Friday, March 25, 2016

डब्बा खाली, पेट खाली।

- वीर विनोद छाबड़ा
१९९० की बात है। हम दोपहर बारह बजे के करीब नीलांचल पर सवार हुए। रास्ते भर थोड़ा-थोड़ा खाया। अरे भाई, चाचा के घर जा रहे हैं। किसी पराये के घर नहीं। वहीं जम कर खायेंगे।

रात करीब ११ बजे उनके घर जा पहुंचे। वो हमें देख कर हैरान कि बिना किसी पूर्व सूचना के आ गए।
सरप्राईज़ चाचाजी! हमने चरण वंदना की। जल्दी से फ्रेश होकर पालथी मार कर बैठ गए। पेट में चूहे कूद रहे हैं।
चाचा परेशान। हमने कारण पूछा। उन्होंने बताया कि गैस ख़त्म हो गयी है, अभी थोड़ी देर पहले। हीटर परसों से ख़राब पड़ा है।
हमने कहा, कोई बात नहीं। ताज़ा नहीं तो जो बासी हो वही परोस दो। पता चला वो भी नहीं बचा। दस मिनट पहले आ गए होते तो कल्याण हो गया होता। सड़क पर मुफ़्त में पहरेदारी करने वाले को डाल दिया गया है। न दालमोठ और न ही बिस्कुट की खुरचन। एक बूंद दूध तक कि नहीं थी। चीनी तक का डिब्बा तक खाली निकला।
कैसे लोग हो आप सब? वो शर्मिंदा हुए। बस जी हम लोग ऐसे ही हैं। आज का काम कल करने वाले।
कज़िन ने स्कूटर उठाया और आस-पास के सारे होटल छान मारे। हमारी किस्मत ही ख़राब थी। कहीं कुछ नहीं मिला। नाते-रिश्तेदार दस किलोमीटर से पहले तक तो कोई नहीं। इतनी सर्दी में कहां जाओगे। अड़ोसी-पड़ोसी को जगाने की बात चली तो हमने मना कर दिया। समझ लूंगा कि आज ब्रत पर हूं।
पानी पीकर जैसे-तैसे सो रहे। सुबह सबसे पहले हमें ही उठाया गया। स्कूटर के पीछे खाली सिलेंडर लेकर बैठो। गैस लानी है। वापसी पर दूध की थैलियां भी।

आइंदा से हमने कान पकड़े। किसी के घर पर सरप्राईज़ विज़िट की दस्तक नहीं दूंगा।
उसके बाद हम जब-जब दिल्ली गए, कोई चांस नहीं लिया। पल-पल की सूचना देते रहते हैं कि अब हम यहां हैं। अक्सर मोबाईल की बैटरी ख़त्म हो जाती है। और रास्ते भर हम कुछ न कुछ चुगते भी रहते हैं। उनके घर पहुंचते हैं तो खाने को भरपूर रहता है। चार सिलेंडर हैं। ओवन है। हॉट प्लेट भी। मर्तबान भी फुल्ल रहते हैं। हम उस पिछली सरप्राईज़ विज़िट की याद दिलाते हैं तो वो हंस देते हैं। वो तो बस एवैं ही बाई चांस था।
बहरहाल, वो पूछते हैं - क्या खाओगे?
हम कहते हैं - डब्बा खाली, पेट फुल्ल।
नोट - हंसने को कुछ नहीं। महज़ संस्मरण है। और मेरे लिए सीख भी। 
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25-03-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow 226016

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