Monday, April 4, 2016

जहां प्लेटफॉर्म दिखे लिटा दो।

-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन दोपहर दुःखद खबर मिली। मित्र के बाबूजी का निधन हो गया है। बंदे को हैरानी हुई। अभी परसों ही तो एक समारोह में भेंट हुई थी। नब्बे की उम्र में भी सत्तर साल वाले से बीस साल कम दिख रहे थे।

बाबूजी का चेहरा देखा तो लगा मस्ती कर रहे हैं। अभी उठ खड़े होंगे। पांच साल पहले ऐसा ही हुआ था। बाबूजी बहुत बीमार थे। परिजन खटिया से उतार कर धूप-बत्ती के इंतज़ाम में लगे थे कि बाबूजी उठ बैठे। चमत्कार हो गया! बहुत डांटा था उन्होंने। नालायकों को जायदाद के बटवारे की जल्दी है।
पिछले साल तो गज़ब हो गया था। अस्पताल वालों ने कह दिया था कि अब कुछ रहा नहीं। घर ले जायें। भगवान से दुआ करें। बाबूजी को भरे हृदय से घर लाया गया था। लेकिन अगली सुबह वो बिस्तर से गायब पाये गए। कोहराम मच गया। सशरीर ही परलोक चले गए? रोने-पीटने का स्विच ऑन होने को ही था कि देखा बाबूजी दरवाज़े पर खड़े हैं। पता चला कि मॉर्निंग वॉक पर गए थे। सबको गिन-गिन कर श्राप दिया।
आज सुबह सीने में दर्द उठा। अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने लिखा - मृत लाये गए।
एक परिजन ने तो पूछ ही लिया। इस बार तो फाइनल है न? मित्र ने सर हिलाया हां देख लिया है अच्छी तरह हिला-डुला कर। इस बार पक्का है। तभी मित्र के पांच साल के पोते ने सलाह दी। धीरे बोलो, दादू उठ जाएंगे।
ज़िंदगी के हर मामले में लेट-लतीफ़ हमारे मित्र उस दिन बहुत जल्दी में दिखे। कई स्थापित रीति-रिवाज़ों को भी ओवरलुक किया। उन्हें डर लग रहा था कि आज जुलूस के कारण जाम न मिले।
और आखिर वही हुआ। स्वर्गवाहन जाम में फंस ही गया। आगे सड़क के बीचो-बीच बाबू लोगों ने अचानक धरना दे दिया है। वेतन बढ़ाने की मांग है। चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो। धीरे-धीरे जाम बढ़ता ही गया। न आगे बढ़ पाएं और न पीछे लौट पाएं । ऊपर से शिद्दत की गर्मी नरक ढाए थी। 
 
साढ़े चार बज रहा है। मित्र के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं। ऐसा ही रहा तो सूर्यास्त हो जायेगा। अंत्येष्टि संभव नहीं होगी। वापस घर जाना होगा। जनाजे के साथ चलने वाले बड़ी मुश्किल से मिले हैं। रोज-रोज एक ही मुर्दा फूंकने के लिये दफ़्तर से छुट्टी भी तो नहीं मिलती। बेचारे बाबूजी की बॉडी भी गर्मी में परेशान हो रही है। उनके जल्दबाज़ स्वभाव के दृष्टिगत डर भी लगा कि कहीं ऐसा न हो कि अभी उठ बैठें और कहें कि भट्टी हो रहा हूं। फूंकना ही तो है। यहीं किनारे कहीं फूंक दो। जाना तो एक जगह है।
तभी जाम ख़तम हो गया है। स्वर्गवाहन चल दिया। सबको संतुष्टि हुई कि अब सब ठीक-ठाक होगा। दस मिनट में बैकुंठधाम आ गया। 
अंतिम यात्रा के इस इवेंट को मैनेज कर रहे ज्ञानी-ध्यानी बुज़ुर्ग ने निर्देश दिए - जल्दी करो। जहां भी प्लेटफॉर्म खाली दिखे, लिटा दो। सूर्यास्त होने वाला है।
लेकिन बंदे को लग रहा था कि इस सारी जल्दबाज़ी के पीछे यह भय भी छिपा है कि कहीं डेडबॉडी में जान न वापस आ जाए। आखिर ऐसे चमत्कार बाबू जी के साथ होते रहे हैं।
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प्रभात ख़बर दिनांक ०४ अप्रैल २०१६ में प्रकाशित।
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