Thursday, December 17, 2015

कार से निकलें, मगर पार्किंग देखकर।

- वीर विनोद छाबड़ा
आजकल शादी के न्यौतों की बहार है। रोज़ कहीं न कहीं से बुलावा है, पूरे इसरार के साथ।
कभी-कभी एक दिन में दो से ज्यादा प्रीतिभोज होते हैं। ऐसे में वहां जाता हूं जो आंखें निकाल कर गए हैं - देखो, आना ज़रूर है। कोई बहाना नहीं चलेगा। इसीलिए तीन महीने पहले बोल दिया था कि कलैंडर में निशान लगा लो। और हां, अकेले नहीं आना, सबको साथ लाना है।आज ऐसी ही शादी में जा रहा हूं। बाकी जगह व्यवहार भिजवा दिया है। वहां नहीं गया तो उसे शिकायत भी नहीं होगी। व्यवहार तो आ ही गया है।

संयोग से जहां जा रहा हूं वो जगह पड़ोस में ही है। स्टोन थ्रो डिस्टेंस पर। कार की भी ज़रूरत नहीं। पेट्रोल, समय और ऊर्जा की बचत और साथ में ठंडक से भी बचाव।
लेकिन इन सबसे बड़ी जिस उलझन से बचा हूं, वो है पार्किंग। आजकल लोग न्यौता ज़रूर सप्रेम देते हैं, मगर पार्किंग आप जानें? अगर निषेध स्थान पर खड़ी करने पर चालान होगा, तो उसे आप झेलें। हमने तो आपको सपरिवार निमंत्रित करने का फ़र्ज़ अदा कर दिया है।
ठंडक के कारण कार से जाना भी ज़रूरी है। परिवार साथ में होने के कारण तो निहायत ही ज़रूरी है।
आज से पंद्रह-बीस साल पहले अपने लखनऊ शहर में कारें आज के मुकाबले पांच परसेंट भी नहीं थीं। जहां मर्ज़ी हो, मूंछों पर ताव देकर खड़ी कर लो। साहब लोग माने जाते थे कार वाले। मारुती ८०० स्टैंडर्ड को देखकर सिपाही भी सलूट ठोंकता था।
अब तो हालत यह है कि पार्किंग लिए बिलकुल भी जगह नहीं मिलती। स्कूटी वाले कोने की तलाश में इधर-उधर भटका करते हैं। ऐसे में महंगी कार वालों को सिपाही डंडे फटका-फटका कर दौड़ाया करते हैं। किलोमीटर दूर खड़ी कर दें तो प्रीतिभोज का मज़ा जाता रहता है। दिमाग में कार घूमती रहती है। चोर न उठा ले गये हों या पुलिस वाले 'टो' कर न ले गए हों। मैं तो मजबूरन कार में ही बैठा रहता हूं। दो-चार खाना खाकर निकलें तो अपनी कार लगाऊं। अब देर होती है तो हो जाये। मेरे एक मित्र सबसे पहले पहुंचते हैं। लेकिन आस-पास इतनी ज्यादा कारें खड़ी हो जाती हैं कि कार निकालनी मुश्किल। मजबूरन सबसे बाद में लौटते हैं।

यों विवाह स्थल सब जाने-पहचाने हैं। लेकिन जब न्यौता नयी जगह का होता है तो पूछ लेता हूं, भैया पार्किंग तो है न? अक्सर लोग 'हां हां' कर देते हैं। लेकिन मुझे उनके आश्वासन पर यकीन नहीं होता। दोपहर में स्कूटी से जायज़ा लेने की ख़ातिर एक चक्कर लगा लेता हूं। साथ में मार्ग भी देख लेता हूं कि कहां-कहां खड्ड हैं, जिनसे बच चलना है।
मेरे ख्याल से आजकल कार खरीदना इतनी बड़ी समस्या नहीं, जितनी कि पार्किंग है। दफ़्तर की पार्किंग तो ठसाठस रहती है। सबसे पहले सुबह खड़ी की तो बहुत मुसीबत। शाम को सबसे बाद में उठाइये। दिन में इमरजेंसी आ गयी तो ऑटो-टैक्सी पर निर्भर रहिये।
मेरी कार पर जितनी बार खरोंचे आई हैं, डेंट पड़े हैं, बंपर उखड़े हैं और शीशे टूटे हैं, ज्यादातर पार्किंग की मेहरबानियां हैं चाहे वो दफ़्तर की हो या शॉपिंग मॉल की या अस्पताल की या सड़क किनारे की।
एक मैरिज लॉन के पास एक साहब की कोठी है। उन्होंने दो मोटे-मोटे शेर किस्म के कुत्ते पाल रखे हैं। किसी को आस-पास कार ही नहीं खड़ी करने देते।
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