Wednesday, March 16, 2016

एक थे होमी मास्टर उर्फ़ कालिया नाग।

-वीर विनोद छाबड़ा
बीस और तीस का दशक। साईलेंट फिल्मों का ज़माना। जुबां से नहीं चेहरे की भाव-भंगिमाओं से कहानी बयां होती थी। वो स्टूडियो का दौर था। दरबान से लेकर हीरो-हीरोइन-डायरेक्टर तक माहवार वेतन पर मुलाज़िम। एक तरह की गुलामी।
एक हीरो बेलगाम हो गया। वक़्त का पाबंद नहीं और तिस पर जिद्द कि कैमरा हीरोइन की बजाये उसके थोबड़े पर ज्यादा फोकस हो।

फिल्म का डायरेक्टर था - होमी मास्टर। बहुत ज़ालिम और घाघ। पूरा हिटलर। उसके हुक्म के बगैर पत्ता भी हिले। पूरा अख्तियार मिला हुआ था कि जो उसूल तोड़े, कान पकड़ बाहर करो। उसका डसा पानी भी न मांग सकता था। इसीलिए पीठ पीछे उसका नाम था - कालिया नाग। 
मास्टर हीरो को तमीज में रहने की कई बार चेतावनी दे चुके थे। मगर कोई असर नहीं हुआ। चिकना घड़ा।
उस दिन वो सुबह दस की बजाये दोपहर बाद आया। मास्टर का पारा बहुत हाई। थर्मामीटर टूट गया। उन्होंने पक्का इरादा कर लिया हीरो को सबक सिखाने का। लेखक को बुलाया। अभी के अभी स्क्रिप्ट बदलो।
हीरोइन को होश नहीं है। वो अपने हीरो की याद में बेतरह डूबी है। एक साधु बाबा की एंट्री होती है। हीरो की याद में खोई हीरोइन साधु बाबा को देख न पाई। उपेक्षा, घोर उपेक्षा। साधु बाबा का क्रोध दुर्वासा मुनि के क्रोध को भी लांघ गया। श्राप दे दिया हीरोइन को। तू जिसकी याद में खोयी है वो कुत्ता बन जाये। जा, अब तू कर प्यार अपने कुत्ते प्रेमी से।
हीरो का फिल्म से काम खत्म और कुत्ते का शुरू। कुत्ता लाओ अभी, फ़ौरन के पेश्तर। 
होमी मास्टर के इस फ़रमान से सेट पर सन्नाटा पसर गया। यह कैसा अजीबो-गरीब बदलाव? यह कैसी कहानी? क्या ऐसी फिल्म चलेगी? पब्लिक स्क्रीन पर जूता फेंकेगी, सड़े टमाटर-आलू और अंडे भी। थिएटर फूंक जाएगा। स्टूडियो तबाह हो जाएगा। तरह-तरह के डरावने नज़ारे पेश करके होमी मास्टर को डराने की हर मुमकिन कोशिश हुई।
चेतावनी दी गयी। हीरो को श्राप से कुत्ता बनाने के फैसले से बाज़ आओ।
कंपनी मालिक से शिकायत हुई। मगर उन्होंने साफ़ कह दिया कि होमी मास्टर ही मुख्तार हैं।
इधर हीरोइन पछाड़ खा कर गिर पड़ी। कुत्ते से प्यार करूं? मेरी इज़्ज़त क्या रहेगी? नहीं, हरगिज़ नहीं। रोते-चीखते आसमान सिर पर उठा लिया। मगर होमी मास्टर ने एक न सुनी। बल्कि बाहर का रास्ता दिखा दिया।
उधर हीरो को ख़बर हुई। पैर तले से ज़मीन निकल गयी। यह क्या हुआ। ख़ुदा को मनाना आसान है, होमी मास्टर को नहीं। वो एक बार जो कह देते हैं तो फिर खुद की भी नहीं सुनते। निहायत ही खड़ूस और ज़िद्दी नस्ल के आदमी। फिर भी हीरो ने खूब चिरौरी की। नाक रगड़ी। दुहाई दी। इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। हर फिल्म में कुत्ता ही बनना पड़ेगा।

पूरी यूनिट घुटने के बल बैठ गयी। दरख्वास्त की गयी। रहम कर, रहम कर।
मास्टर भी इंसान ही थे। आखिरकार पिघल गए। मगर उसूल के पक्के। फैसला नहीं पलटा। हीरो को कुत्ता तो बनना ही पड़ेगा। वो सीन ज्यूं का त्यूं रखा।
होमी काबिल आदमी थे। इसीलिए मास्टर कहलाते थे। उन्हें अर्जुन की तरह चक्रव्यूह में घुसना ही नहीं, बाहर निकलने का रास्ता भी मालूम था।
लेखक को बुलाया। हुकुम दिया। साधु की दोबारा एंट्री करो। हीरोइन गिड़गिड़ायेगी। माफ़ी मांगेगी। बाबा तरस नरम पड़ेंगे। हीरोइन को श्राप से मुक्त करने के लिये वरदान देंगे। हीरो फिर कुत्ते से इंसान बन जायेगा।
मास्टर के इस फैसले पर सब वाह-वाह कर उठे। इसे कहते हैं, सबक सिखाना। न सांप मरा, न लाठी टूटी। यह है मास्टर का इंसाफ़ और क़लम की ताकत।
होमी मास्टर उर्फ़ कालिया नाग ७४ फिल्मों के निर्देशन और लेखन से जुड़े रहे। १९४९ में मौत के वक़्त होमी मास्टर कारदार स्टूडियो में प्रोडक्शन मैनेजर थे। हीरो को अपने अंदाज़ में उंगली पर नचाने वाले अनोखे और इकलौते इंसान।
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नवोदय टाईम्स दिनांक १२ मार्च २०१६ में प्रकाशित।

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