Monday, April 11, 2016

डिप्रेशन बनाम पराठा!

-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे के परम मित्र गुरू उस दिन गहरे अवसाद में मिले। हम बोझ हैं दुनिया पर। दफ़्तर में सुपरसीड हो गया। जूनियर कप्तान हो गए। मंत्रीजी का साला जो ठहरा। काश हमारी भी पत्नी भी पहलवान की बेटी न होकर किसी मंत्री-संत्री की बेटी होती। हमेशा पड़ोसी की तारीफ़ करती फिरती है। कितने अच्छे हैं? रोज़ शाम को देर से आते हैं। मगर झोला भर सब्ज़ी-भाजी के साथ और वो भी बहुत सस्ती। अब कैसे समझायें पत्नी को? वो कमीना पड़ोसी रोज़ाना ऑफिस से जल्दी निकलता है। बाज़ार में इधर-उधर आंखें सेकता फिरता है। कई बार पिटा है। सब्ज़ी तो बीवी को खुश करने को लाता है। आधे दाम बता कर मोहल्ले भर के पतियों के भाव खराब करता है।

गुरू इस बीच तीन प्याली चाय सुड़क चुके हैं। प्लेट भर पकौड़ी भी उड़ा चुके हैं। गुरू की इच्छा 'मोर' की है।
मगर बंदे की मेमसाब गुरू को रागिया समझती है। बेझिझक ऐलान कर देती हैं। बेसन ख़त्म हो चुका है और गैस भी बस खत्म जानिये। 
लेकिन गुरू परेशान नहीं होते। हमने कहा था न। अब तो पड़ोसी भी धिक्कारने लगे। फिर वो ऐलान करते हैं कि कल सवेरे वाली गाड़ी समक्ष कूद कर परलोक वास्ते 'इंस्टेंट' कूच करेंगे। दर्जन भर मित्रों की फ़र्ज़ी सूची बनाई कि इनसे उधारी वसूलनी है। किसी से दस हज़ार और किसी से एक लाख। जब तक बीवी को मृतक आश्रित कोटे से नौकरी न मिले, तब तक खाने-पीने का कुछ इंतज़ाम तो होना ही चाहिए। साईकिल, लैपटॉप, कार सब बेचना है। किताबें भी चालीस परसेंट डिस्काउंट पर उस पढ़ाकू चतुर्वेदी को दे देना। किसी को भी फ्री नहीं देना है। तीन हज़ार का सड़ा स्कूटर दस हज़ार में बंदे के नाम कर दिया।
बंदे ने ऐतराज़ किया तो गुरू बोले - मेरे पीछे तू ही तो मुख्य सहारा बनेगा। हमारी पत्नी तेरी भाभी है पगले।
बंदा समझ गया गुरू बहुत गहरे डिप्रेशन में चला गया है। कहीं पागल हो गया तो सचमुच कइयों को जीते जी मरवा डालेगा। किसी तरह समझाया-बुझाया और उनकी पत्नी के हवाले किया। और ताक़ीद कर दी कि मज़बूत ताले-चाबी में रखें।
गुरू की पत्नी साक्षात चंडी माता हैं। लेकिन बंदे की बहुत इज़्ज़त करती हैं। आप ही एक पढ़े-लिखे और समझदार हैं। बाकी सारे दोस्त तो निक्कमे हैं। 
फिर उन्होंने इसरार किया। नाश्ता तैयार है। आप भी कर लें। गरमा-गर्म गोभी के मक्खन से चुपड़े पराठे। झक सफ़ेद दही के साथ।

बंदे का मन ललचा गया। गुरू के साथ बैठ गया। बंदे ने गुरू को ललकारा। आख़िरी बार घसीट ले बेटा। वहां नरक में तो तुझे मिलेंगे नहीं। 
गुरू के सर से डिप्रेशन का भूत उतरना शुरू हो गया। सच यार, पत्नी खाना बहुत ही अच्छा बनाती है। हम दोनों में कितना भी मनमुटाव क्यों न हो, लेकिन अन्न का अपमान नहीं। इस खानदानी परंपरा का निर्वाह हम दोनों बड़ी तबियत से करते हैं।
.....कुछ दिन बाद गुरू बहुत मस्त मिले। दिल की बात उगल दी। यह डिप्रेशन तो एक नौटंकी है। इसी बहाने बीवी के हाथ के बने मक्खन से चुपड़े गोभी के पराठे मिल जाते हैं, झक सफ़ेद दही के साथ। यार, परिवार और दुनियावी मोह-माया में हम इतना डूबे हुए हैं कि मरने की फुरसत ही किसे है?
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प्रभात ख़बर दिनांक ११ अप्रैल २०१६ में प्रकाशित। 
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