Tuesday, August 30, 2016

जब नायिका पर कर दिया मुक़दमा

-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर है 'नया दौर'। आज़ादी के बाद का भारत मशीन युग में प्रवेश कर रहा है। लेकिन साथ में फ़िक्र भी है कि इंसान की बनाई मशीन ही इंसान को पंगु न कर दे। करनपुर नाम था उस कस्बे का। पचास का दशक। एक टिंबर मिल है। सैकड़ों लोगों की रोज़ी-रोटी उस कारखाने के भरोसे चलती थी। दूसरा बड़ा व्यवसाय है तांगा। रेलवे स्टेशन से सबको ढोता फिरता है। हिंदू-मुस्लिम दोनों की मिलीजुली खुशहाल संस्कृति। खूब मौज-मस्ती है और गाना-बजाना भी। उड़ें जब जब ज़ुल्फ़ें तेरीं...ये देश है वीर जवानों का...
तभी शहर से आया पढ़ा-लिखा विलेन, आरा मशीन ले आया। सैकड़ों लकड़हारे बेकार हो गए। फिर अचानक एक और मुसीबत आई। स्टेशन से यात्रियों को ढोने के लिए लॉरी आ गयी। सस्ती और तेज सवारी। तांगेवाली बिरादरी भी बेकार हो गयी। बस्ती खाली हो गयी। नायक ने विलेन से कहा - क्यों हम गरीबों के पेट पर लात मारते हो बाबू? विलेन ने कहा -  ठीक है। हम लॉरी हटा लेंगे। शर्त है कि अपने तांगे को लॉरी से आगे ले जाओ। नायक चैलेंज कबूल करता है। नायक के फैसले का गांव वाले विरोध करते हैं। लेकिन नायक अकेला ही निकलता है। धीरे-धीरे सब एक के बाद एक उसके साथ लोग जुड़ते जाते जाते हैं। साथी हाथ बढाना साथी रे... कुछ मुसीबतें प्रकृति ने खड़ी की और कुछ इंसान ने। आख़िरकार रेस शुरू हुई। हॉलीवुड की 'बेनहर' की चेरियट रेस के समकक्ष। तमाम दिल दहला देने वाले मोड़ों से गुज़रती इस रेस में अंततः नायक की ही जीत हुई। नायक हक़ मांगता है। हमें मशीन से कोई बैर नहीं बाबू। हम बस इतना चाहते हैं कि आपकी जेब भी भरती रहे और हम गरीबों का पेट भी।

फिल्म की स्क्रिप्ट में कई झोल थे। फिल्म मेकिंग की यात्रा भी उतनी ही कष्टप्रद रही। एक के बाद एक मुसीबतें। मशीन से सबका भला हो। इस भावना से ओत-प्रोत स्क्रिप्ट लेकर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर बीआर चोपड़ा पहुंचे अपने पसंदीदा हीरो और मित्र अशोक कुमार उर्फ़ दादामुनि के पास। उन्होंने बड़े ध्यान से कहानी सुनी। बहुत अच्छी है स्क्रिप्ट। शानदार फिल्म बनेगी। लेकिन ईमानदारी की बात है कि हीरो के रोल में दिलीप और सिर्फ दिलीप ही फिट होंगे। चोपड़ा साहब के मन में खटका उठा। ऐसा तो नहीं कि दादामुनि को स्क्रिप्ट बेदम लगी है। दादामुनि ने दिलीप कुमार को फ़ोन भी किया। युसूफ मेरा तजुर्बा कहता है कि बहुत शानदार फिल्म बनने जा रही है। ज़बान दे चुका हूँ, न मत करना। दादामुनि तो दिलीप कुमार के लिए बड़े भैया थे। उन्होंने हां के साथ एक शर्त लगा दी। साल में दो फ़िल्में करने का उसूल है मेरा। एक साल तक इंतज़ार करना होगा। चोपड़ा ने कहा कि ठीक है। दिलीप ने सोचा कि बलां टली। लेकिन चोपड़ा का किस्मत ने साथ दिया। दिलीप कुमार की एक फिल्म रद्द हो गयी। चोपड़ा का ऑफर स्वीकार कर लिया। 
बहुत अच्छी परंपरा थी उस दौर की कि जूनियर फिल्ममेकर अपने सीनियर से भी डिस्कस किया करते थे। चोपड़ा पहुंचे महबूब खान के द्वार। महबूब साहब ने स्क्रिप्ट सुनी और दो टूक फैसला दिया। बहुत शानदार डॉक्यूमेंट्री बन सकती है, मगर फिल्म नहीं। और युसूफ के लिए तो कुछ है ही नहीं। उसका टैलेंट वेस्ट होगा। लेकिन चोपड़ा हताश नहीं हुए। ज़िद्दी बहुत थे वो। फिल्म शुरू कर दी। कई एक्सपर्ट ने राय दी कि चोपड़ा ने पैर पर कुल्हाड़ी चला दी है।

तू न बदला।

- वीर विनोद छाबड़ा
यूनिवर्सिटी में जब हम शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो हमारी कक्षा में ढेर लड़कियां थी। हम लड़कों से भी अधिक। दिन भर चेंचें करती थीं। सेशन ख़तम। तू अपने घर और मैं अपने। 

लेकिन, कुछ कमबख्त तो कुछ के दिल का चैन ले गयीं। ग्रुप फोटोग्राफ से भी ज्यादातर ने किसी न किसी कारण से हिस्सा लेने से मना कर दिया। हमारे एक मित्र तो बिगड़ गए। लड़कियों के बिना ग्रुप फोटोग्राफ का भला क्या मतलब? किसे देख के कर जियेंगे। चूंकि वो खुद ही आयोजक थे, लिहाज़ा आयोजन ही कैंसिल हो गया।
हम तो सेशन ख़तम होने के बाद भी डिवीज़न बनाने के चक्कर में पढ़ते रहे। उसी दौरान हमें नौकरी मिल गयी। लेकिन फिर भी हम दो साल तक मॉर्निंग क्लासेज अटेंड करते रहे। एक और एमए कर लिया। फिर अज़ीज़ आ गए। इधर ऑफिस की ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ गयीं। शाम को हज़रतगंज में टहल कर जी बहलाने लगे।
यूनिवर्सिटी वाली तो बहुत दिखती थीं, लेकिन अलग-अलग अवसरों पर सहपाठिनियां दो ही दिखीं। अचानक ही सामने पड़ गयीं। उन्होंने हमे देखा और हमने उनको। लेकिन दोनों ही विवाहित और पति के साथ। उनमें एक तो गर्भवती भी थी। ऐसे में हमने वही किया जो हमें एक भद्र पुरुष होने के नाते करना चाहिए था। हम कन्नी काट गए। शायद वो भी यही चाहतीं थीं, क्योंकि उन्होंने हमें देख कर पति की आड़ लेने का प्रयास किया। कुछ समय बाद हमारा भी ब्याह हो गया। कुछ दिन तक पत्नी के साथ हज़रतगंज टहले और फिर इधर-उधर देखने के इलज़ाम लगने पर सब बंद हो गया।
यह एक संयोग था कि अस्सी के दशक के प्रारंभ हमारी दो सहपाठिनें हमारी सहकर्मी बन गयीं। हम हेडक्वार्टर में तो वो जोनल ऑफिस में। किसी न किसी काम से वो आया करती थीं हेड ऑफिस। काम हुआ और चली गयीं। जाने क्यों अक्सर पूछा करती थीं कि तुम रिटायर कब होगे? हम टाल देते थे। हमारे रिटायरमेंट पर तुम्हारा प्रमोशन तो होना नहीं?
कुछ साल बाद दोनों ही हमसे पहले ही रिटायर हो गयीं। सठियाई हुईं स्पष्टीकरण देने लगीं - क्या करें पिताजी ने उम्र ही गलत लिखा दी थी वरना चार-पांच साल तो नौकरी ज्यादा करते ही। 

Sunday, August 28, 2016

हमारे जंगल हमें लौटा दो।

-वीर विनोद छाबड़ा
पिछले कई महीनों से मुल्क के कई शहर वानर उत्पात की ज़़बरदस्त चपेट में है। जनता बेहाल-परेशान है। परंतु तमाम मोहल्ला सुधार समितियां और प्रशासन खामोश हैं। बजरंगबली की वानर सेना के विरूद्ध डायरेट एक्शन लेने से भय लगता है, उनसे ज्यादा उनके मानव भक्तों से। ऐसी विषम स्थिति में बंदे का पशु-पक्षी के प्रति प्रेम जाग्रत हुआ। अनेक वानर समूहों से बात की और उनकी चाहतों की गहन स्टडी की। और एक रिपोर्ट तैयार की। इसके चुनींदा अंश वानर समाज की जुबानी मानव जाति के सम्मुख विचारार्थ प्रस्तुत किये।
हम वानर शरारती हैं, हमारी धमा-चौकड़ी से आपका खासा नुक्सान होता है। ये हमारा पैदाइशी गुण है। आखिर आपके पूर्वज जो ठहरे। हमारे बच्चों को आपके बच्चों की तरह छतें और दीवारें चढ़ने-फलांगने में मज़ा आता है। फ़र्क ये है कि आप अपने बच्चों को डांटते-डराते हो। ये क्या बंदरों की तरह उछल-कूद रहे हो? चोट लग जाएगी। लेकिन हम सयाने और बुजु़र्ग वानर शांत और गंभीर मुद्रा में अपने बच्चों को खेलता देख आनंदित होते है। अपना बचपन याद करते हैं। हम साथियों की जूएं चट कर ज़रूरी प्रोटीन और विटामिन हासिल करते है। गहन चिंतन भी करते है कि क्या कभी ऐसा समय आएगा जब हम राजा होंगे और आप प्रजा। आप ही लोगों के मुंह से सुना है कि दूसरे कई ग्रहों पर हम राजा है। हालीवुड में इस पर कई फिल्में भी बन चुकी हैं। कल रात भी किसी चैनल पर प्लेनेट आॅफ दि ऐप्सचल रही थी।
शुक्र है हमारी ज़िंदगी में सकून है। न कमाने की चिंता है और मंहगाई का रोना। न आरक्षण। न हिंदू-मुसलमान। ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम...। इंडिया गेट और  जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन करके वक़्त की बर्बादी भी नहीं। सरकार किसी की भी हो, हमें कोई परेशानी नहीं। चिंता है तो बस यही कि मानव जाति सलामत रहो। मंदिरों पर भरपूर चढ़ावा बदस्तूर आता रहे ताकि हमारे खाने-पीने में कभी कोई कमी नहीं आए।
आपकी तरह हमारी जिंदगी का भी ढेर सारा हिस्सा आपस में लड़ने-झगड़ने में गुज़रता है। हम पलट कर हमला तभी करते है, जब आप हमें छेड़ते या मारते हैं। न मांगूं सोना-चांदी न मांगूं हीरा-मोती। बस पेट भरने के लिए हम दूसरों की पकी-पकाई मेहनत पर हाथ साफ करते है। लेकिन आप तो हमसे कई कदम आगे हो। चोरी-डकैती और हत्या के साथ-साथ पासवर्डहैक करके एटीएम और बैंकों से भी खून-पसीने की गाढ़ी कमाई पल भर में ले उड़ते हो।
आपका अनुकरण करने में भी हम अव्वल है। हम फ्रिज खोल सकते है। पंखा-बत्ती आफ-आन कर सकते हैं। रूठी पत्नी को भी मना लेते हैं। आखिर आप मदारी और हम नकलची जो ठहरे। हमें आप नकलची बंदर कह कर नाहक बदनाम करते है। जबकि आप खुद हमसे बड़े नकलची हो। पड़ोसी की नकल करके ईएमआई पर कार क्रय करते हो। 

Saturday, August 27, 2016

डरपोक!

- वीर विनोद छाबड़ा
वो हमारे पडोसी और अच्छे मित्र हैं। मुलाक़ात अक्सर होती है उनसे। पहले तो बहुत ठीक थे। प्रगतिशील विचारों वाले। स्त्री सशक्तिकरण के धुरंधर समर्थक। कुप्रथाओं के घनघोर विरोधी।

परंतु इधर कुछ दिनों से हम उनमें बदलाव देख रहे हैं। कुछ कुंठित से हैं और विचारों में दकियानूसीपन भी झलकता है। धार्मिक समारोहों में जाने की निरंतरता और उत्कंठा बढ़ रही है। पहनावे में भी एक धर्म विशेष के अनुयायी दिखने लगे हैं।
उनके गले में तावीज़ मैं मुद्दत से देख रहा हूं। लेकिन कुछ दिनों से कलाई और बाहों में भी तावीज़ बंधी दिखती है। और तो और दोनों पैरों में भी। कहते हैं क़ि तावीज़ हमारी पारिवारिक परंपरा है।
लेकिन अंदर की खबर रखने वाले ने बताया कि हुज़ूर कमर में भी दो अदद बांधे हैं। जिस पलंग पर सोते हैं उसके चारों पायों में भी कुछ बंधा है। स्कूटर और कार भी अछूते नहीं हैं। गेट पर भी कुछ लटका है। ड्राइंग रूम में टंगी बंदूक के साथ अब क़मर में भी अस्सी हज़ार की पिस्तौल बंधी है।
कल शाम हमें गली के मोड़ पर मिल गए। हमसे रहा नहीं गया। पूछ ही लिया - आपको किससे डर है? यहां सड़क इंसान के अलावा छुट्टा कुत्ते और गौ-माता बेशुमार हैं। किसी-किसी चौराहे पर सांड भी विचरते हैं। बंदरों का उत्पात भी जग ज़ाहिर है। बेतरतीब दौड़ते दो पहिया और चार पहिया वाहन भी बहुत हैं। इनमें सबसे ज्यादा शैतान कौन है? मृत्य से डरते हो? अरे वो तो निश्चित है। कोई दावा नहीं कर सकता कि कब शरीर काम करना बंद कर दे। नियति में लिखा कोई नहीं पढ़ पाया।
बड़ी शांति से वो दस मिनट तक का हमारा धाराप्रवाह ओजस्वी प्रवचन सुनते रहे। हमने प्रभु की लीला को भी धन्यवाद दिया कि किसी ने हमें निरंतर इत्ती देर तक सुना।
फिर वो ठिठक गए। और हम भी। हमारी ओर मुख़ातिब हुए। हमें घूरा। दोनों कंधे उचकाये। सर हिलाया। फिर सर को थोड़ा हमारे करीब लाये। हमारे दोनों कंधे मज़बूती से पकड़े। हमारी आंखों में झांका। और धीरे से बोले - आपको किस बात की फ़िक्र? मकान भी मिल जाये और दुकान भी। और नौकरी भी। सरकारी और ग़ैर-सरकारी दोनों। हमारे लिए तो अब कुछ भी नहीं बचा।

Friday, August 26, 2016

जब राजकपूर बोले, 'मेरी तो आवाज़ ही चली गयी'

-वीर विनोद छाबड़ा 
२७ अगस्त, अमेरिका का एक शहर। गीत-संगीत के चाहने वालों के बीच उस दिन मुकेश जी को परफॉर्म करना था। वो सुबह उठे। नहाने के बाद वो बाहर आये। दिल में दर्द उठा। गिर पड़े। फ़ौरन अस्पताल ले जाया गया। हर कोई यही सोच रहा था कि बेहोश हैं। डॉक्टर कोई इंजेक्शन देगा, उठ कर बैठ जाएंगे। मगर बहुत बड़ा झटका लगा। डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। यकीन न आने वाली ख़बर। किसी की कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। लेकिन परंपरा का निर्वाह तो करना है। शो जारी रहे। लता जी ने उस दिन गाया और मुकेश जी के बेटे नितिन मुकेश में भी।
मुकेश चंद्र माथुर का फिल्मों में आना दिलचस्प घटना है। वो अपनी बहन की शादी में सहगल की नकल कर रहे थे। दूर के रिश्तेदार मोतीलाल उसी समारोह में मौजूद थे। उन्होंने उस आवाज़ को सुना। हैरान हुए कि सहगल यहां कैसे? पलट कर देखा तो स्टेज पर एक नौजवान को पाया। वाह! इतनी परफेक्ट नक़ल! यह ज़रूर बड़ा सिंगर बनेगा। मोतीलाल बड़े एक्टर थे। वो उन्हें बंबई ले आये। पंडित जगन्नाथ प्रसाद ने उनकी आवाज़ को संवारा। उन दिनों सिंगर को एक्टर होना या एक्टर को सिंगर होना निहायत ज़रूरी था। लिहाज़ा मुकेश का फ़िल्मी सफ़र एक्टिंग से शुरू हुआ। उनकी पहली फ़िल्म थी निर्दोष (१९४१). 
Mukesh 
 
उन दिनों कुंदन लाल सहगल की सेहत अच्छी नहीं चल रही थी। संगीत की दुनिया में असमंजस्य की स्थिति थी। सहगल की जगह कौन लेगा? क्या दूसरा सहगल पैदा होगा? ऐसे ही फ़िक्रमंद माहौल में संगीतकार अनिल विश्वास मुकेश को ले आये- बोले यह है हीरा। मुकेश ने पूरे विश्वास से और दिल की गहराईयों से गाया - दिल जलता है तो जलने दो....(पहली नज़र-१९४५).  जिसने सुना उसे लगा वाकई सहगल का विकल्प मिल गया है। सहगल जैसा ही दर्द है। दिल की गहराइयों से गाया है। यह एक संयोग है कि यह गाना मुकेश को दिल्ली से लेकर आये मोतीलाल पर फिल्माया गया।
बहरहाल, मुकेश की असल परीक्षा बाकी थी। यह गाना सहगल साहब को सुनाया गया। सहगल ने बड़े ध्यान से गाना सुना और फिर पूछा - मैंने कब गाया यह गाना? लेकिन मुकेश नहीं चाहते थे कि दुनिया उनको सहगल की नक़ल या उनके क्लोन के रूप में याद करे। उन्होंने रियाज पे रियाज किये। दिन रात एक कर दिया। ताकि सहगल से अलग अपना मुक़ाम बना सकें। इस बीच सहगल साहब दिवंगत हो गए। मैदान खाली था। मगर मुकेश ने कभी दावा नहीं किया कि सहगल के 'बड़े शून्य' को भर देंगे।
Rajkapoor & Mukesh
मुकेश ने सहगल से अलग अपनी दुनिया बसायी। इसमें उनका साथ दिया नौशाद ने। उन्हें तराशा। 'मेला' और 'अंदाज़' में मौका दिया। दिलीप कुमार की आवाज़ बने। दिलीप को तो वो इतना भाये गए कि उन्हें अपनी स्थाई आवाज़ बनाने का फैसला किया। लेकिन इस बीच राजकपूर ने उन्हें अपनी आवाज़ बना लिया। यहां से मुकेश ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनकी अपनी पहचान बनी। लेकिन फिर भी बरसों तक संगीत प्रेमी मुकेश को सहगल की 'छाया' से बाहर देखना गवारा नहीं कर पाए। कारण था कि  सहगल जैसा दर्द सिर्फ़ मुकेश के स्वर में ही झलकता था।

Thursday, August 25, 2016

अक़्ल बड़ी या भैंस से बंदूक बड़ी या कलम तक!

- वीर विनोद छाबड़ा
अक़्ल बड़ी या भैंस? बचपन से सुनते आये हैं। सबको मालूम है कि अक़्ल ही बड़ी है। फिर भी बहस जारी है। अच्छी तरह ये ये मालूम होते हुए भी कि अंततः अकल ही जीतेगी। लेकिन उल्टी गंगा बहाने में माहिर आशावादी कवायद में लगे है। वो सुबह कभी तो आयेगी जब भैंस अक़्ल से बड़ी कहलायेगी। ये बात तब पुख्ता हुई जब एक मंत्री जी की भैंसे चोरी हो गयी और सारा महकमा लाखों रुपये की अक़्ल खर्च कर भैंसे ढूंढ़ लाया। अरे जितने रुपये भैंस ढूंढ़ने में अक़्ल पर खर्च कर दिये इतने में खोयी भैंसों से ज्यादा भैंसे जातीं। बहरहाल, सत्य की जीत हुई।
अब वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य देखिये। चैनल पर खबर ठीक से सुनी, देखी और लाईनों के भीतर देखने की कोशिश की। सिर्फ फोटो बाईट देखा और उत्तेजित हो गये। चल पड़े लाठी-डंडा उठा कर मैदान में दो-दो हाथ करने। जैसे दिखाने-सुनाने वाले वैसे ही देखने-सुनने वाली पब्लिक पैदा हो गयी है। कोई दहाड़-दहाड़ कर खुद को सुनामी बता रहा है तो कोई राबिनहुड की तरह भष्टाचार और अपराध को झाड़ू से बुहारने का बात कर रहा है। ये देख-सुन कर बंदे का दिल वेदना से बहुत भीतर तक कराह उठता है। वो ज़माना देखा है उसने जब कहा जाता था कि झूठ बोलना पाप है। इस सामाजिक मूल्य पर प्रहार करने वाले को निरा मर्ख माना जाता था, हिकारत का पात्र घोषित कर दिया जाता था। ऐसे ही  चोरी अपराध है। अब देखिये कैसी उलटी गंगा बह चली है। मूल्य पलटे जा रहे है। कोई वेल्यू ही नहीं रही। लड़का ऊपर से कितना कमा रहा है? खुले आम पूछा जा रहा है। पहले इस ऊपरली कमाई पहले बड़े डर डर कर टेबुल के नीचे से ली जाती थी। अंडरहैंड डील।

ज्ञान चक्षु खोलने के लिये बड़े बड़े संत महात्मा पैदा हो रहे है। अरे बाबा रे, ज्ञान का विपुल भंडार हर व्यक्ति के भीतर पहले से मौजूद है, बस तनिक झांक कर देखिये तो। कोई चैलेंज करने की गुस्ताखी नहीं कर सकता था। मगर ये भी अब बिकाऊ हो गया। बेचने वालों की एक छोटी सी ज़मात फिलहाल जेल में चक्की पीस रही है। मगर पब्लिक है कि मानती नहीं। उन्हें यकीन है कि भगवान सलाखों के पीछे ज्यादा दिन नहीं रह सकते। कृष्ण जी भी बाहर आये थे, कितना आंधी-तूफान था। जमुना जी पूरे ऊफान पर थीं। कलयुग जायेगा। देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कि कितना बदल गया इंसान। भगवान को सलाखों के पीछे डाल दिया है।