Wednesday, April 13, 2016

जी, चाचा जी!

-वीर विनोद छाबड़ा
साल १९५८ का है। निर्माता शशधर मुखर्जी की फ़िल्म 'दिल देके देखो' का सेट लगा है। वहां एक कोने में एक किशोरी बैठी है। उसका सिर एक किताब में घुसा है। उम्र बामुश्किल सोलह साल है। बताया जाता है कि वो कुछ बददिमाग और नकचढ़ी किस्म की है। अभी तक बतौर बाल कलाकार कुछ फ़िल्में की हैं। अब एडल्ट रोल करने की ख्वाईश है। उसने ज्यादा फ़िल्में देखी नहीं है। अपने में मगन रहती है। सबको ठीक से पहचानती भी नहीं है।

अभी कुछ ही दिन पहले की ही तो बात है, जब निर्देशक विजय भट्ट ने 'गूंज उठी शहनाई' के लिए उसे रिजेक्ट कर दिया था - प्रेम विषयों को समझने के लिए तुम अभी बच्ची है। जब बड़ी हो जाना तो आना।
तभी उधर से हीरो शम्मी कपूर गुज़रते हैं। वो बनने जा रही 'दिल देके देखो' के हीरो हैं। अभी कुछ ही दिन पहले तो उनकी 'तुमसा नहीं देखा' हिट हुई है। उनकी एक्टिंग को खासतौर पर खूब पसंद किया गया है। उनकी एक्टिंग की दुकान जो चल पड़ी है। इसीलिए वो पूरे जोश में हैंउमंगों से भरपूर। उनकी नज़र नॉवेल पढ़ती हुई उस किशोरी पर पड़ती है। गौर से देखा तो पता चला कि किशोरी के हाथ में हेरोल्ड रॉबिंस का नावेल 'दि कारपेट बैगर्स' है। शम्मी कपूर को कुछ नागवार लगा। उन्होंने कमेंट किया - ऐ लड़की, तुम्हारी उम्र इस नॉवेल के पढ़ने लायक नहीं है। अभी बहुत छोटी हो तुम।
उस किशोरी को यह बुज़ुर्गों जैसी दखलंदाज़ी अच्छी नहीं लगी। न जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान। उसने नज़रें उठा कर शम्मी को घूरा और चिढ़ कर जवाब दिया - जी, चाचाजी।
शम्मी कपूर को जवाब बहुत ख़राब लगा। वो आज की तारीख़ में मशहूर हीरो है और यह लड़की इतनी बदतमीज़ी से जवाब दे रही है। इसकी हिम्मत कैसे हुई? उन्होंने उधर से गुज़र रहे एक स्पॉट ब्वॉय से उसके बारे में पूछा। पता चला कि इस किशोरी का नाम आशा पारिख है और 'दिल देके देखो' में उनकी हीरोइन भी। शम्मी को काटो तो खून नहीं नहीं। लाल-पीले होते सीधा पहुंचे निर्माता शशधर मुखर्जी के चैंबर में। देखा वहां निर्देशक नासिर हुसैन भी पहले से मौजूद हैं, जिन्होंने शम्मी को 'तुमसा नहीं देखा' में डायरेक्ट किया था।

उस समय नासिर हुसैन की शशधर से गर्मागर्म बहस चल रही थी। मुद्दा था हीरोइन। वो आशा के बदले वहीदा रहमान की सिफ़ारिश कर रहे थे। फिल्म में किरदार एक बेहतरीन नर्तकी है और वहीदा प्रसिद्ध प्रशिक्षित डांसर है। आशा के जवाब से चिढ़े शम्मी को और क्या चाहिए था? मन की मुराद बिन मांगे पूरी हो गई। कूद पड़े मैदान में। पूरा पूरा साथ दिया नासिर हुसैन का। 
लेकिन शशधर अपनी बात पर अड़े रहे। आशा भी बहुत अच्छी डांसर है। फिर उसमें अल्हड़पन है, चुलबुलापन है और थोड़ी नकचढ़ी भी है। किरदार के लिए ज़रूरी सारी शर्तों को पूरा करती है। और फिर किरदार के लिए बिलकुल नई लड़की भी चाहिए। वहीदा में ये तमाम क़्वालिटी नहीं है।
आशा को ही रखने की ज़रूरत के पीछे एक और कथा भी सुनी गई थी। वास्तव में शशधर की पहली पसंद नवेली साधना थी। लेकिन दो कारणों से इस फ़िल्म में साधना को नहीं लिया गया। पहला, साधना अच्छी नर्तकी नहीं थी। और दूसरा कारण था आर.के. नैय्यर। वो शशधर की एक और फ़िल्म 'लव इन शिमला' डायरेक्ट करने जा रहे थे और साधना को लेकर उनकी चाहत बहुत गहरी थी और ज़िद्द भी।
बहरहाल, शशधर ने नासिर और शम्मी कपूर को किसी तरह संतुष्ट किया कि कुछ दिन देखते हैं। अगर आशा कुछ दिन तक आशाओं पर खरी नहीं उतरती है तो वहीदा की एंट्री हो जाएगी।
शशधर के फैसले को मानना उन दोनों की मज़बूरी भी थी। इसकी वजह यह थी कि 'तुमसा नहीं देखा' शशधर मुखर्जी ने ही बनाई थी। इसमें नासिर हुसैन का बतौर डायरेक्टर पदार्पण हुआ था और शम्मी कपूर को नौ लगातार फ्लॉप के बाद पहली सफलता मिली थी। एक सच और बताते चलें कि आशा पारिख और साधना दोनों की शशधर मुखर्जी के फिल्मालय स्कूल ऑफ़ एक्टिंग की स्टूडेंट थीं जिनके टैलेंट को शशधर ने बड़ी मेहनत और अरमानों से तराशा था।

बहरहाल, जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ी शम्मी और नासिर दोनों आशा की मेहनत, लगन और उसके चुलबुले स्वभाव के क़ायल होते गए। वहीदा को वे भूल गए। आशा ने शम्मी कपूर को चाचाजी कहना ज़ारी रखा। शम्मी ने भी इस पर कभी ऐतराज़ नहीं बल्कि उन्हें बहुत सुखद आनंद प्राप्त होता था। जवाब में वो उसे भतीजी कहते थे। 'दिल दे के देखो' जब ०२ अक्टूबर १९५९ को रिलीज़ हुई तो उस दिन आशा ने १७ साल पूरे किये थे। आशा और शम्मी कपूर के बीच चाचा-भतीजी का रिश्ता शम्मी कपूर की मृत्यु तक क़ायम रहा।
इधर नासिर और आशा का रिश्ता दिल से जुड़ गया। मगर तारीफ़ करनी होगी कि यह पवित्रता के दायरे में रहा। सुगबुगाहट होती रही, लेकिन बीच चौराहे पर बदनाम नहीं हुआ। नासिर शादी-शुदा थे। आशा ने उनका घर नहीं तोड़ा। आशा को कई बार बहुत कुरेदा गया मगर उसने इस रिश्ते पर कभी मुंह नहीं खोला।

कुछ का कहना है कि दोनों के दरम्यान 'प्लेटोनिक लव' था, एक-दूसरे के दिल से प्रशंसक रहे। आशा ने विवाह नहीं किया। हर किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता। लेकिन नासिर की फिल्मों से आशा लंबे समय तक जुड़ी रहीं। मसलन जब प्यार किसी से होता है, फिर वही दिल लाया हूं, तीसरी मंज़िल, कारवां, प्यार का मौसम, बहारों के सपने और मंज़िल मंज़िल में एक छोटी सी भूमिका।
आगे की कहानी तो हिस्ट्री है। आशा और साधना ने लोकप्रियता की बुलंदियों को छुआ। बॉक्स ऑफिस पर इनकी फिल्मों को बेहद कामयाबी मिली। आशा, साधना, नंदा, शम्मी, और वहीदा बहुत अच्छी सहेलियां बनी रहीं। इनमें से नंदा और साधना परलोक सिधार चुकी हैं।
आशा ने करीब सौ फ़िल्में की। उन्हें कई ईनाम भी मिले। इनमें कटी पतंग के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का फ़िल्मफ़ेयर भी शामिल है। फ़िल्मफ़ेयर ने उन्हें २००२ में लाईफटाईम अवार्ड भी दिया। भारत सरकार ने १९९२ में पद्मश्री से नवाज़ा।
परदे के बाहर आशा को बड़ी भूमिकाएं मिलीं। १९९४ से १९९८ तक सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन की प्रेसीडेंट और फिर १९९८ से २००१ तक सेंसर बोर्ड की चीफ़ रहीं।
०२ अक्टूबर १९४२ को जन्मीं आशा पारिख की सक्रियता इन दिनों अपनी डांस एकेडेमी तक सीमित हैं।
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नवोदय टाईम्स दिनांक १३ अप्रैल २०१६ में प्रकाशित। 
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