Tuesday, May 31, 2016

हज़रतगंज अब भी शान है!

- वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था हज़रतगंज हमारे शहर लखनऊ की शान थी। हर शख्स बड़ी इस्त्री किये कपड़ों में बड़ी नफ़ासत से टहलता था। गुफ्तुगू हौले-हौले हुआ करती थी।  हम भी शाम को घंटों शंटिंग किया करते थे। कभी दोस्तों के साथ और कभी अकेले ही। यह बात १९६५ के है। तब हम हाई स्कूल में हुआ करते थे। मद्रास मेस में चवन्नी का मसाला डोसा और मेफेयर बिल्डिंग के नुक्कड़ पर चौधरी कूल-कार्नर पर चवन्नी का लोकल सेवन अप। इससे ज्यादा पैसे नहीं हुआ करते थे। सब कंट्रीब्यूटरी हुआ करता था। कभी पांच-दस पैसे किसी के पास कम होते तो मिल कर पूरा कर लेते। मिलने के दो अड्डे थे। प्रिंस-फ़िल्मिस्तान या मेफेयर।
उस ज़माने में मेफेयर के सामने बीच सड़क में कार पार्किंग हुआ करती थी। एक वक्त में ज्यादा से ज्यादा शायद पंद्रह-बीस कार खड़ी हो पाती थीं। मेफेयर बिल्डिंग में शहर का एकमात्र एयर कंडीशन सिनेमा, जहां अधिकतर अंग्रेज़ी फिल्मों की स्क्रीनिंग होती थी। उसी बिल्डिंग में क्वालिटी रेस्तरां और ऊपर ब्रिटिश कौंसिल लाइब्रेरी। यह सब अंग्रेज़ीदां इलीट और अरिस्ट्रोक्रैट क्लास की पहचान थी। गुरबों, मुफलिसों और फुकरों के नसीब में यह सब नहीं था।
हमारी पांच ख्वाइशें होती थीं। एक, हम अपनी कार मेफेयर के सामने पार्किंग में खड़ी करें। दो, बॉलकनी का टिकट खरीदें। तीन, इंटरवल के दौरान कॉरिडोर में क्लिंट ईस्टवुड के विशाल पोस्टर के सामने खड़े हों, सिगरेट होंटों के किनारे दबी हो, हल्का-हल्का धुआं निकल रहा हो और हम चबा-चबा कर अंग्रेज़ी बोल रहे हों। चार, फ़िल्म ख़त्म होने के बाद क्वालिटी रेस्तरां में बढ़िया डिनर लें और पांच, ब्रिटिश लायब्रेरी के मेंबर हों।

Monday, May 30, 2016

लौकी ले लो की गुहार

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे बहुत अच्छे पडोसी हैं प्रभुजी। अक्सर सुबह-सुबह आ धमकते हैं, ठीक चाय बनने से पहले। बहाना होता है, अख़बार देखने का या कोई चटपटी ब्रेकिंग न्यूज़। यों पुराने पत्नी पीड़ित हैं। आज भी आये। पिछले कुछ महीनों से इंटरनेशनल मुद्दे उनकी ख़ास पसंद हैं।
स्वयं को बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुनिया की हर समस्या का हल चुटकी बजाते पेश कर देते हैं। लेकिन अफ़सोस उनकी सुनता कोई नहीं। व्लादिमीर पुतिन और बराक ओबामा तो मानों उनके  लंगोटिया यार हैं। लेकिन प्रभुजी आज न फ्रांस पर रुके और और न ईरान पर टिके। फटाफट नेशनल, आईपीएल से होते हुए मोहल्ले पर आ गए। पल-पल में स्टेशन बदलते रहे।
हमें लगा कुछ खास शेयर करना चाह रहे हैं। लेकिन तनिक झिझक रहे है। संशय है कि प्रॉपर रिस्पांस मिलेगा या नहीं।
इधर हम भी आज असहज हैं। सुबह-सुबह मेमसाब से चिक-चिक हो गई। इसीलिए हम चाह रहे थे कि प्रभुजी जल्दी से मूल मुद्दे पर आयें और फिर फ़ौरन से पेशतर दफ़ा हो जायें। हमें बस कोई अचूक बहाने की तलाश थी कि प्रभुजी अचानक सब्जीमंडी पहुंच गए। अच्छा, ये बताइये लौकी के बारे में आपके क्या विचार हैं?
हम पर मानों पर बिजली आ गिरी। अभी कुछ पल पहले ये शख्स इंटरनेशनल रिलेशन पर बात कर रहा था। वो एकाएक सब्जी-तरकारी जैसे लो लेवल के लोकल मुद्दे पर क्योंकर उतर आया? बात समझ में नहीं आई। ये तो पहेली हो गई। हमें विश्वास हो गया कि हो न हो प्रभुजी के घर में किसी की तबियत ख़राब है। 
मगर प्रभुजी ने तनिक झेंपते हुए खंडन किया। बिलकुल नही। बस ऐसे ही मन में ख्याल आया तो पूछ लिया।
हमने गहरी सांस ली। कई बार पढ़ा है। ये बहुत ही गुणकारी है। हज़ारों साल से ऋषि-मुनि भी यही खाते आ रहे हैं। सब्जी, रायता, हलवा, पकौड़े, सब्ज़ी क्या-क्या नहीं बनता इसका। तमाम विधियां हैं बनाने की। लेकिन हमारे घर में दो कारणों से बनती है। पहला, हमारी तबियत ख़राब हो और दूसरा मेमसाब नाराज़ हों। इसे खाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। और आज यही बनेगी। मेमसाब का मूड जो ख़राब है।
ये सुनते ही प्रभुजी उछल पड़े। यारा, मेरे घर में भी यही प्रॉब्लम है। इन फैक्ट, मैं तो ये पूछने आया था कि तेरे घर कुछ अच्छा बना हो तो एक कटोरी दे देना।

Sunday, May 29, 2016

आई-टॉनिक पत्रिका।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक बुज़ुर्ग अधिकारी हुआ करते थे - बड़े साहब। दुबले पतले और छोटे कद के। सर पर बाल कम और आंखों पर पतले फ्रेम का आधा चश्मा। वज़न होगा महज़ ४५-४६ किलो का। पतलून बार-बार नीचे सरकती रहती। लोग कहते थे, कमर हो तो टिके न।

उम्र भी उनकी हो चली थी। दो साल बाद रिटायरमेंट था। लेकिन हमें लगता था कि इससे पहले ही वो दुनिया से कूच फ़रमा जायेंगे। सिगरेट हमेशा मुट्ठी में दबा कर पीते थे। धुरंधर अंग्रेजी भी बोलते थे। हमने उन्हें हमेशा फाईलों में गुम पाया। घर से आने-जाने के लिए एक अदद मोपेड थी - विक्की-२. यह किक से स्टार्ट हुआ करती थी।
सत्तर के दशक का मध्य था वो दौर। हमारे ऑफिस में कुल जमा तीन दो पहिया वाहन ही हुआ करते थे। उसमें यह विक्की भी थी। बहरहाल, बड़े साहब को हमने हमेशा चलती हुई विक्की पर पाया। ऑफिस पहुँचते तो चपरासी विक्की संभाल लेता। वही बंद करता और शाम को स्टार्ट करके बैठा देता। उधर घर में बेटा गाड़ी पर बैठा देता। उन्हें किक मारना मना था। एक ही किक में हांफ जाते। एक दिन सांस गले में अटक गई थी। बड़ी मुश्किल से लौटी थी। 
हम अक्सर सोचा करते थे कि अगर इस बीच तेज़ आंधी-तूफ़ान आ गया तो क्या होगा? हलके-फुल्के बड़े-साहब तो उड़ ही जाएंगे। लेकिन हमारी इस आशंका को एक सीनियर ने दूर कर दिया। इनकी विक्की के अगल-बगल दो बैग लटके दिखाये। हर बैग में दो-दो ईंट रखी हुई थीं।
एक दिन हमें पे-सर्टिफिकेट की ज़रूरत पड़ी। संबंधित बाबू ने बना कर हमें थमा दिया। बड़े साहब से दस्तखत खुद ही करा लो। लंच का टाईम था और हमें थोड़ी जल्दी थी। और फिर जवानी का जोश। घुस गए हम उनके कमरे में। फ़ाईलों के ढेर के बीच से उठता धुंआ उनकी मौजूदगी का अहसास करा रहा था। हम क़रीब गए तो देखा बड़े-साहब कुर्सी पर चौकड़ी मार कर बैठे हैं और उनकी गोद में एक 'रंगीन तस्वीरों' वाली पत्रिका है। वो बड़ी तल्लीनता के साथ मुस्कुराते हुए नज़रें गड़ाए उन्हें निहार रहे थे।

Saturday, May 28, 2016

बेमिसाल दोस्ती।

-वीर विनोद छाबड़ा 
फिल्मों में प्रवेश से पहले गुरूदत्त कलकत्ता की एक विदेशी कंपनी में टेलीफोन ऑपरेटर थे। १९४४ में उन्हें पुणे की प्रभात फिल्म कंपनी में मनपसंद का काम मिला - नृत्य निर्देशक का। फिल्म का नाम था - हम एक हैं। उन दिनों देवानंद भी स्ट्रगल कर रहे थे। प्रभात उन्हें इस फिल्म में हीरो का ऑफर दे दिया।

उसी दौरान एक दिलचस्प वाक़या हुआ। गुरू के कपडे जिस लांड्री में धुलते थे वहीं का लाभ देवानंद भी उठाया करते थे। दोनों हम उम्र और कद काठी भी तकरीबन एक सी हुआ करती थी।
एक दिन क्या हुआ कि देवानंद लांड्री पहुंचे। उन्हें अपनी अच्छी वाली शर्ट नहीं मिली। बल्कि उसके बदले एक साधारण सी शर्ट दिखी। शूटिंग में देर हो रही थी। देव ने वही शर्ट पहनी और जल्दी से शूटिंग पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक साहब उनकी जैसी शर्ट पहने पहले से मौजूद हैं। करीब गए तो पाया यह उन्हीं की शर्ट है। स्पॉट ब्यॉय ने बताया उसका नाम गुरूदत्त है और इस फिल्म के डांस डायरेक्टर भी यही है। बहुत ही साधारण शक्ल-सूरत के इंसान थे गुरुदत्त। वेश-भूषा के मामले में भी बहुत सलीकेदार नहीं थे। जो मिला पहन लिया। यह सोच कर कतई परेशान नहीं होते थे कि यह किसका है?
देव ने गुरू से पूछा - मिस्टर, आपको यह शर्ट कहां मिली? यह तो मेरी है।
Devanand
गुरू ने बिना झिझक बताया - भाई, यह शर्ट मेरी नहीं है। आज सुबह लांड्री गया। जल्दी स्टूडियो पहुंचना था। यह अच्छी लगी तो उठा ली। सोचा शाम को वापस कर दूंगा। अब अगर आप चाहें तो अभी ले सकते हैं।  
देवानंद गुरू के सादगी और साफ़गोई पर फ़िदा हो गए। गुरू को गले लगाया और बोले - दिलचस्प आदमी हो।  दोस्त, जब कभी मैं फ़िल्म कंपनी बनाऊंगा तो पहली फिल्म के डायरेक्टर तुम्हें बनाऊंगा। गुरू ने भी छूटते ही वादा किया - मैं भी जब पहली फिल्म प्रोड्यूस और डायरेक्ट करूंगा तो मेरे हीरो तुम होगे।
बात आई गयी हो गई। फ़िल्म लाईन में ऐसे मज़ाक चला करते हैं। लेकिन गुरुदत्त और देवानंद में दोस्ती की मज़बूत नींव ज़रूर पड़ गयी।
कई बरस गुज़र गए। पुणे की प्रभात कंपनी बंद हो गई। गुरुदत्त और देवानंद बंबई आ गये। देवानंद की गाड़ी यहां बढ़िया चलने लगी। जबकि गुरूदत्त गर्दिश के दिनों से बाहर नहीं निकले थे। वो उन दिनों निर्देशक अमिया चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी के सहायक हुआ करते थे। कुछ दिनों बाद देवानंद ने नवकेतन की नींव रखी। उन्हें गुरू को और उनसे किये वादे की याद आई। तुरंत गुरू तलाश किया और 'बाज़ी' का डायरेक्शन सौंप दिया। इसके हीरो खुद देव थे। हिंदी सिनेमा में अर्बन क्राइम थ्रिलर की शुरूआत इसी हुई मानी जाती है। इसी फिल्म में गुरू ने १०० एमएम के लेंस के साथ क्लोज़ लेना शुरू किया। आगे चल कर यह इतना मशहूर हुआ कि इसे गुरुदत्त शॉट कहा जाने लगा।

बाज़ी की कामयाबी के बाद नवकेतन की अगली फिल्म 'जाल' भी गुरूदत्त ने ही डायरेक्ट की। इन दोनों फिल्मों में हीरो देवानंद थे।
कुछ साल बाद गुरूदत्त ने अपना प्रोडक्शन हॉउस स्थापित किया। लेकिन अपना वादा पूरा नहीं कर पाये। आर पार और मिस्टर एंड मिसेस ५५ बनाई। पैसा बचाने के लिए खुद ही हीरो बन गए। फिर 'सीआईडी' प्लान की। उन्हें अपने दोस्त देवानंद से किया वादा याद आया। लेकिन यह वादा अधूरा रहा। गुरू ने डायरेक्शन की कमांड विश्वसनीय सहायक राज खोसला को सौंपी। इसकी बेमिसाल कामयाबी इतिहास है। इसके बाद गुरूदत्त और देवानंद पर्दे पर कभी नहीं दिखे। दोनों ही अपने अपने काम में खोये रहे।

Friday, May 27, 2016

कभी हिंदी पत्रकारिता को क्रिकेट से एलर्जी थी।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमें याद है कि साठ के दशक में खेल समाचारों को न्यूज़ पेपर्स में बैक पेज पर जगह मिलती थी। अंग्रेजी वाले तो फिर बड़ी बड़ी हैडिंग लगाते थे।

लेकिन हिंदी के संपादकगण को बड़ी खुजली रहती थी स्पोर्ट्स के नाम पर। खासतौर पर क्रिकेट से तो परमानेंट बदहज़मी रहती थी। शायद इस कारण से कि यह अंग्रेज़ों का खेल है। हमें गुलाम बनाने वालों का खेल है। निक्कमे लोगों का खेल है। कहावत भी तो थी - पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगो-कूदोगे तो होगे ख़राब।
यों इतिहास भी यही बताता है कि सोलवीं शताब्दी में इसका उद्गम टाईम पास के तौर पर चरवाहों ने किया था। बाद में यह जुआड़ियों और नशेड़ियों का खेल बन गया। लेकिन यह इतना रुचिकर था कि राजघरानों की महिलाओं में छुप-छुप कर खेला जाने लगा।
इसमें इतनी बुराइयां थीं कि चर्च को हस्तक्षेप करना पड़ा। संडे के दिन खेलना प्रतिबंधित हो गया। ताकि लोग पूजा-पाठ कर सकें। सत्तर के दशक तक इंग्लैंड में संडे के दिन टेस्ट मैच नहीं खेले जाते थे।
हां तो हम बता रहे थे कि क्रिकेट फर्स्ट पेज की हेडलाइंस नहीं होता था। इसका कोई इतिहास अलग से हो तो पता नहीं। लेकिन हमने पहली बार इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर इसे पहली खबर के रूप में तब देखा जब इंडिया ने क्रिकेट के पितामह इंग्लैंड को १९६१-६२ सीरीज में २-० से हरा दिया था। कलकत्ता और मद्रास में हमने फतह हासिल की थी। उन दिनों कानपुर स्थाई टेस्ट सेंटर होता था। लेकिन अख़बार लखनऊ से निकलते थे - नेशनल हेराल्ड, दि पॉयनियर, स्वतंत्र भारत, नवजीवन और उर्दू का क़ौमी आवाज़। इतवार के रोज़ चार सफ़े का क्रिकेट स्पेशल छपा करता था। खूब बिक्री होती थी। हम पांचों अख़बार खरीदते थे। उर्दू का क़ौमी आवाज़ भी। गो हमें उर्दू नहीं आती थी। लेकिन खिलाड़ियों के चेहरे तो पहचानते ही थे। हम उन्हें बरसों तक बहुत सहेज कर रखे रहे।
ये और ऐसी ही बहुत सारी दस्तावेज़ी यादें मकान बदलने की प्रक्रिया में नष्ट हो गईं।
हां, तो बात हो रही थी हिंदी संपादकगण के क्रिकेट प्रेम की। सत्तर का दशक आते आते क्रिकेट की खबरें फ्रंट पेज पर जगह पाने लगीं। इसका श्रेय जाता है सुनील गावसकर और कपिल देव सरीखे इंटरनेशनल सनसनी बनने वाले खिलाड़ियों को।
१९८३ का एकदिनी विश्व कप जीतना भी एक टर्निंग पॉइंट रहा। हिंदी समाचार पत्रों को क्रिकेट की ताकत और इसके महत्व का पहली बार अंदाज़ा हुआ। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग के तो पहले से आखिरी पेज तक जीत का खुमार छाया रहा।

Thursday, May 26, 2016

और चाचा नहीं रहे।

- वीर विनोद छाबड़ा
हम अक्सर कहा करते थे कि हमारे वज़ूद के गवाह चार लोग हैं। मेरे दो चाचा, मामा और बड़ी बहन। हम हमेशा उनसे संपर्क बनाये रखते थे। ईश्वर से दुआ करते कि उनकी उम्र लंबी हो।
लेकिन अफ़सोस अब तीन ही रह गए हैं। छोटे चाचा नंदलाल छाबड़ा गुज़र गए। ७९ साल के थे वो। दिल्ली में रहते थे। हमें उनसे बहुत प्यार मिला। उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया में नौकरी की शुरुआत भी यहीं लखनऊ से।

हमारे परिवार के साथ बहुत वक़्त गुज़ारा। मेरे मास्टर भी थे वो। दरअसल, हम स्कूल के दिनों में एक मंदबुद्धि बालक हुआ करते थे। रोज़ शाम के वक़्त ट्यूशन पढ़ाने आ जाते। कभी-कभी ठुकाई भी कर देते थे। मां कहती थी, एक थप्पड़ और दे।
हम न पढ़ने के बहाने भी बहुत बनाते थे। लेकिन वो न छोड़ते थे। कहीं न कहीं से पकड़ लाते। कभी क्रिकेट के मैदान से तो कभी कबड्डी खेलते हुए। १९६१ में उनकी शादी हो गई। इससे सबसे ज्यादा ख़ुशी हमें हुई। वो चाची के साथ व्यस्त हो गए और हमें पढाई और ठुकाई से निजात मिली। लेकिन डर लगा रहता था कि भूले-भटके फिर से ट्यूशन का भूत न सवार हो जाए। कुछ समय बाद वो दिल्ली शिफ़्ट कर गए। ट्यूशन से परमानेंट आज़ादी मिली। 
हमें एक घटना याद आती है। साठ के दशक में गर्मी की छुट्टी मनाने दिल्ली गए। हम हाई स्कूल में पढ़ा करते थे। एक शाम हम तैयार हुए। पाउडर-क्रीम लगाया। पतली मोहरी की पैंट का ज़माना था। कॉलर खड़ा किया और चल दिए टहलने। सदर बाज़ार होते हुए चांदनी चौक तक गए। जब वापस लौटे तो नौ बज रहा था। हमारी तलाश हर जगह हो चुकी। बस थाने में रपट बाकी थी। लेकिन जैसे ही हमारी शोहदे जैसी शक्ल देखी तो चाचा कंट्रोल नहीं कर पाये और खींच कर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया। अब उलटे चाचा को दादा जी डांट दिया। बच्चे की जान लोगे क्या? हम काफी देर तक सुबकते रहे। खाना नहीं खाया। तब चाचा ने आकर हमें मनाया और अपने हाथ से खाना खिलाया। उसके बाद से आज तक हमारा हाथ जब कभी गाल पर जाता है तो चाचा बरबस याद आते हैं।  
हमारे खानदान के इतिहास में एकमात्र गऊ समान व्यक्ति वही थे। न मदिरा, न सिगरेट और कोई दुर्व्यसन। चाय भी नहीं पिया करते थे। पिछले कई साल से घी-तेल और मिर्च मसाले रहित भोजन कर रहे थे। लेकिन हम जब भी गए, बढ़िया भोजन कराया।
होमियोपैथी के अच्छे जानकार थे। आसपास के निर्धन लोगों का नि:शुल्क उपचार करते थे और दवा भी मुफ़्त देते। बहुत भावुक होने के साथ साथ दयालु भी थे। ज़रूरतमंदों की जब-तब रूपए पैसे से मदद की। हमारे ऊपर भी जब-जब संकट आया, चाचा तन-मन-धन से साथ दिखे। 
जब हम बड़े हुए तो उनसे हमारा रिश्ता चाचा-भतीजे का नहीं रहा, बल्कि हम मित्र हो गए। कहते थे कि पचास और पैंसठ में कोई फर्क नहीं होता है। हमने बहुत दुःख-सुख शेयर किये। जब कभी उन्होंने हमें किसी मुद्दे पर सलाह दी तो हमें उनमें एक बड़े भाई के दर्शन हुए।
अक्सर फोन से पूछते थे कि कब आ रहे हो? हम उन्हें अपनी मजबूरी बता दिया करते थे। तब वो कहा करते अच्छा मैं आता हूं। हम उन्हें बड़ी मुश्किल से रोकते थे कि अब आपका स्वास्थ ट्रेवल करने लायक नहीं है।

Wednesday, May 25, 2016

मीना की ख़ातिर हीमैन बने धरम

-वीर विनोद छाबड़ा
दिल भी तेरा हम भी तेरे। लुधियाने के सीधे-साधे धर्मेंद्र की यह पहली फ़िल्म थी। फिर अनपढ़, पूजा के फूल आदि कुछ फ़िल्में की। लेकिन बात बनती नहीं दिख रही थी। टर्निंग पॉइंट बनी - आई मिलन की बेला। हीरो राजेंद्र कुमार के साथ सेकंड लीड। धरम बहुत हैंडसम दिखे। मर-मिटीं पब्लिक और चल निकले धरम। 

फिर एक और टर्निंग पॉइंट आया। ओपी रल्हन ने 'फूल और पत्थर' की स्क्रिप्ट लेकर जीजा राजेंद्र कुमार को अप्रोच किया। राजेंद्र पहले ही रल्हन की 'प्यार का सागर' और 'गहरा दाग' कर चुके थे। राजेंद्र बेहतरीन जेंटलमैन थे। बोले - इसके लिए धरम फिट रहेंगे।
जाने क्यों रल्हन को धरम से खुन्नस थी। मगर झक मार कर कास्ट करना पड़ा। फाइनांस तो जीजा कर रहे थे। नायिका थी - मीना कुमारी उर्फ़ मीनाजी। मीनाजी के साथ धरम  इससे पहले 'मैं भी लड़की हूं' और 'पूर्णिमा' कर चुके थे और काजल फ्लोर पर थी, जिसमें वो उनके भाई की भूमिका में थे।
कहते हैं 'फूल और पत्थर' के दौरान धरम और मीनाजी में बनीं नज़दीकियां पहले अफ़साना बनीं और फिर फसाना। तब तक मीनाजी का कमाल अमरोही से तलाक भी हो चुका था।
तलाक़ हो चुकने के बावजूद कमाल अमरोही को मीनाजी की धरम से नज़दीकियां पसंद नहीं थीं। नतीजा 'पाकीज़ा' से धरम बाहर हुए राजकुमार अंदर। मीनाजी बहुत नाराज़ हुई। उन दिनों राजकुमार बड़ा नाम थे और बेहतर एक्टर भी। 'आपके पैर बेहद खूबसूरत हैं। इन्हें ज़मीन पर मत रखियेगा। मैले हो जायेंगे।' सदी का यह मशहूर डायलॉग अगर राजकुमार की बजाये धरम ने बोला होता तो क्या होता? यक्ष प्रश्न है यह।

बहरहाल, फूल और पत्थर में आया एक अहम शूट। सीन कुछ यों था। सख़्त बीमार मीनाजी बिस्तर पर लेटी हैं। रात का वक़्त है। आंधी-तूफान का गज़ब माहौल है। नशे में बुरी तरह धुत्त गुंडे बने धरम चाल में घुसते हैं। मीनाजी पर नज़र पड़ी। आंखों में वासना तैरी। उन्होंने अपनी कमीज उतारी। पहली बार किसी हीरो की मांसल देह दिखी लोगों ने। फिर धरम ने वो किया जिसने हज़ारों-लाखों का दिल जीत लिया। अपनी डर से कांपती बीमार मीनाजी पर डाल दी। और इस तरह एक  पैदा हुआ - हीमैन।
लेकिन यह सब इतने आसानी से नहीं हुआ। धरम ने यह शूट करने से मना कर दिया था कि मीनाजी बहुत सीनियर और आदरणीय हैं। उनके सामने शर्ट उतारना महापाप है। मुझसे नहीं होगा। ओपी रल्हन और धरम में इस पर खासी बहस हुई, झगड़ा हुआ। वैसे अंदर ही अंदर रल्हन खुश हुए कि इसी बहाने धरम से छुटकारा मिल जायेगा। इधर मीनाजी के कान में बात पहुंची। उन्होंने धरम को बहुत डांटा। मत भूलो कि तुम एक्टर हो। मेरा तुमसे कोई रिश्ता नहीं। तब जाकर धरम राजी हुए। और एक इतिहास बना। प्रचार में यही सीन फिल्म के पोस्टर पर भी छापा गया। उस साल की सबसे कामयाब फिल्म थी यह। लेकिन बेहतरीन परफॉरमेंस के बावजूद धरम को फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड नहीं मिला।

Tuesday, May 24, 2016

वो पहला दिन।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे जीवन में २३ मई महत्वपूर्ण दिन है। इसी दिन १९७४ में हम यूपी स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के लखनऊ स्थित हैडक्वार्टर शक्ति भवन में ज्वाइन करने गए थे।
हमें आज भी याद है कि कुछ लोग हमको घूर-घूर कर देख रहे थे। मानों कोई नया पंछी फंसने आया है। हमारा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। अजीब-अजीब से चेहरों वाले ऐलियन से दिखते अंजाने लोग। और चारों तरफ फाईलों के ऊंचे पहाड़। रैक्स में भी फाईलें ठूंसी हुई थीं। मोटी-मोटी धूल की परतें। कई बाबू लोग फाईलों में घुसे थे। उनके चारों और फ़ाइलों की मीनारें खड़ी थीं। अनेक अलमारियों भी थीं। न जाने क्या भरा था?

लेकिन ऑफिस एयर कंडीशन था। उस ज़माने में बड़े-बड़े घरों तक में एसी यंत्र नहीं थे। अब बत्ती विभाग था और ऊपर से बिजली की इफ़रात भी। वहां तो यह होना ही था। बहरहाल, हमने एक भले-मानुस से दिख रहे सज्जन को अपॉइंटमेंट लैटर दिखाते हुए पूछा कि हमें किससे मिलना होगा? उन्होंने एक बड़ी टेबुल की और ईशारा करते हुए बताया कि उधर सेक्शन ऑफ़िसर बैठे हैं।
हमने घूम कर उधर देखा। फाईलों का ढेर। और उसमें से उठता धुंआ। हम हैरान हुए कि बंदा तो कोई दिख नहीं रहा। भलेमानुस ने हमें पुश किया। और ईशारे से कहा जाओ तो। हम करीब पहुंचे। देखा एक क्षीण सी काया विराजमान थी। हड्डियों का ढांचा, जिस पर कुछ मांस चढ़ा दिया गया था। मुंह में सिगरेट लगी थी। धीरे-धीरे सुलग रही थी। धुआं कभी नाक से निकलता तो कभी मुंह से। रात का वक़्त होता तो हमारी चीख ही निकल जाती। वो फ़ाईल पर कुछ लिख रहे थे। बिना मुंह उठाये बैठने का ईशारा किया। हम बैठ गये। कुछ देर बाद उन्होंने लिखना बंद किया। बिना सर उठाये आवाज़ दी - लाजपत इनसे जॉइनिंग ले लो। अपने पास ही रख लोग और काम समझा दो।
तभी वही भलेमानुस लपक कर आये। अपने पीछे आने का ईशारा किया । जॉइनिंग लिखने को कहा। हमें कुछ भी जानकारी नहीं थी और न ही कागज़ है। वो भलेमानुस एकाएक रावण बन गरजने से लगे। एक कागज़ दिया। कहा, लिखो। हमारे पास पेन नहीं था। वो हैरान हुए। अमां नौकरी करने आये हो या घास छीलने? पेन दिया और डपट कर बोले, लिखो। वो बोलते गए और हम लिखते गए। हालांकि वो जिस वाक्य-विन्यास और बिना कामा-फुलस्टॉप बोले लिखवा रहे थे वो हमें बहुत विचित्र लग रहा था और हमें पसंद भी नहीं था। लेकिन हमारी मजबूरी थी।

Monday, May 23, 2016

अफ़सर, चूहा और पड़ोसी

-वीर विनोद छाबड़ा
और बरसों बाद आख़िर वो दिन आ ही गया। बंदा प्रमोट हुआ। सीधा डिप्टी। कदम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। पद की गरिमा भी कोई चीज़ होती है। कई तरह के प्रोटोकॉल अपनाने पड़े। बढ़िया एसी युक्त कमरा। टेबुललैंप, कालबेल और द्वारे चपरासी। बिना पूछे प्रवेश निषेध। साहब बिज़ी हैं। पर्ची भिजवाते हैं। समझाया गया कि नमस्ते का जवाब बोल कर नहीं देना है। सिर्फ़ हौले से सर हिलाना है। महिला की बात दीगर है। देख कर रुक जाओ। बाअदब हलकी सी मुस्कान भी साथ में छोड़ो। हाल-चाल पूछो। आख़िर स्त्री-सशस्त्रीकरण का ज़माना है। क्या मालूम, कब कौन बिदक जाए और यौन उत्पीड़न का केस दायर कर मिट्टी पलीत करा दे।

लेकिन बंदे को घर में इसका कोई लाभ नहीं मिला। मेमसाब ने ताना मारा - अफसरी को चाटें क्या? पगार तो एक इन्क्रीमेंट ही बढ़ी।
अफसर बनने के बाद आज पहली सुबह है। मेमसाब ने पहले ही क्लीयर कर दिया था कि अफसरी का प्रोटोकॉल घर पर नहीं चलेगा। बरसों से चल रहे क्रम के अंतर्गत चूहेदानी पकड़ा दी हाथ में। खन्ना के मोहल्ले में चूहा छोड़ आओ। ध्यान रहे कि बिल्ली के सामने नहीं डालना। हत्या का पाप चढ़ेगा। अपने गणेश जी सवारी है।  
बहरहाल, उस सुबह-सुबह रास्ते में कई लोग मिले। गुप्ताजी तो मानों चूहेदानी मेंघुस गए। ये तो बहुत बड़ा है। अफसर का चूहा जो ठहरा! त्रिवेदीजी ने छींटा मारा। अब चूहे के साथ आप भी फंसे। वर्माजी ने तो बंदे की गैरत को ही चुनौती दे मारी। वाह! तो प्रमोशन के बाद भी चूहा छोड़ने जा रहे हैं। ब्रेकिंग न्यूज़। अरे डिप्टी साहब, दफ्तर से चपरासी बुला लिया होता। 
बंदा बिदकता है कि किस प्रोटोकॉल में लिखा है कि अफसर चूहा छोड़ने नहीं जा सकता।
बहरहाल, बंदा दफ़्तर पहुंचा। सुबह किसी दिलजले बाबू ने बंदे को चूहेदानी के साथ देख लिया था। परिणामतः न्यूज़ वायरल हो गई। शाम तक उसकी नाक में बाबू लोग दम करते रहे। हर पांच मिनट पर बाहर से भी किसी न किसी का फ़ोन आता रहा। सबकी ज़बान पर एक ही प्रश्न था - सुना है सर, आप चूहा छोड़ने जा रहे थे? एक बड़े अफ़सर ने क्लास ही ले ली। अभी कल ही प्रोमोट हुए हैं। पद की गरिमा का ध्यान रखें। और ख्याल रहे कि ऑफिस की इंटरनेशन रेपुटेशन है। किसी ने तस्वीर खींच कर नेट पर वायरल कर दी तो बहुत भद्द होगी।

Sunday, May 22, 2016

शोख अदाकारा नलिनी जयवंत।

- वीर विनोद छाबड़ा
छोटा कद, बाली उमर। नाम नलिनी जयवंत और चाहत फिल्मों में काम करने की। मौसेरी बहन शोभना समर्थ के तरह नाम कमाने की। पिता और भाईयों ने बहुत समझाया कि उससे तुलना मत कर। वो अच्छे लोग नहीं हैं। लेकिन वो अडिग रही। पिता ने पीटा और फिर भाईयों ने भी। उसने विद्रोह कर दिया। दूसरों के सपने पूरे करने के लिये अपनी कुर्बानी क्यूं?

पहली ही फिल्म बहन (१९४१) उसे सफलता मिली। मगर पहचान मिली १९४८ में जब दिलीप कुमार और नरगिस के साथ नलिनी ने 'अनोखा प्यार' में तहलका मचाया। प्रेम त्रिकोण की इस फिल्म में वो कुर्बान हुई। आंसूओं और तालियों का सबसे ज्यादा हिस्सा मिला। इस बीच सामाजिक सुरक्षा के मद्देनज़र नलिनी ने उम्रदराज़ प्रोड्यूसर वीरेंद्र देसाई से शादी कर चुकी थी। इसके साथ ही नलिनी त्रासदी का पर्याय बनने की राह पर चल पड़ी।
दिलीप कुमार के साथ एक और कामयाब फिल्म 'शिकस्त' आई। लेकिन जोड़ी जमी अशोक कुमार के साथ। लगातर तो हिट फ़िल्में - समाधी और संग्राम। निजी ज़िंदगी में भी अशोक कुमार के साथ उनका रिश्ता दस साल तक चला। निराश नलिनी ने एक्टर -डायरेक्टर प्रभुदयाल से शादी कर ली।
नलिनी का जादू पांच के दशक में सर चढ़ कर खूब बोला। नौजवान में उन पर फिल्माए गाने ने तहलका मचाया - ठंडी हवाएं, लहरा के आएं... और मुनीम जी में वो देवानंद के साथ थीं - जीवन के सफ़र में राही, मिलते हैं बिछुड़ जाने को.... देवानंद के साथ नलिनी की एक और यादगार फिल्म मिली - कालापानी (१९५८)।  तवायफ की भूमिका में नलिनी ने -  नज़र लागी राजा तोहे बंगले पे....। इसके लिए उन्हें श्रेष्ठ सह-नायिका का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला।
Nalini in Kaalapaani
नलिनी के निजी जीवन में बहुत उथल पुथल रही। मगर परफॉरमेंस टॉप-क्लास रही। इस दौरान महज़ ५३ फिल्में आईं। अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवानंद, भारत भूषण, किशोर कुमार, अजीत, राजेंद्र कुमार, शम्मीकपूर, सुनील दत्त आदि उस दौर के तमाम बड़े नायकों के साथ उसकी केमेस्ट्री बढ़िया रही। माना जाता था कि उनमें फिल्म लिफ्ट करने की कूवत है। बतौर नायिका आखिरी फिल्म बांबे रेस कोर्स' (१९६५) थी। यह बुरी तरह फ्लॉप रही। कई जगह रिलीज़ भी नहीं हो पायी। 
नलिनी के जीवन में 'अमर रहे ये प्यार' का बहुत महत्व है। इसे पति प्रभुदयाल ने निर्देशित किया। निर्माता थे मशहूर कामेडियन- राधा किशन। लेकिन सेंसर के झमेले में फंस गई। उन्हें सांप्रदायिक दंगों का अंदेशा था। जैसे-तैसे रिलीज़ हुई तो औंधे मुंह गिर पड़ी। परिणाम बहुत ख़राब रहा। राधा किशन ने आत्महत्या कर ली और प्रभुदयाल एक बार फिर बोतल में घुस गये। नलिनी कुछ नहीं कर सकीं।
इसके बाद नलिनी भुला दी गई। कई साल बाद १९८० में एक हमदर्द ने तन्हा जीवन से उन्हें बाहर निकाला। वो राजेश खन्ना-हेमा मालिनी की बंदिश में दिखीं। फिर १९८३ में रिलीज़ नास्तिक में अमिताभ बच्चन की मां बनीं। लगा जैसे नलिनी लौट आयी है। लेकिन जाने किस मोड़ पर क्या ग़लत हुआ कि वो लौट गयी अपनी तन्हाईयों में।
नलिनी का कोई स्थायी साथी नहीं था जो उसके मन को पढ़ सके, उसके दुख और अकेेलेपन को शेयर कर सके। मां-बाप, भाई-बहन और परिवार, दोस्तों सभी ने ठुकराया। पहले पति वीरेंद्र देसाई से नहीं पटी और दूसरा दूसरा पति प्रभुदयाल अपने ही ग़म से खाली नहीं रहा।

Friday, May 20, 2016

आप, ऑटो और चालक।

-वीर विनोद छाबड़ा
आप रेलवे स्टेशन के लिए निकले। साथ है, चल संपत्ति के रूप में एक अदद बीवी और तीन बच्चे। आयु तीन से नौ वर्ष के बीच। अचल संपत्ति - एक सूटकेस, दो बड़े बैग और एक बड़े झोले में कई छोटे-छोटे झोले। अलावा इसके दो हैंड बैग। ज्यादातर सामान आप लादे हैं, एक बैग पत्नी के पास और बाकी छोटा-मोटा बच्चों के बीच बटा है।

आप गिरते-पड़ते जैसे-तैसे ऑटो स्टैंड पहुंचे। ऐसी सूरत में तो फुल्ल आटो ही चाहिये ही। 
घाट-घाट का पानी पिये एक घाघ ऑटो चालक ने आपकी मंशा को भांपने में ज़रा भी देर नहीं की - आईये। रेलवे स्टेशन?
आप उस पर चढ़ने के अंदाज़ में बोले - हां, भाई। इतने सामान के साथ रेलवे स्टेशन ही तो जाएंगे, हवाई अड्डे नहीं।
ऑटो चालक ने आपकी चल और अचल संपत्ति दोनों का एक बार फिर करीने से जायज़ा लिया - दो सौ रूपए लगेंगे।
आपके कान में किसी ने जैसे गर्म-गर्म शीशा उड़ेल दिया। आपको यह भी ख्याल है कि पत्नी और बच्चे साथ हैं। उन पर रुआब भी झाड़ना है। आप भन्ना कर ऑटो चालक पर पूरी फ़ोर्स के साथ टूट पड़ते हैं - क्या कहा, दो सौ! खालाजी का घर है क्या? रोज़ का आना-जाना है। फुल्ल ऑटो सौ लगता है। एक धेला ज्यादा नहीं दूंगा।
आप अपने निर्णय के समर्थन के लिये पत्नी की ओर देखते हैं। पत्नी के माथे पर बल पड़ जाते हैं। आंखें गुस्से से फैल जाती हैं। बिना बोले ही उसका चेहरा सब कुछ बयां कर रहा है - कैसा आदमी है यह? घर में बड़ी ढींगे हांका करता है कि मैं बड़ा पैसे वाला हूं। स्वाभीमानी हूं। जिसने जो मांगा, दे दिया। घिस्सू किस्म का आदमी नहीं हूं। अब क्या हुआ?
आपने पत्नी की आंखों में झांक कर उसके दिल की बात पढ़ ली है। अब आपने दूसरे ऑटो चालक से बात की। नहीं माना वो। फिर तीसरे और चौथे ने भी मना कर दिया।
यह तय है कि कोई भी आटो चालक दो सौ से कम पर किसी सूरत में नहीं मानेगा। उनसे चिक-चिक करना फ़िज़ूल है। लेकिन चिरौरी करना या हारना आपके स्वभाव में नहीं। उधर ट्रेन छूटने का भी डर है। इसका आपको पूरा अहसास है। यानि कि ग़रज़ आपकी है। सरेंडर करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। बड़ी असमंजस्य की स्थिति है।

Thursday, May 19, 2016

धुएं के छल्ले!

-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने ३३ साल सिगरेट पी है। ज़िंदगी का लंबा सफर इसके साथ तय किया। अब नहीं पीता। लेकिन इसके साथ गुज़ारे अनेक दिलचस्प लम्हे याद आते हैं। मगर यह अजीब सा इतिफ़ाक़ है कि मेरे पिता इन लम्हों में कई बार अहम किरदार बने। मैं जितना उनसे जितना दूर भागता रहा वो हर मोड़ पर पहले से ही मौजूद मिले।

यह घटना १९७२ की है। उन दिनों मैंने मानसरोवर कला केंद्र नाम का एक थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया हुआ था। हम मरीचिका' नाटक कर रहे थे। निर्देशक थे - प्रेम शंकर तिवारी उर्फ़ प्रेमजी ।
पर्दे के पीछे रहने के शौक के विपरीत इस बार मेरी भूमिका परदे के सामने थी। नई पीढ़ी के बिगड़ैल अमीरज़ादे नवयुवक का किरदार। कुंठित सोच। आधुनिकता की अंधी दौड़ में अव्वल आने मात्र से ही समाज बदल जाएगा और देश प्रगति की राह पर चल देगा।
मैंने कई बार प्रेमजी से इस किरदार को लेकर जिरह की कि सिगरेट के बिना भी तो इस किरदार को बिगड़ैल दिखाया जा सकता है। मगर वो नहीं माने।
दरअसल मेरी प्रॉब्लम यह थी कि मुझे मालूम था आडियंस में पिताजी सहित मेरा पूरा परिवार बैठा होगा। चरस, अफीम, गांजा। दम कोई मारे और पीछे से धुआं कोई उड़ाये। यह सब तो चल जाएगा। लेकिन सिगरेट तो असली होगी। चलो चला लेंगे। सिगरेट सिर्फ़ सुलगती रहे। 
लेकिन 'हमदोनों' के देवानंद स्टाईल से हर शोक को, फ़िक्र को धूंए में उड़ाना। 'मधुमती' के प्राण की तरह मुंह से धुंए के छल्ले उड़ाना। यह सब तो असली होगा न। वो भी पिताजी के सामने! यह सब कैसे करूंगा?

प्रेमजी ने मेरे भावों को पढ़ लिया। चढ़ा दिया झाड़ पर - स्टेज पर आप सिर्फ किरदार हैं बस। उसमें घुस जाना है। अपना वज़ूद भूल जाना है। इसी को कामयाबी कहते हैं। यही तुम्हें ऊपर उठा कर ले जायगी, जहां एक नई दुनिया तुम्हारा इंतज़ार करती मिलेगी। आडियंस की ओर बिलकुल नहीं ताकना है।
मैं भी नादां। इसी ब्रह्म वाक्य के सहारे मैंने स्टेज पर जमकर सिगरेट पी। भद्दे शेरों के साथ मुंह से धूंए के सैकड़ों छल्ले निकाल कर हवा में फेंके। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ वंसमोर की आवाज़ें ऑडियंस से सुनाई दी। जोश में आकर रेस्पोंस भी दिया।
शो ख़त्म हुआ। लोग स्टेज पर चढ़ आये। कइयों ने पीठ थपथपाई। कौन-कौन था, सब तो याद नहीं। मगर पिताजी का पीठ थपथपाना कभी नहीं भूला। साथ में उनकी टिप्पणी भी - सिगरेट पीने की अदा पसंद आयी। खासतौर पर धुंए के छल्ले निकालना। तुम्हारी जितनी उम्र में मैंने भी बहुतेरी कोशिश की थी। लेकिन कामयाब नहीं हो पाया।