Friday, April 15, 2016

गुड़, गुड़गांव और गुरूग्राम!

- वीर विनोद छाबड़ा
हमें याद है एक ज़माने में चीनी की बहुत शॉर्टेज थी। सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों में सुबह से लंबी कतारें लग जाती थीं। स्कूल के दिनों में हम स्कूल के लिए लेट होते रहे। एक बार तो मास्टर जी ने बैंच पर खड़ा कर दिया।

नौकरी करने लगे तब भी कंट्रोल की चीनी खानी पड़ी। लेट होने पर हाज़िरी रजिस्टर पर क्रॉस लगा मिलता। हालांकि तब खुले बाजार में भी चीनी थी, मगर महंगी। और लंबी लाईन में लग कर सस्ती चीनी प्राप्त करने का सुख तो कुछ और ही होता है। स्वयंवर जीत लाये हों जैसे।
ऐसे ही दौर में गुड़ की याद आई थी। मां ने चीनी छुपा दी। मेहमानों की खातिरदारी के लिए। हम लोगों के लिए गुड़ की चाय बना करती थी। शुरू में तो बहुत ख़राब लगी। उन दिनों माना जाता था कि गुड़ की चाय का मतलब फ़कीरी का निवास। मगर बाद में हम लोगों की गुड़ की चाय की आदत पड़ गई। अच्छी लगने लगी। उन दिनों किसी के घर जाते  थे तो एक गिलास ठंडे पानी के साथ गुड़ ऑफर किया जाता था। गांव देहातों में तो आज भी इसका चलन है। शहर वालों को ज़रूर हवा लग गई है। पांनी के साथ मीठे में खोये या छेने की मिठाई का चलन है।  में ज़रूर आज भी जब टमाटर की चटनी बनती है तो थोड़ा गुड़ डाल देते हैं। करेले में गुड़ डाल दो तो कड़वापन जाता रहता है। गुड़ वाली रोटी तो बस पूछिए मत।
गुड़ के नाम पर याद आया कि शादी-ब्याह में चीनी के पारे के साथ साथ गुड़ पारे का भी बहुत चलन था। बिना गुड़ पारे सम्मान अधूरा। गुड़ के लड्डू बोला जाता था हमारे परिवार में। चीनीपारे से ज्यादा गुड़पारे खाये जाते। ऊपर टांड़ पर चढ़ा देती रही मां। लेकिन हम लोग मेज़ पर स्टूल रख कर चढ़ जाते। कई बार पीपा ही गिर पड़ा। 
हम तो आज भी गुड़ का सेवन करते हैं। गुड़ के सेंव बहुत अच्छे लगते हैं। ऊपर से ठंडा ठंडा पानी।

हमें वो कथा आज भी याद है एक गरीब युवक को कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। उसके पास कुल सौ रूपए थे। एक प्यास बुझाने एक प्याऊ पर गया।  एक आईडिया क्लिक किया। सौ रूपए का गुड़ खरीदा। छोटे छोटे कई टुकड़े किये। प्याऊ के बाहर बैठ गया। जो प्यास बुझाने आता। एक रूपए का गुड़ खरीदता। शाम तक दो सौ रूपए हो गए। इसी तरह बढ़ते बढ़ते हज़ारों बने और फिर लाखों। वो गुड़ बहुत बड़ा व्यापारी बन गया। फिर ट्रकों की बहुत बड़ी फौज खड़ी कर ली।
हम तो बिजली विभाग के रहे हैं। बिजलीघरों में कोयले के धुएं और राख से फेफड़ों को बचाने के लिए कर्मचारियों को गुड़ खाने की सलाह दी जाती थी, बाकायदा गुड़ भत्ते के रूप में कुछ धनराशि भी उपलब्ध कराई जाती थी। हमें ऑफिस से विदा हुए पांच साल हो चुके हैं। यह गुड़ परंपरा कदचिद आज भी है।

खट्टर साहब ने गुड़गांव को गुरूग्राम कर दिया है तो एक कहावत भी याद आती है - यह वो गुड़ नहीं जिसे चींटे खायें। एक और मिसाल भी याद है - गुरू गुड हो गए और चेला शक्कर।
ठीक है गुरू का सम्मान करो, मगर कुछ ऐसा करते कि गुरू का सम्मान भी बना रहता और गुड़ की मिठास भी। चलिए आपकी मर्ज़ी। नाम में क्या रखा है?
हम तो बचपन की याद में खोये रहेंगे जब हमने मास्टर जी को जवाब दिया था - गुड़गांव वो जगह है जहां प्रचुर मात्रा में गुड़ की खेती होती है....
और नाज़ुक-नाज़ुक गालों पर सड़ाक से एक कंटाप। गधा कहीं का! अबे गुड़ की भी कोई खेती होती है? और भी गुड़गांव में! 

मित्रों कुछ आप भी शेयर करो गुड़ से जुड़ी कुछ यादें। 
---
15-04-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

No comments:

Post a Comment