहरी तत्व या पत्नियां या बड़े हो गए बच्चे। उनकी महत्वकांक्षाएं और उमंगें। घर ढह जाते हैं या ऊंची-ऊंची दीवारें उठ जाती हैं। यह आग व्यापार पर पहुंचती है। व्यापर भी अक्सर तहस-नहस हो जाते हैं। कालांतर में दुःख-सुख में एक साथ दीखते ज़रूर हैं, मगर दिल नहीं मिल पाते। दरार को कितना ही भरो।

Thursday, September 29, 2016

फेसबुक पर तीन साल

फेसबुक पर तीन साल।
- वीर विनोद छाबड़ा
तीन साल पहले। आज ही का दिन। तकरीबन यही समय भी। ख़ुर्शीद अहमद आये थे। फेसबुक अकाउंट खोल दिया। मुद्दत से चाह थी। एक नई दुनिया मिली, उम्मीद से ज्यादा आनंद आया। शुरू के कुछ दिन तक हमें दिक्कत हुई। हम तो कंप्यूटर का क ख ग घ तक नहीं जानते थे। खुर्शीद ने हौंसला बढ़ाया कि कुछ भी नहीं है इसमें। बस अक्षर ज्ञान होना चाहिए। हम तो बहुत आगे थे। ट्रिपल एमए और किसी ज़माने के घनघोर टाईपिस्ट।

इससे पहले हम सोचते थे कि यह सोशल मीडिया, फेसबुक आदि सब बकवास होता है।कागज़, पेन और स्याही के सामने भला किसी विकल्प की क्या औक़ात? इसीलिए हम दूर भागते रहे। लेकिन अवसादग्रस्त जीवन में तनिक ख़ुशी लाने हेतु एक प्रयोग करने में क्या जाता है? इस सोच के साथ और कुछ मित्रों की राय के आधार पर हम फेसबुक पर आये। यों हम कुछ लेट-लतीफी हैं, लेकिन समय के साथ चलने के कायल रहे हैं।
अरे, यह तो कागज़, पेन और स्याही सच्चा साथी निकला, बस रूप बदला हुआ है। ख्यालातों को पंख मिले। दिमाग में भरा समस्त कूड़ा-करकट, अच्छा या बुरा सब बाहर आने लगा। दुनिया की असलियत अब सामने आई। बल्कि दुनिया को तो अब समझा।
हम दोस्तों के रहते, दुश्मनों के ख्वाहिशमंद न पहले कभी रहे और न फेसबुक पर। बहुत मिले और चले गए। उन्हें हमारे डीएनए में कांग्रेस का होना पसंद नहीं आया। मानों हम देश के दुश्मन हो गए। जबकि हमें उनका संघी होना कभी बुरा नहीं लगा। हम तुम्हारी सोच को नहीं बदल सकते तो तुम हमारी सोच को नहीं बदल सकते। हम सामाजिक समरसता में यकीन करते थे, करते हैं और करते रहेंगे।
हमने कभी गुस्से में किसी को अमित्र किया भी तो उसकी शिकायत पर हमने उसे फिर गले लगा लिया। निंदक नियरे राखिये।
हमें सबसे बड़ी उपलब्धि ये मिली कि हमने स्वयं को फिर से खोजा। सिनेमा और क्रिकेट के आगे हमारा कोई लेखन ख़ास नहीं था। यहां हमें खुद को खंगालने का मौका मिला। हम खुद पर हैरान हुए। कहां थे अब तक? चलो, देर आये, दुरुस्त आये। कुछ लोगों की किस्मत में देर से जन्म लेना लिखा होता है।

Wednesday, September 28, 2016

आंसू, तीर्थ यात्री के बहाने पिता के आख़िरी सफ़र की कुछ यादें।

-वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों मैं बहुत छोटा था। किसी को भी रोते हुए देखता तो रोने लगता। मां पूछती थी - क्यों रो रहा है?
मैं रोते हुए की तरफ़ इशारा कर दिया करता था।
ये आंसू कभी थमे नहीं। बात-बात पर बहे। चाहे दुःख हो या सुख। दफ़्तर में किसी का काम कर दिया। उसने शुक्रिया कहा तो डांट लगा दी। रुलाएगा क्या?  
अमरनाथ और मानसरोवर की यात्रा पर जा रहे तीर्थ यात्रियों या हज यात्रियों को देख कर भी आंखें भीग गयीं। सफ़र बहुत लंबा और दुरूह है। शायद आख़िरी भी।
कितना अजीब लगता है जब इस नीयत से विदाई दी जा रही हो कि इनका कल हो, न हो।
मुझे याद है जब मेरे पिता को कैंसर घोषित हुआ और जीने की बाकी मियाद ढाई-तीन महीने बताई गयी। 
उन दिनों मैंने इतने आंसू देखे कि उन आंसूओं को पोंछते-पोंछते मेरे आंसू सूख गये।
पिताजी से मिलने वालों का तांता लगा रहता था। चलो मिल आयें। रामलाल को आख़िरी दफ़े देख लें। इनमें इंटरव्यू की अभिलाषा लिये कई पत्रकार और लेखक बंधु भी होते थे। लखनऊ दूरदर्शन ने उन पर उन्हीं दिनों डॉक्यूमेंटरी भी बना डाली। साहित्य एकेडमी वाले भी उन्हीं दिनों जगे। जाते-जाते दे डालो।
बहरहाल, होता यही था जब दोस्त-अहबाब जा रहे होते थे तो उनकी आंख में आंसू होते थे।
पिता जी की आंख में मैंने सिर्फ़ एक बार आंसू देखे। उनके बचपन के सखा और उर्दू के लेखक हीरानंद सोज़ फ़रीदाबाद से ख़ास उनसे मिलने आये थे। वो दो दिन उनके साथ रहे। इस दौरान सिर्फ़ और सिर्फ़ बचपन को याद किया। वो खेल का मैदान, वो गुल्ली डंडा, वो छड़ी से मारने वाले अंग्रेज़ी के मास्टर हरीचंद, वो लड़ाई-झगड़े और फिर मान-मनौवल, वो अनाजमंडी और गलियां
जब हीरानंद जी लौट रहे थे तो मेरे पिता की आंख में आंसू थे और हीरानंद जी भी। बड़ी कातर दृष्टि से पलट कर देखा। उन्हें यकीन था कि दोबारा उन्हें देखना नहीं होगा। यार, जल्दी से स्कूटर स्टार्ट कर। बर्दाश्त नहीं हो रहा।  
मेरी भी यही स्थिति थी। सुबह ऑफिस के लिए निकलता तो उन्हें जी भर कर देख लेता। न जाने अगले पल में क्या लिखा है? अब ये बात दूसरी है कि एक छोटा सा चमत्कार हुआ। जीने की मियाद ढाई-तीन महीने से आगे बढ़ गयी। तक़रीबन साढ़े-तीन साल। उनके कई मित्र इसे वरदान समझ दोबारा आ गए।
और मैं पल-पल आशंकित रहा। अब आया, और अब आया वो पल। बड़े क्रूर होते हैं वो पल। चैन से जीने भी नहीं देते।

Tuesday, September 27, 2016

रीयल बॉस

- वीर विनोद छाबड़ा
अमेरिका के एक भीड़-भाड़ वाले शहर में एक रेस्तरां है। अच्छी खासी भीड़ है। एक नीग्रो रेस्तरां के एक कोने में बैठा बीयर पी रहा है।
तभी हिटलर जैसी नस्लवादी सोच वाला एक गोरा साहब दाखिल होता है। नीग्रो को देख कर उसकी भवें चढ़ जाती हैं। बहुत खार खाता है वो काली चमड़ी वालों से। धरती पर बोझ हैं। अगर पुलिस का खौफ नहीं होता तो वो
उसे गोली मार देता। अचानक उसे ख्याल आया कि उस नीग्रो को अहसास कराया जाए कि वो उससे कितनी घृणा करता है। उसने रेस्तरां के मैनेजर को तलब किया - इस रेस्तरां में जितने भी ग्राहक बैठे हैं, उनके डिनर और शराब का बिल मैं चुकाऊंगा, सिवाय उस बास्टर्ड नीग्रो को छोड़ कर।
कुछ देर बाद।
गोरे साहब ने देखा कि नीग्रो अब भी ठाठ से बैठा हुआ बीयर पी रहा है। अब तो गोरे साहब का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने फिर मैनेजर को तलब किया। इस रेस्तरां में बैठे सभी सज्जनों को बता दें कि कल का लंच और बीयर भी मेरी तरफ से रहेगा, सिवाय उस काली चमड़ी वाले को ताकि उसे अहसास हो सके कि वो कितना अवांछित व्यक्ति है।

Monday, September 26, 2016

जो मीठा बोले वो जग जीते

-वीर विनोद छाबड़ा
बाजार ठंडा है। ऑनलाईन शॉपिंग का युग शुरू हो चुका है। घर बैठे माल मिलता है, सस्ता और ब्रांडेड। बाज़ार जाने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ती। आने-जाने का खर्च, समय और ऊर्जा की बचत भी। लेकिन कुछ रिटेलर ग्राहक की नस पहचानते हैं।
एक भद्र महिला कपड़े के एक स्टोर में घुसती है। सारे ब्रांड मौजूद हैं वहां। मालिक गुरबचन सिंह जी ने स्वागत किया - आओ भैंणजी। बैठो, इधर नहीं, उधर बैठो जी। एसी की ठंडी-ठंडी सोणी हवा मिलेगी। हांजी, हुक्म करो जी। क्या दिखाऊं। सूट, साडी, लहंगाओये छिंदे कुछ ठंडा-शंडा ले आ भई।
महिला थोड़ा सकुचाई - मुझे एक ब्लाउज पीस चाहिए।  
गुरबचन सिंह जी ने हाथ जोड़ दिए। तुस्सी उधर साड़ी-ब्लाउज कार्नर चले जाओओ छोटे भैंणजी दी सेवा कर छेती-छेती।
छोटे ने भैंणजी अभिनंदन किया। आदरपूर्वक बैठाया। फिर एक नहीं दर्जनों पीस दिखाए। सारे रैक पलट दिए। पूरे-पूरे पैंतालीस मिनट खा गयीं भैंणजी। मगर  कुछ भी पसंद नहीं आया। किसी का रंग उसके दिमाग में बैठे रंग से मेल नही खाया तो किसी की क्वालिटी ख़राब लगी। किसी की शेड में फ़र्क। और किसी के दाम ज्यादा। एक पीस पसंद तो था, लेकिन इसे उन्होंने कल ही पड़ोसन को पहने देखा है। कतई नहीं खरीदना है। भैंणजी निराश हो गयीं - जो मैं चाहती हैं, वो नहीं है आपके स्टोर में। 
छोटे का दिमाग ख़राब हो गया। अब घंटा भर लगेगा। सारे पीस तह कर सही जगह पर लगाने में। लेकिन गुरबचन सिंह जी का दिमाग कतई गर्म नहीं हुआ। उन्होंने सर पर बर्फ की सिल्ली रखी हुई है। वो कूल-कूल विदा करते हैं। भैंणजी, आप आती रहा करें जी। त्वाडी ही दुकान है। पैसों की फ़िकर तो कभी करना ना जी। बीस-तीस हज़ार तक का समान तो जब चाहो, ले लो जी। पैसा आ जायेगा देर-सवेर।
गुरबचन सिंह जी की विनम्रता ने महिला का दिल जीत लिया। जी शुक्रिया। वाहे गुरुजी की कृपा से पैसे की कमी नहीं है। आज पहली बार है कि आपके स्टोर में  दिल की चीज़ मिली नहीं।   
छोटे को हैरानी हुई। बाऊ जी, आप कैसे इतने ठंडे रहते हो? मुझसे तो बरदाश्त नहीं होता। मेरा बस चले तो ऐसों को घुसने न दूं।
गुरबचन सिंह जी छोटे के सर पर हाथ रखा। छोटे, तू कद से नहीं दिमाग से छोटा है। तभी तो तू पिछले बीस साल से सेल्समेन है। मुझे देख, सेल्समेन से मैनेजर और अब पार्टनर। वाहे गुरूजी की कृपा से ये मीठी वाणी का दम है। मेरा दावा है, वो भैंणजी पलट कर ज़रूर आएगी। वाहेगुरू जी दी कसम, पूरी मार्किट में मुझ जैसा मिट्ठा बोलने वाला दूजा नहीं मिलणा। 

Sunday, September 25, 2016

तू जिए हज़ारों साल

- वीर विनोद छाबड़ा
अपने परिजन का हालचाल जानने हम अस्पताल गए। आज वहां कुछ दूसरी ही किस्म की हलचल थी। स्टाफ के चेहरे पर ख़ुशी थी। एक वृद्धा मरीजा का जन्मदिन था। उस बेचारी को मालूम ही नहीं था। वो न बोल पाती थी और सुन सकती थी। शायद समझ भी नहीं पा रही थी। इसीलिए चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। हमें मालूम नहीं कि क्या बीमारी है इसे। सूख कर कांटा हो चुकी थी। कुर्सी पर बैठी हिल रही थी। उसे बार बार सहारा दिया जा रहा था। दो केक रखे थे सामने। एक पर लिखा था - लव मम्मी। उसके बच्चों ने भेजा था। वो बाहर थे कहीं। दूसरा पति की तरफ से था। वो पास ही खड़ा था। भनभना रहा था कि केक पर कुछ लिखा ही नहीं है।

वृद्धा मरीजा की शारीरिक अवस्था बता रही थी कि शायद यह अंतिम जन्म दिन है उसका। हमने उसके पति को बधाई देते हुए पूछा कि क्या मैं तस्वीर ले सकता हूं?
उसने हमें घूर कर देखा। क्या आप मुझे जानते हैं?
हमने कहा - नहीं। इस अच्छे पल को शेयर करना चाहता हूं।
उसने बहुत सूखे और अशिष्ट स्वर में कहा - कोई ज़रूरत नहीं है?
हमें उसके व्यवहार पर दुःख हुआ और आश्चर्य भी। कैसा पति है जो अपनी पत्नी के अंतिम हैप्पी बर्थडे की ख़ुशी को किसी अजनबी से शेयर करना क्यों नहीं चाहता? हमारे तो बड़े बुज़ुर्ग यही कहा करते थे कि ख़ुशी शेयर करने से बढ़ती है।

Saturday, September 24, 2016

निसार की आंखों से टपक पड़े थे आंसू

-वीर विनोद छाबड़ा
'कागज़ के फूल' का सेट लगा है। आज कई शॉट शूट होने हैं। इसके निर्माता और निर्देशक गुरूदत्त हैं। उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है। उस ज़माने की बॉयोपिक समझ लीजिये। एक्स्ट्रा कलाकारों का झुंड है। वो सबको सीन समझा रहे थे। हरेक को उसकी पोजीशन और भूमिका बता रहे हैं। एक एक्स्ट्रा का मुंह दीवार की तरफ है। गुरू उससे खिजिया कर कहते हैं। मुंह इधर घुमाओ। 
वो एक्स्ट्रा आर्डर का पालन करता है। चेहरा थोड़ा झुका है। वो गुरू से कुछ छुपाना चाहता है। गुरू उसे ध्यान से देखते हैं। कुछ याद करते हैं। कहीं देखा है? कहां?
वो एक्स्ट्रा कुछ बोल नहीं पाता। उसकी आंखों से टप-टप आंसू टपकते हैं। गुरू को सहसा याद आता है। अरे आप मास्टर निसार हैं? आप यहां कैसे?
गुरू के हाथ मास्टर निसार के पांव छूने के लिए बढ़ते हैं। लेकिन मास्टर निसार उन्हें बीच में रोक लेते हैं। नहीं, नहीं। ये आप क्या कर रहे हैं? मैं इस लायक नहीं हूं। किस्मत ने आसमान से ज़मीन पर पटक दिया है।
गुरू उन्हें खींच कर गले लगा लेते हैं। मास्टर जी, आप मेरे पूज्य हैं। आप एक्स्ट्रा का काम नहीं करेंगे। आप सिर्फ आराम से बैठेंगे, बस।
मास्टर शंकित हो उठते हैं। बैठूंगा तो रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी?
गुरू शंका का समाधान करते हैं। जितने दिन तक फिल्म बनेगी, आप रोज़ आएंगे। इसी कुर्सी पर बैठेंगे। यही आपका काम है और इसके लिए आपको पेमेंट होगा।
यह थी गुरूदत्त की ग्रेटनेस। और फ़िल्म की थीम भी तो यही थी। वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न हम, हम रहे न तुम।

और वो मास्टर निसार! वो थे तीस के दशक के मशहूर नायक निसार। कलकत्ता के मदन थिएटर की खोज थे। प्रवाहवार उर्दू बोलना और गाने के लिए बेहतरीन गला। यह दो खासियतें ही काफ़ी होती थीं, उन दिनों किसी की किस्मत को परवाज़ पर चढ़ाने के लिए। १९३१ में जहांआरा कज्जन के साथ उनकी जोड़ी 'शीरीं फरहाद' और 'लैला मजनूं' बहुत हिट हुई थी। पब्लिक में उनके प्रति दीवानगी पागलपन की हद तक थी। उन दिनों स्टार जैसी पदवी होती तो वो ज़रूर सुपर स्टार होते। लोकप्रिय एक्टर मास्टर कहलाहते थे। और निसार इसीलिए मास्टर निसार थे। 
बाद में बोलती फिल्मों का युग आया। नए-नए एक्टर आये। लेकिन मास्टर निसार का जलवा तब भी बरक़रार रहा। बहार-ए-सुलेमानी, मिस्र का खजाना, मॉडर्न गर्ल, शाह-ए-बेरहम, दुख्तर-ए-हिंद, जोहर-ए-शमशीर, मास्टर फ़कीर, सैर-ए-परिस्तान, अफज़ल, मायाजाल, रंगीला राजपूत, इंद्र सभा, बिलवा मंगल, छत्र बकावली, गुलरु ज़रीना आदि अनेक हिट फिल्मों के जनप्रिय हीरो मास्टर निसार।

Friday, September 23, 2016

अपना फ़र्ज़ है समझाना, बाकी तेरी मरज़ी

- वीर विनोद छाबड़ा
वो हमारे मित्र हैं। बहुत दिन बाद मिले। हमारी तरह रिटायर हैं। कहने लगे टाईम पास नहीं होता। हमने पूछा, फेस बुक पर हो। वो बोले फेस बुक पर अकाउंट तो है। बच्चों ने खोल दिया था। लेकिन हमें न खोलना आता है, और न बंद करना।
हमें यकीन नहीं हुआ। हमने कहा आप तो चीफ़ इंजीनियर रहे हैं। इस सब की जानकारी तो होनी चाहिये।

इससे पहले कि वो कुछ कहते, उनकी पत्नी बीच में ही बोल पड़ीं। घर का फ्यूज़ तो बना नहीं सकते। ट्यूब लाईट बदलनी हो तो मिस्त्री बुलाना पड़ता। पचास रूपये ले जाता है। कहता है आप बड़े लोग हो। आपसे नहीं लेंगे तो किससे लेंगे।
हमने देखा बात कहीं और जा रही है। हम फिर उनको फेसबुक की तरफ घुमा लाये। उन्होंने फिर टॉपिक घुमाया - यह सोशल मीडिया हमारी समझ से तो बाहर है। इससे क्राइम बढ़ रहा है। सुना नहीं, रोज़ अख़बारों में छपता है कि फलां फलां के साथ भाग गयी।
हम समझ गए कि उनको फेस बुक और फेस बुकियों दोनों से चिढ़ है। बात करना ही नहीं चाहते।
ऐसे अनेक लोग हैं। अफ़सर भी और बाबू भी, हर तबके और वर्ग के लोग हैं। 
एक भाई साहब को जानकारी तो है, लेकिन फुरसत नहीं। कहते हैं कि फेसबुक फालतू का काम हैं। क्या मिलता है? भाई साहब, आपके लिए ठीक है। रिटायर हैं, न भजन कीर्तन, फेसबुक ही सही।
कुछ लोग हफ्ता-दस दिन बाद शेव करते हैं। या महीने-डेढ़ महीने बाद सर पर बचे थोड़े से बालों को ट्रिम कराया। रंगाई-पुताई कराई। दर्जन भर सेल्फियां मारीं। तीन-चार शार्ट लिस्ट की। कई एंगिल से निहारा। फेसबुक खोली और चिपका दीं। हम कितने हसीन हैं।
एक साहब ने मकान बनवाया तो याद आया कि चलो फेसबुक पर तस्वीरें चिपका कर दुनिया को ख़बर दे दें। हम किसी से कम नहीं। 
मोहतरमा ने रेडीमेड सूट लिया। पहना। दो चार पोज़ दिए। और फेसबुक पर पहुंच गयीं। हॉय, मैं कैसी लग रही हूं?
हमें लगता है कि फेसबुक पर जो रेगुलर दिखते हैं वो टोटल फेसबुकियों का महज़ दस-बीस परसेंट ही हैं। बाकी साइलेंट हैं, सो रहे हैं। मित्र सूची बढ़ा रहे हैं। हमारी भी और अपनी भी। अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बता रहे हैं हमारे तीन हज़ार हो गए। देखना महीने भर में चार हो जायेंगे और दिवाली तक तो पांच हज़ारी हो जाऊंगा। फिर मोहल्ले को धौंसियाते फिरेंगे - हमसे न टकराना। मेरे पीछे पांच हज़ार की फौज़ है।
इधर हम और हमारे जैसे तमाम दूसरे भी खुश कि पांच हज़ारी हो रहे हैं। गले मिल कर बधाई दे रहे हैं। मगर पोस्ट डाली तो लाईक ठनठन गोपाल सरीखी। २४ घंटे में दस-पंद्रह। वो भी जाने कितनी दफ़े मित्रों-रिश्तेदारों को फ़ोन किया।

Thursday, September 22, 2016

मजाक मत उड़ाओ, वरना भुगतोगे


- वीर विनोद छाबड़ा
किसी का रंग काला हो तो उसे कलुआ कह दिया, चश्माधारी को चश्मुद्दीन कह दिया, छह उंगली वाले को छंगुल कह दिया, एक आँख वाले को कनवा। किसी को दिखाई नहीं देता तो उसे अंधे की उपाधि दे डाली। एक टांग नहीं तो उसे लंगड़ा बना डाला। सुनाई नहीं दिया तो बहरा कह दिया। बड़े अभद्र मज़ाक भी बनाते हैं। देख लीजिये किसी भी कॉमेडी सीरियल को। आजकल दर्जनों दिखते हैं। क्या यह हमारी संस्कृति है? उस पर तुर्रा यह है कि हम बड़े फख्र से गीत गाते हैं - है प्रीत यहां की रीत सदा, मैं गीत यहां के गाता हूं, भारत का रहने वाला हूं, भारत की कथा सुनाता हूं... 

हमें मालूम नहीं किसी बाहरी मुल्क में ऐसा होता है कि नहीं। यह किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं है। हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कहते थे किसी की जिस्मानी कमी की आड़ में उसका उपहास न उड़ाओ। ईश्वर से डरो, क़ुदरत बहुत बेदर्द है। किसी को नहीं बख्शती है। चाहे छोटा है या बड़ा। अमीर है या ग़रीब। हर कर्म का हिसाब देना होता है, और वो भी इसी जन्म में। किसी एक्सीडेंट या बीमारी में तुम्हारी आंख चली जाए या बांह कट जाए, सुनाई या दिखाई देना बंद हो जाए।
हमें याद है। कई साल पहले जब हम किशोरावस्था में थे तो रेडियो स्टेशन पर कहानी पढ़ने जाते थे। सख्त हिदायत थी कि काना, लंगड़ा, बहरा शब्द इस्तेमाल मत करो। धोबी को कपड़े धोने वाला और स्वीपर को सफ़ाई वाला कहना है।

Wednesday, September 21, 2016

कॉमेडियन की ट्रेजेडी

- वीर विनोद छाबड़ा
कॉमेडी कलाकारों की भीड़ में एक अदाकार ऐसा भी हुआ है कि दर्शक सीन में उसकी एंट्री से पहले ही चौकन्ने और सावधान हो गये, और फिर बेतरह हंसे भी। इस कॉमेडियन का नाम था राधा किश्न। हुआ यों कि १९४७ में एक फिल्म आयी थी - शहनाई। इसमें राधा किश्न के किरदार का नाम था लालाजी। सेठ के मुंशी। हर समस्या के हल का निदान उनकी जेब में था। सेठ जी को जब-तब इनकी ज़रूरत रहती। वो जब-तब उन्हें आवाज़ देते थे - लालाजी। अब चाहिए तो यह था कि लालाजी सीन में दाखिल हों और पूछें - कहिए जनाब, क्यों याद किया? मगर होता यह कि नेपथ्य से आवाज़ आती थी- जी, आया जी। और इसके कुछ क्षणों बाद लाला जी सशरीर प्रकट होते। तब तक दर्शक उनके इंतजार में हंस चुके होते थे। उनको सशरीर देखकर एक बार फिर हंसते, इस प्रत्याशा में कि अब लाला जी कोई चुटीला डायलाग बोलेंगे। उनकी यह स्टाईल बहुत पापुलर हुई।
राधा किश्न के चापलूस कॉमिक विलेन के किरदार में भी खूब पसंद किया गया। वो होंटों को दांतों तले दबा कर बोलते थे। बरसों बाद अनुपम खेर ने बेटा और चालबाज़ फिल्मों में इस स्टाईल को रिपीट करके उनकी याद ताज़ा करायी। उनका जन्म १३ जून १९१५ को हुआ था। वो अपनी शर्तों पर काम करते थे। परफेक्शन के फेर में उन्होंने किरदार को बार-बार रिहर्स करने में टाईम बहुत खर्च किया। इस कारण १९३६ से १९६२ के तक लंबे कैरीयर में महज़ ३९ फिल्में ही कर सके। उनकी पहली फिल्म करोड़पति (१९३६) थी। कई बरस बाद १९६१ में इसी नाम से पुनः फिल्म बनी। इसमें उन्होंने संवाद भी लिखे थे। वो बहुत अच्छे लेखक भी थे। करोड़पति के अलावा नई दिल्ली (१९५६) का स्क्रीनप्ले भी उन्होंने लिखा।  
Radha Kishen
राधा किश्न चूंकि खुद एक अच्छे संजीदा लेखक थे, इसलिये उन्हें मालूम था कि किस किस्म के किरदार को सीन के मुताबिक किस अंदाज़ में क्या बोलना चाहिए और सीन की गंभीरता से बोझिल माहौल को कैसे कम करके हंसी का फौव्वारा चालू किया जाये। 'नया दौर' में वो कॉमिक विलेन थे। ढेर तालियां भी बटोरी। तब दिलीप कुमार व्यक्तिगत रूप से उनके सामने नतमस्तक हुए थे।
उनके संवादों में व्यंग्यात्मक पीड़ा के साथ-साथ चुटीलापन भी होता था। टाइमिंग और हाज़िर जवाबी में उनका कोई सानी नहीं था जो स्तरीय हास्य के सृजन की प्रथम शर्त होती है। एक फिल्म में वो अपनी नकचढ़ी पत्नी से कहते हैं - लात तुम मारती हो और गधा मुझे कहती हो।
दो बांके (१९५९) में राधा किश्न की बहन किसी के साथ भाग गयी। पत्नी परेशान थी कि शाम पति जब घर वापस आयेगा तो उसे किस मुंह से बतायेगी। इधर बहन के भागने की खबर पाकर राधा किश्न भागे भागे घर आये। ऐसे सीरीयस माहौल में भी राधा किश्न ने ठहाका लगवा ही दिया। दरवाजे पर परेशान हाल खड़ी पत्नी से राधा किश्न बोले- अब तुम यहां क्यों खड़ी हो? किसी के साथ भागने का तुम्हारा भी तो इरादा नहीं है?

Tuesday, September 20, 2016

जान हथेली पर।

- वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। हम गोरखपुर से लौट रहे थे। यूपी रोडवेज़ की एक खटारा किस्म की बस थी वो। हमें ड्राइवर के बायीं तरफ की सीट मिल गयी। मज़ा आ गया। सामने का और दायें-बायें का पूरा नज़ारा।
सर्दी के दिन थे। चार बजे जब बस चली थी तो उजाला था। थोड़ी देर में पांच शाम हो गयी और फिर अंधेरा। बिना डिवाईडर की दो लेन की सड़क।
सामने से आते वाहन की फुल बीम पर ऑन हेड लाईट। आंखें चौंधिया जाती थीं। हम आंख पर हाथ रख लेते थे। कलेजा अपनी जगह से हट कर हलक में अटक जाता।
लगा कि अब हुई आमने-सामने भीषण टक्कर हुई ही समझो। क्षण भर में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के चेहरे सामने से घूम गए। अगले क्षण सब सलामत महसूस हुआ। आंख खुली। देखा ड्राईवर पर कोई असर नहीं। बड़े इत्मीनान से बस चलाता हुआ दिखा। जाने कब बस को ज़रा सा बायें दबा खतरे से बाहर निकल आया।
राम राम करते हुए सफ़र चलता रहा। तकरीबन आधा रास्ता पार हो चुका था। एक ढाबे पर बस रुकी। कदाचित अयोध्या मोड़ था यह। 
चाय पीते हुए ड्राईवर से हमने पूछा - भइया, सामने से आ रही गाड़ी की हेड लाईट से आपकी आंखें नहीं चौंधियाती क्या?
ड्राईवर ने चाय सुड़की - बिलकुल चौंधियाती हैं। कुछ दिखाई ही नहीं देता।
हम हैरान हुए - फिर बस कैसे चलाते हैं?
ड्राईवर मुस्कुराया - राम भरोसे।
यह सुन कर हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। थोड़ी देर बाद जब ढाबे से बस चली तो हमने ड्राईवर के साथ वाली सीट का मोह छोड़ दिया। और डरे डरे से, चुपचाप भीगी बिल्ली समान, पीछे की सीट पर बैठ गए। मन ही मन ईश्वर से 'रामभरोसे' ड्राईवर की लंबी ज़िंदगी कामना करते रहे। क्योंकि रामभरोसे की ज़िंदगी रही तो बस सलामत रहेगी और बस सलामत रही तो हमारे अस्थी-पंजर बचे रहेंगे। और अस्थी-पंजर बचे रहे तो हमारा परिवार फला-फूलता रहेगा। 

Monday, September 19, 2016

हमारे जैसे यह भी


-वीर विनोद छाबड़ा
साठ के दशक का मध्य। हम हाई स्कूल में थे। अंग्रेजी माध्यम के मिशनरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चो को अंग्रेजी में गिटपिटाते देख कर हीन भावना उत्पन्न होती थी। हमें कोफ़्त होती थी कि ऊपर वाला अगर हमें गरीब की बजाये किसी अमीर की झोली में दाल देता तो क्या घिस जाता? तब हम भी कान्वेंट में पढ़ रहे होते। कभी-कभी ये सुखद कल्पना करके पुलकित होते थे कि हम वास्तव अमीर माता-पिता की मेले में बिछुड़ी संतान हैं। बरसों बाद वो हमें लेने आये हैं और हमें पाल-पोस कर बड़ा करने वाले माता-पिता भारी मन से हमें विदा कर रहे हैं...इसके आगे हम जब भी कुछ सोचने लगते तो माताजी अवश्य टांग अड़ा देतीं - जा दूध ले आ। लौटते पे सब्जी भी ले आना। फिर पढ़ना भी है। और झमेलों की भीड़ में हम गुम हो जाते।
कभी हम ये भी सोचते कि ये गरीब माता-पिता ही ठीक हैं। बंदर-भालू का तमाशा तो देख लेते हैं। सड़क किनारे जादू का खेल भी कभी-कभार देखने को मिल जाता है। हाफरेट सिनेमाहाल में चालीस पैसे की फ्रंट क्लास में बिंदास बैठ तो जाते हैं।
एक दिन क्या हुआ कि अमीरों की बस्ती के अंग्रेज़ी बोलने वाले लड़कों से हम हिंदी बोलने वालों का क्रिकेट मैच लग गया। दरअसल, हम गरीबों में से किसी एक की वहां रिश्तेदारी थी। उसकी एक अंग्रेज़ी वाले से बहस हो गयी कि पटौदी बढ़िया है या सरदेसाई। बात इतनी आगे निकली कि तय हुआ कि मैच हो जाये। तुम अमीरजादे जीते तो पटौदी बढ़िया और हम फुकरों की टीम जीती तो सरदेसाई टॉप पर।
नदिया किनारे मैदान में मैच हुआ। नम पिच पर सरदेसाई टीम की ज़बरदस्त हार हुई और पटौदी की जीत। यों उन्हें जीतना ही था। उनकी क्रिकेट कोचिंग बढ़िया थी, उनके हरेक सदस्य की किट में बढ़िया बैट, ग्लव्स, पैड आदि है और हमारे पास कुछ नहीं, ठन ठन गोपाल। कपडे धोने वाले सोटे को बैट बना कर क्रिकेट खेलना सीखे थे। न बैट खरीदने के लिए पैसे होते थे और न गेंद के लिए। चंदा करके बामुश्किल काम चलता था। ईटों की विकेट बनाते थे। खेलते कम थे और झगड़ते ज्यादा थे।