Friday, March 4, 2016

याद आती हैं वो गलियां।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज लोग गलियों में रहने की बजाये बड़ी-बड़ी कॉलोनियों और फ्लैट में रहना पसंद करते हैं। खुली हवा, खुली सोच। लेकिन भारत की एक अच्छी खासी आबादी अभी भी गलियों में रहती है। कभी गलियों के राजा भी हुआ करते थे और बदमाश भी। बाबुल की गलियां भी थीं। गलियों में रहने के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी।

लेकिन हम कुछ और ही कहना चाहते हैं। साठ और सत्तर का दशक था वो, जब ये गलियां हमें झटपट मनचाहे स्थान पर पहुंचाया करती थीं।
हमें याद है कि अपने लखनऊ के बांसमंडी चौराहे से लाल कुआं की ओर जाने वाली सड़क हुआ करती थी। इसे अब गुरु गोबिंद सिंह मार्ग कहते हैं। यहीं पर एक होटल हुआ करता था अमरावती। उसके बगल से एक गली में हम घुस जाते थे। इस गली का नाम हमें नहीं मालूम। यह गली हमें दूसरी गली और दूसरी हमें तीसरी गली ले जाती। इस तरह कई गलियों को पार करते हुए हम पांच-सात मिनट में हीवेट रोड पर पहुंच जाते। इसके बगल में था बंगाली होटल और सामने सड़क पार करते ही मॉडल हॉउस। वहां से फिर कई गलियां। एक गली नया गांव और घसियारी मंडी लिबर्टी सिनेमा (अब शुभम) के सामने खुलती।  इसके आस-पास ही जयहिंद, निशात और एलिफिस्टन (अब आनंद) सिनेमा हाल भी होते थे।
मॉडल हॉउस से एक गली बरास्ता तालाब गगनी सुकुल और कंधारी बाज़ार की सैर कराते कैंट रोड पर पहुंचाती। यहां से चार कदम पर ओडियन और फ़र्लांग भर की दूरी पर नॉवल्टी और बसंत। बगल में मेफेयर भी था। चंद कदम दूर प्रिंस और फिल्मिस्तान (अब साहू).
हमें जब-तब पिक्चर देखने तलब लगती थी। जेब टटोलते तो बामुश्किल टिकट भर के पैसे ही निकल पाते। रिक्शा-तांगा और बस के लिए कुछ भी नहीं। ठनठन गोपाल।
साईकिल से जाने के अलग ख़तरे थे। एक तो स्टैंड पर रखने के लिए किराया नहीं और दूसरे रास्ते में साईकिल के पंक्चर होने का ख़तरा।
ऐसे में यह तंग गलियां हमारा सहारा बन जातीं। यानि शार्ट कट। तीन किलोमीटर का रास्ता डेढ़ किलोमीटर में बदल जाता। सड़क की भीड़-भाड़ में जहां बीस-पच्चीस मिनट तो लगते थे। वहीं ये गलियों हमें दस-पंद्रह मिनट में पहुंचा देतीं। पिक्चर देखने की तीव्र चाहत के रहते पैरों में पंख भी लग जाते थे। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी शो लेट पहुंचे हों।

गर्मियों में तो गलियों से गुज़रते हुए एयरकंडीशन का मज़ा भी उठाते चलते। ज़िंदगी को बहुत करीब से देखने का मौका भी मिला। जनता-जनार्दन अक्सर चबूतरों और चारपाइयों पर बाहर ही पसरी दिखती। कहीं कपड़े धुलते होते तो कहीं बर्तन मंझ रहे होते। महिलायें भी झगड़ती दिखतीं। लेकिन झगड़े का मुद्दा जानने की कोशिश नहीं की कभी। इतनी फ़ुरसत ही नहीं होती थी। उधर पिक्चर छूट जाने का ख़तरा जो मंडराता होता। बच्चे तो अक्सर गलियों में क्रिकेट खेलते हुए दिखे। छोटे-मोटे क़ारोबार भी इन्हीं गलियों में चलते थे।
वो गलियां अब भी हैं। लेकिन गलियों के मुहाने के आस-पास इतना निर्माण हो चुका है कि इन्हें तलाशना पड़ता है।
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Lucknow - 226016

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