Monday, May 9, 2016

बूंद बूंद भरती बोतल!

- वीर विनोद छाबड़ा
बंदे को साठ के दशक का वो ज़माना याद है। देश में था भयंकर सूखा। बूंद बूंद पानी को तरसते लोग। परंतु सामाजिक रिश्ते बहाल रहे। जब मन हुआ, मुंह उठाया और चले गए पड़ोस में। चिपके रहे। गुड़ की डली के साथ भरपेट पानी हलक के नीचे उतार कर ही लौटे।

आज फिर वही परिस्थितियां हैं। लेकिन बंदा तनिक भी व्यथित नहीं है। मौका है मौका, बचपन के अनुभव आज़माने का। पड़ोसियों, मित्रों और रिश्तेदारों के घर विजिट करने की सारिणी बनाई। मगर सामाजिक मूल्य बदले मिले। अतिथि देवो भवः की भावना टोटली विलुप्त। पड़ोसी के घर घंटों बैठे रहे। नाशुक्रों ने पानी तक न पूछा। चाय तो बहुत दूर की बात हुई। दूर के एक संबंधी के घर दस मील गए। सौ रूपये का पेट्रोल फुंका। पहुंचे नहीं कि बता दिया कि आज दिन भर मुई बिजली नहीं रही। सो पानी भी नहीं। एक बोतल बच्चों के लिये बचा रखा है। बंदा समझ गया कि आज की पब्लिक अपेक्षा से कहीं अधिक स्टार्ट-अप और स्मार्ट मोड में है। इधर सरकार भी जागी है। पानी बचाने की अपीलें कर रही है।
बंदे में भी समाजसेवा का भूत चढ़ा। सलाह दी कि जंकफूड को तिलांजलि दो और सादा भोजन अपनाओ। ताकि पेट खराब होने पर बार-बार टायलेट जाकर पानी न गिराना पड़े। दफ्तर वाले दफ्तर का टायलेट यूज़ करें और यदि व्यवस्था हो वहीं स्नान भी कर लें। गर्मियों में स्कूटी, बाईक या कार पर बैठ कर नहायें, एक पंथ दो काज। घरेलू बगिया और गमलों के बीच खड़े होकर स्नान करें तो मुफ़्त की सिंचाई। नदिया तीरे ने जायें। डूबने का खतरा है।
शीत ऋतु का आगमन दीवाली से होली तक मानें। स्नान सप्ताह में दो बार। ज्यादा ज़रूरत पड़े तो साप्ताहिक कर दें। और अगर हालात बेकाबू हों तो स्पंज स्नान भी चलेगा।
बूंद-बूंद से सागर भरता है। जगह-जगह से बूंदें जमा करें और जितनी बाल्टियां, ड्रम, लोटे, पतीले, गिलास, बोतलें हैं, सब भर डालें। शीशी तक न छोड़ें। विवाह आदि समारोहों में तो बोतल में पानी मिलता है। झोला साथ रखें। तीन-चार बड़ी खाली बोतलें भी साथ ले जायें। राजधानी या शताब्दी से मेहमान आ रहे हों तो उनसे कह दें कि बोतलें बटोर लें। कई लोग आधा पीकर बाकी छोड़ देते हैं। पार्टी-शार्टी में जाने से पहले स्नान वर्जित करें। फ्रांसिसीयों की तर्ज़ पर शरीर की बदबू परफ्यूम से दूर करें।
बंदे की पानी बचाओ की मनवांछित स्कीम औधें मुंह गिर पड़ी। कोई मानने को तैयार नहीं हुआ। जगहंसाई अलग से हुई। एक साहब ने परामर्श दिया कि मनोचिकित्सक को दर्शन दूं। परिचित देखते ही कन्नी काटने लगे। पत्नी-बच्चों ने खाली दिमाग शैतान का घर करार दिया। पड़ोस का किवाड़ खटखटाया तो बच्चे ने कहा - पापा, निठल्ले अंकल आये हैं।

लेकिन बंदा फिर भी हताश नहीं है। मुकाबले के लिये खुद ही पहल करने की ठानी। बूंद-बूंद से समुद्र भरता है। अकेला चलेगा। लोग साथ होते जायेंगे। कारवां बनता जाएगा। हम होंगे कामयाब एक दिन।

मगर दो ही दिन बाद बंदे की समझ में आ गया कि वो किसी मजबूत सीमेंट कंपनी की दीवार से सिर टकरा रहा है जिसमें दीवार में छेद नहीं हुआ अपितु खुद का नुक्सान हो रहा है।
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Published in Prabhat Khabar dated 09 May 2016
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