Thursday, April 7, 2016

ज़िंदगी बोले तो हंसना।

- वीर विनोद छाबड़ा
वो रिटायर बंदा था। पत्नी का कई वर्ष पूर्व देहांत हो चुका था। एक बेटा था। उसकी शादी हो चुकी थी। बेटा-बहु उसका बहुत ख्याल रखते थे। लेकिन वो न जाने क्यों बहुत उदास रहता था। फटी-पुरानी चप्पल। मैली-कुचैली धोती और पुराना सा कुरता। बिखरे-बिखरे से खिचड़ी नुमा बाल। झाड़ की तरह उगी सफ़ेद दाड़ी। पहली नज़र में देख कर कोई भी समझ सकता था कि बंदा बरसों से नहाया नहीं है। यही उसकी पहचान भी बन गई थी। किसी से ढंग से बात नहीं करना। लोग पागल समझते थे।

बंदे को लगता था कि यह जीवन मिथ्या है। सब मतलब के साथी हैं। शरीर नश्वर है। मशीन है यह। इसकी एक एक्सपायरी डेट है। एक स्टेज के बाद काम वो बंद कर देगा। ज्ञानी-ध्यानी कहते थे डिप्रेशन है यह।
घर में भी उसकी यही स्थिति थी। इसीलिए बहु-बेटा बहुत सीमित बात करते थे।
बंदा रोज़ सवेरे उठ कर मुंह में दातुन दबा कर टहलने जाया करता था और बहुत देर तक टहलता था। उसका एक साथी होता था। एक सूटेड-बूटेड और बिंदास मिजाज़ रिटायर्ड फ़ौजी।
वो बंदे को अक्सर समझाया करता था - यार सब कुछ तो है तेरे पास। एक आलिशान मकान। कमाऊ बेटा-बहु। बहुत अच्छी पेंशन। खुश क्यों नहीं रहता? कोई पैसा तो खर्च होता नहीं खुश होने में। एक बार आज़मा कर तो देख।
आखिर एक दिन फ़ौजी की मेहनत रंग लायी। बंदे को उसने मना ही लिया।
लेकिन एक्सपेरीमेंट के तौर पर। बंदे ने साफ़ साफ़ कहा - अगर ज़िंदगी में कोई बदलाव महसूस नहीं हुआ तो पुराने ढर्रे पर लौट आऊंगा।
अगले दिन बंदा एक पुरुषों के ब्यूटी पार्लर गया। बाल हेयर कटिंग कराई। दाढ़ी बनवाई। आईने के सामने खड़े हो कर देखा तो मुंह से निकला - वाह!  खुद को ही पहचान नहीं सका। खुशबू वगैरह छिड़की। फिर वो रेडीमेड गारमेंट की दूकान में गया। बढ़िया-बढ़िया पैंट शर्ट सूट और टाई-शाई ली। जूते-चप्पल लिए। घर आया।
बहु-बेटा पहचान नहीं सके। मगर जब गौर से देखा तो हैरान रह गए। अरे, अपने बापू जी। कहां गई वो उदासी? बहुत कोशिश की। मगर वो इस बदलाव का कारण समझ नहीं पाये। वो खामोश रहा। लेकिन बहु-बेटा बहुत खुश हुए। बापू जी में बदलाव तो आया।

तीन गुज़र गए। एक दिन सुबह टहल कर बंदा घर आया तो उसके हाथ में कई बैग थे थे। किसी में सब्ज़ी और किसी में राशन। उसके चेहरे पर मुस्कान भी थी। वो आज बिलकुल ही एक नया चेहरा दिख रहा था।
बंदे ने बहु को आवाज़ दी। सारे बैग उसके हवाले किये। और एक बैग अलग से दिया - इसमें जलेबी है। गरमा-गर्म। तेरी सास को बहुत अच्छी लगती थी।
बहु की आंख में आंसू आ गए - बापू जी, आज तक मैं यही समझती रही हूं कि इस घर में सिर्फ़ एक रिटायर आदमी रहता है जो मेरे ससुर जी हैं। लेकिन अब पता चला है कि उन रिटायर और ससुर जी के साथ साथ एक पिता जी भी यहां रहते हैं।
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नोट - यह कथा मेरे प्रिय साहित्य प्रेमी मित्र हरीश जी ने हमारी विद्युत पेंशनर संस्था की पिछली मासिक मीटिंग में सुनाई था। उनका उद्देश्य था कि जीवन बेशकीमती है। इसे उदासी में मत डुबोओ। खुद भी जियो और दूसरों को भी खुश रखो। 
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