Monday, November 30, 2015

बेआवाज़ जोर का झटका!

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह दस्तक हुई। एक तकरीबन गंजा आदमी खड़ा है। उसने बंदे को कस कर जफ़्फ़ी मारी - मैं मोहन लाल चड्ढा।
बंदा उछल पड़ा - ओए, मोड़ी कंचे वाला। मेरा निक्कर फ्रेंड।
मोड़ी तो दार्शनिक हो गया। रोज़ी-रोटी और वक़्त की आंधी ने जुदा कर दिया था, लेकिन वाह री किस्मत। आज चालीस साल फिर मिल गए। तार से तार जोड़ते हुए तलाश ही लिया तुझे। बेमिसाल प्यार की निशानी। वरना तू कौन और मैं कौन? सगे भाई को लोग नहीं पहचानते।
बंदे ने मेमसाब से परिचय कराया - बस यों समझो बचपन में मेले में खोया भाई बुढ़ापे में मिला। इनके बेटे की शादी है। कह रहे हैं कि हर हाल में आना है। 
लेकिन मेमसाब ऐन मौके पर बिदक गयीं। मुंह से सिगरेट की बदबू आती है। मेंढक जैसी आंखें और तोते जैसी नाक। यों भी मेमसाब को वो आदमी सख़्त नापसंद है जो बारात को लड़की वालों के मत्थे मढ़ता है। खुद पार्टी नहीं करता। मेमसाब को मायका याद आता है - ऐसे चालाक लोगों के यहां खूब खाओ-पियो और खाली लिफ़ाफ़ा पकड़ा कर चल दो।
आख़िरकार बंदे को अकेले ही जाना पड़ा। चार-चार मैरिज लॉन, एक के बाद एक। अंदाज़ से एक में घुस लिया। डिस्को का बेतरह शोर। बंदा वहां किसी को पहचानता ही नहीं। कैसे ढूंढे मोड़ी को? लेकिन किस्मत अच्छी थी। थोड़ी क़वायद के बाद मिल गया। शानदार क्रीम कलर का गलेबंद सूट। बंदे ने सोचा मोड़ी उसे देख लिपट लिपट जायेगा - देखो भाइयों, यह है मेरा निक्कर फ्रेंड।
मगर मोड़ी ने ऐसा कुछ नहीं किया। सूट ख़राब होने के डर से वो पीछे खिसक गया। उलटे बंदे के हाथ से लिफ़ाफ़ा तक़रीबन छीन कर बैग में रख लिया। पूछा भी नहीं कि भाभी कहां है?
बंदा इस बेआवाज़ ज़ोर के झटके से अभी संभला ही नहीं था कि देखा मोड़ी गायब हो चुका है। उसे घूम-घूम कर वसूली जो करनी है।
लोग खाने पर ऐसे टूटे पड़े हैं जैसे पहले कभी खाया नहीं। बंदा खुद से सवाल-जवाब कर रहा है - इस भीड़ में कैसे घुसूं? छोड़ो, घर जा कर खाऊंगा। लेकिन यार तूने तो भारी लिफ़ाफ़ा दिया है। मुफ़्त में तो खाना नहीं। 

Sunday, November 29, 2015

और मैनेजर ने हमें डांटा - पागल है क्या तू?

- वीर विनोद छाबड़ा
यों हम राजकपूर, देवानंद और अशोक कुमार की अदाकारी के दीवाने रहे हैं, लेकिन दिलीप कुमार हमारी पहली पसंद रही है। शायद ही कोई फ़िल्म छोड़ी हो उनकी।
उस दौर में उनकी बकवास फ़िल्म भी कई दफ़े देखते थे हम। उन्हें युसूफ भाई भी कहा जाता था। हद से ज्यादा इज़्ज़त करने वाले यूसुफ साहब कहा करते। कुछ लोग खां साहेब भी कहते थे।

हमारे एक दिवंगत सीनियर पिक्चरबाज़ मित्र कृष्ण मुरारी सक्सेना उर्फ़ मुरारी भाई तो नाराज़ हो जाया करते थे कि दिलीप कुमार को दिलीप साहब क्यों नहीं संबोधित किया? यों वो कई बार अमिताभ बच्चन को अमिताभ साहब नहीं कहने पर भी भिड़े। उन्हें तो यह तक याद रहता था कि फलां फ़िल्म किस साल के किस महीने और लखनऊ के किस थिएटर में रिलीज़ हुई, किस क्लास में और किसके साथ देखी। तीन घंटे की फ़िल्म की कहानी बड़ी तफ़सील में तीन दिन तक कई सिटिंग में बयां करने का उनका अंदाज़ निराला भी हुआ करता था। 
पिक्चरबाज़ी के मामले में बहुत नहीं तो मुरारी भाई के थोड़ा पीछे हम भी थे। अनेक फ़िल्में हमने मिश्रा जी के साथ देखीं। अस्सी का दशक ख़त्म होते-होते सिनेमा के प्रति प्रेम एकाएक ख़त्म हो गया। शायद इस वज़ह से कि फ़िल्म बनाने वालों और फ़िल्में देखने वालों की एक नयी पीढ़ी आ गयी जिनके शौक और सरोकार हमसे मेल नहीं खाते थे। हमारी प्राथमिकताएं भी बदल गयीं। 
बहरहाल, हम बता रहे थे कि दिलीप साहब की फिल्मों के प्रति दीवानगी का आलम यह था कि अक्टूबर १९६७ में जब 'राम और श्याम' रिलीज़ हुई तो हमने उसे कई दफ़े देखा। उन दिनों हम दिल्ली टहलने गए हुए थे। लिबर्टी में पहला दिन, पहला शो देखा। हफ़्ते बाद लखनऊ लौट कर आये तो नॉवेल्टी में देखी। सिल्वर जुबली तक हमने इसे पांच मर्तबे देख मारा। वहां से हटी तो घटी दरों पर अमीनाबाद के नाज़ टॉकीज़ में लगी। वहां हमने इसे लगातार पांच दिन फ्रंट क्लास में देखा।
उन दिनों नाज़ में टिकट नहीं मिलता था बल्कि हाथ पर मोहर लगती और कार्बन पेंसिल से सीट कर नंबर बड़ी बेदर्दी से हथेली पर लिख दिया जाता। बहरहाल, जब हम छटे दिन भी फ़िल्म देखने पहुंचे तो गेटकीपर ने हमें कालर पकड़ कर रोक दिया। हम भी भिड़ गए - हमारी पसंद है। हमारा पैसा है। तेरे पेट में मरोड़ क्यों?

Saturday, November 28, 2015

साथी हाथ बढ़ाना साथी रे.…

-वीर विनोद छाबड़ा
रात करीब साढ़े ग्यारह का टाईम था। पहले एक फेज़ गया और फिर मिनट भर में दूसरा भी। दो पल गुज़रे न थे कि स्ट्रीट लाइट भी गुल। कहीं तार टूटे हैं। लंबा फॉल्ट।

बाहर निकला। घुप्प अंधकार। लोग ठाठ से सो रहे हैं। इन्वर्टर ज़िंदाबाद। मेरे हाथ में टॉर्च है। टहलता हुआ यूं ही लगे ट्रांसफार्मर पर पहुंचा। देखा भीड़ लगी है।


यहां एक पोल है, जहां कई जगह से आकर तार जुड़ते हैं। झमेला है तारों का। कुछ तार जल कर गिरे पड़े हैं। आस-पास रहने वाले जमा है। सब-स्टेशन फ़ोन हो चुका है। फीडर बंद हो गया है। मेंटेनेंस स्टाफ़ निकल लिया है। किसी भी पल आता होगा। तब तक तारों से दूर रहने की हिदायत दी गयी है। कुछ लोगों ने घेरा बना लिया है। ताकि कोई इधर से न गुज़रे।

तभी खड़-खड़ की आवाज़ सुनाई देती है। एक ट्रॉली पर सीढ़ी बंधी है जिसका एक सिरा बाईक के पीछे बैठा बंदा पकड़े है। सबने राहत की सांस ली। स्टाफ़ आ गया। सिर्फ़ दो ही बंदे हैं। यह नियमित कर्मचारी नहीं हैं। ठेकेदार के आदमी हैं। उन्हें साढ़े चार हज़ार महीना मिलता है। बारह घंटे काम। सर्दी हो या गर्मी या बरसात। काम नहीं तो दाम नहीं। दुर्घटना में घायल या अपंग हो गए या तार से चिपक कर मर गए तो मुआवज़े के लिये सड़क जाम करनी पड़ती है।
उन्होंने मुआयना किया। तुरत-फुरत सीढ़ी खंबे से टिकाई। रात का वक़्त है। कुछ दिखता नहीं है। स्टाफ़ के पास सिर्फ़ एक टॉर्च है। रौशनी अपर्याप्त है। एकाएक दस-पंद्रह टॉर्च जल उठीं। रौशनी से समां नहा उठा। एक बंदा  नीचे गिरी तारों का जला हिस्सा काटने पर जुट गया। इसमें इंसुलेटेड एरीअल बंच भी है। इंसुलेशन जल कर तार से चिपक गया है। इसे चाकू से छीला जाएगा। आरी से काटा भी जायेगा। मोहल्ले वाले भी उसकी मदद करने लगे। कोई ठंडे पानी की बड़ी बोतल ले आया।

Friday, November 27, 2015

चाचा का तमाचा!

- वीर विनोद छाबड़ा
बात १९६५ की है। हम हाई स्कूल में थे। गर्मी की छुट्टियों थीं। स्कूल-कॉलेज लंबी अवधि के लिए बंद थे। हम छुट्टियां मनाने लाला जी (दादाजी) के पास दिल्ली चले गए। उन दिनों बाड़ा हिंदू राव में रहा करते थे वो।

मौज-मस्ती कर रहे थे। एक शाम कुछ ज्यादा ही मस्ती सूझी। गहरे नीले रंग की पतलून पहनी। भूरे रंग की कॉलर वाली टी-शर्ट। कोई बढ़िया कंबीनेशन नहीं। काले जूते। फर्स्ट क्लास पॉलिश। चलने पर चूं-चूं करता लेदर सोल। आईने के सामने खड़े होकर कई बार कई एंगल से निहारा खुद को। थोड़ा पॉवडर-शाउडर लगाया। सर पर ब्रिल क्रीम। चेहरे पर नीविया क्रीम पोती। कॉलर खड़े किये। आत्ममुग्ध हो गए खुद पर। फिर लगा कुछ कमी है। बाहें चढ़ा ली। डोले दिखने लगे अच्छे खासे। बस एक ही कमी रह गयी। होंटों में सिगरेट नहीं दबी थी। पीते नहीं थे उन दिनों।
चार बजे का वक़्त रहा होगा। हम चुपचाप घर से निकल पड़े। बारह टूटी सदर-कुतब रोड होते हुए हम पैदल ही चांदनी चौक घूमने निकल गए। खूब घूमे। चाट-शाट भी खाई।
मई का महीना था। अँधेरा देर से होता था। घड़ी थी नहीं। किसी से टाईम पूछा। साढ़े आठ।
बाप रे! शामत आई अब तो। सब तलाश रहे होंगे। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाये। घर पहुंचते पहुंचते नौ बज गए। सबको दरवाज़े पर तकते हुए पाया।
हम डरे-डरे और शर्मिंदा होते हुए हाज़िर हुए। हमसे कोई सफ़ाई नहीं मांगी गयी। लेकिन हम देना चाहते थे।
मगर छोटे चाचा ने कोई मौका नहीं दिया। रसीद दिया एक ज़न्नाटेदार तमाचा।
तमाचे के इफ़ेक्ट से हम गिरते-गिरते बचे। हम रो भी नहीं सके। ग़लती तो हमारी थी। बस तकिये में मुंह छुपा कर लेट गए। खाने के लिए दादी ने पूछा और चाची-बुआ ने भी। लाला जी भी समझाने आये। हमने मना कर दिया।

Thursday, November 26, 2015

क़ैदी हूं जेलर नहीं - बलराज साहनी।

- वीर विनोद छाबड़ा 
बलराज साहनी एक बेहतरीन नेचुरल आर्टिस्ट थे। साथ ही साथ वो एक सक्रिय राजनीतिज्ञ भी थे। वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उनका एजेंडा साफ़ था। मज़दूरों, किसानों और मजलूमों के हक़ के लिए लड़ना, उन्हें इंसाफ़ दिलाना। इसकी वज़ह से उन्हें १९४९ में जेल भी जाना पड़ा। वहां मजरूह सुल्तानपुरी के साथ वो कई दिन तक रहे भी।

उसी दौरान के.आसिफ़ एक फिल्म बना रहे थे - हलचल। इसमें दिलीप कुमार और नर्गिस के साथ बलराज साहनी की भी अहम भूमिका थी।
बलराज इसमें एक जेलर के रोल में थे। लेकिन त्रासदी यह थी कि बलराज खुद जेल में क़ैदी थे। शूटिंग रुक गयी। प्रोड्यूसर के.आसिफ़ को माली नुकसान हो रहा था। कर्ज़ लेकर फिल्म बना रहे थे वो।
के.आसिफ़ माननीय कोर्ट पहुंच गए। अपने नासाज़ हालात बयान किये। अगर बलराज शूटिंग नहीं करेंगे तो कुफ़्र टूट पड़ेगा।
माननीय कोर्ट ने रहम फ़रमाया। हुक्म हुआ कि शूटिंग के लिए बलराज को रिहा किया जाए और शूट के बाद फिर जेल वापस।
अगले दिन बलराज क़ैदी की ड्रेस में चार सिपाहियों के घेरे में स्टूडियो पहुंचे। के.आसिफ़ को राहत मिली। 
बलराज मेकअप रूम में दाख़िल हुए। सिपाहियों को बाहर बैठा दिया गया।
थोड़ी देर बाद बलराज जेलर की ड्रेस में बाहर निकले। नेचुरल आर्टिस्ट होने के साथ-साथ रोबीला चेहरा तो बलराज का था ही। सिपाहियों ने उन्हें असली जेलर समझ लिया। हड़बड़ा कर सब खड़े हो गए। जोरदार सल्यूट मारा।

Wednesday, November 25, 2015

अंधे ज्यादा या नैनों वाले।


- वीर विनोद छाबड़ा 
एक बहुत पुरानी कहानी है। अक़्सर माता-पिता और शिक्षक बच्चों को सुनाया करते थे। अब शायद नहीं सुनाते। मुझे याद आई अभी-अभी। शेयर कर रहा हूं ताकि सनद रहे।

एक दिन अकबर और बीरबल में छिड़ गई जुबानी जंग। देखने वाले ज्यादा हैं या अंधे?
अकबर देखने वालों के पाले में खड़े थे। जबकि बीरबल बता रहे थे कि अंधों की संख्या दुनिया में ज्यादा है।
अकबर को गुस्सा आया। हम बादशाह सलामत हैं। भला ग़लत कैसे हो सकते हैं?
बीरबल को चैलेंज किया। साबित करो कि तुम सही हो।
बीरबल ने चौबीस घंटे की मोहलत मांगी।
अगले दिन सुबह बीरबल बीच बाज़ार में बैठ गए। खटिया बीनने लगे। साथ में दो मुलाज़िम भी कागज़ क़लम-दवात सहित बैठा दिए।
लोग हैरान और परेशान। बीरबल खटिया बीन रहे हैं? दिमाग फिर गया है क्या? उनसे जाकर पूछा - हुज़ूर, ये आप कर क्या रहे हैं?
पूछने वालों का तांता लग गया। ट्रैफ़िक जाम हो गया। इधर मुलाज़िमों ने पूछने वालों के नाम दर्ज कर लिये।
ख़बर की ख़ासियत है उड़ना। बादशाह सलामत अक़बर को भी ख़बर हुई। बीरबल सठिया गये हैं। बादशाह लाव-लश्कर के साथ चौराहे पर पहुंचे। उन्होंने न भी वही सवाल किया- बीरबल यह तुम क्या कर रहे हो?
बीरबल चुप। अपना काम करते रहे। इधर मुलाज़िम ने बादशाह सलामत का नाम दर्ज कर लिया।
यह देख बादशाह सलामत को और भी गुस्सा आया। उन्होंने मुलाज़िम से कागज़ छीन लिया। देखा, उस पर उनका का नाम दर्ज था। बादशाह सलामत फ़नफ़नाए - बीरबल यह क्या बदतमीज़ी है?
बीरबल ने शांत भाव से जवाब - गुस्ताख़ी माफ़ सरकार-ए-आलिया। यह अंधो की फ़ेहरिस्त है, जिसमें आपका भी नाम दर्ज है।

Tuesday, November 24, 2015

अब्दुल्लाह टी स्टॉल।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कल शाम अमीनाबाद से गुज़रना हुआ। भीड़ ही भीड़। तिल रखने को जगह नहीं। मैं तलाश रहा था प्रकाश कुल्फ़ी और बर्मा बिस्कुट वाली लेन में अब्दुल्लाह टी स्टाल।
इस लेन में कई-नई दुकानें दिख रही हैं। नई-नई इमारतें खड़ी हो गयी हैं। लेकिन अब्दुल्लाह टी स्टाल नहीं दिखा। शायद नहीं रहा।

पिछले ४२ साल में दुनिया इधर से उधर सरक गयी है। लेकिन मैं ४२ साल पीछे सरक जाता हूं।
अब्दुल्लाह टी स्टाल पर खड़ा हूं। क्या दौर था वो भी । रात का डेढ़ बजा है। यहां निशाचरों की एक अलग ही दुनिया आबाद है। जगत, मेहरा और नाज़ सिनेमा हाल कब के छूट चुके हैं। थोड़ी दूर कैसरबाग़ वाला आनंद, लिबर्टी और निशात भी। ज्यादातर तमाशबीन यहीं जमे हैं। फ़िल्मी डिस्कशन चल रहे हैं। कोई चारबाग़ जाने की फ़िराक में है। किसी को बस पकड़नी और किसी को ट्रेन।
मेरे साथ रवि मिश्रा है, प्रमोद जोशी, विजय वीर सहाय और उदयवीर। हम विजय वीर के फर्लांग भर दूर मॉडल हाउस स्थित घर में कंबाइंड स्टडी के बहाने गपशप करने आते है। रिफ्रेश होने यहां अब्दुल्लाह टी स्टाल पर आ गए। सर थोड़ा बचा कर। हल्का सा अंडरग्राउंड है यहां। यहां आना हमारा तकरीबन रोज़ का शगल है। कभी-कभी बंद-मक्खन के साथ कड़क चाय पीते हैं। एक बंद के पांच हिस्से और कभी-कभी पूरे पांच बंद भी। धनाढ्य मिश्रा तो है ही साथ में। कभी-कभी उधार भी चल जाता है।
यहां करीब घंटा- डेढ़ घंटा डिस्कशन चलता है। टॉपिक कोई भी हो। राजनीति, सामाजिक या अर्थनीति। कई बार लड़की पर भी चर्चा होती है। आख़िर है तो हम लोग जवान ही न। सबके सब दिलवाले।
यूनिवर्सिटी क्या छूटी कि बहुत कुछ बिखर गया। इसमें अब्दुल्लाह टी स्टाल भी शामिल है। सब अपनी रोज़ी रोटी कमाने के फेर में बिज़ी हो गए। 
चल आगे बढ़ ले। सिपाही डंडा फटकारता है।
मैं वर्तमान में लौटता हूं। सिपाही से पूछा - यहां ४२ साल पहले एक अब्दुल्लाह टी स्टाल होता था। उसी को देखने आया हूं। दिख नहीं रहा।

Monday, November 23, 2015

नो शॉपिंग, विदआउट बारगेनिंग !

-वीर विनोद छाबड़ा 
चप्पल वाली गली। दोनों तरफ सैंडिल-चप्पल की गुमटियों की दूर तक लंबी कतारें। भीड़ इतनी कि तिल रखने की जगह नहीं। मेमसाब एक गुमटी पर रुकीं। दर्जन भर सैंडिल निकलवायीं। पसंद नहीं आई। अगली गुमटी। तीसरी और चौथी भी। वही नाक सिकोड़ी। पसंद नहीं। और अब दसवीं गुमटी। मुन्ना चप्पल भंडार।

बंदा पस्त हो चुका है । लेकिन मेमसाब के चेहरे पर दूर-दूर थकान का चिह्न तक नहीं। 
शुक्र है, यहां मेमसाब को सैंडिल पसंद आ गयी। पेंच फंसा दाम पर। मुन्ना बोला, सौ। टंच माल। पांच साल की गारंटी मुफ्त में। मेमसाब ने बीस का दाम लगाया। मुन्ना बुरी तरह झल्ला गया। वाह, बहिन जी वाह! आधा घंटा ख़राब किया और अब माल की बेइज़्ज़ती कर रही हैं। चलिए आगे बढ़िए। दूसरी दुकान देखिये।
बंदे को गुस्सा आया। नालायक। लेडीज़ से ऐसे बात की जाती है? लेकिन मेमसाब ने हाथ पकड़ लिया। जाने दीजिये। अभी ये खुद ही खुशामद करेगा।
सचमुच दो कदम आगे आगे बढ़े ही थे कि पीछे से मुन्ना की आवाज़ आई। अरे बहिन जी, आप तो नाराज़ हो गयीं। चलिए अस्सी दीजिये। मेमसाब वापस पलटीं। नहीं ये दाम भी ज्यादा है। मुन्ना को मालूम है लेडीज़ से कैसे डील किया जाये। अरे आप कोई नई तो हैं नहीं। हरदम आती हैं। कभी प्रॉफिट लिया आपसे? भाई समझ कर दो पैसे पेट भरने के लिए ज़रूर लूंगा।
अब बात रिश्तेदारी पर आ गयी। मेमसाब को इस पर ऐतराज़ नहीं। नहीं भैया चालीस से ज्यादा तो एक धेला भी नहीं।
मुन्ना ने हथियार डाल दिए।  अच्छा चलिए हटाइये। न मेरी और न आपकी। पचास दीजिये। घर का मामला है। उसने सैंडिल पैक कर दी। मेमसाब न पसीजी।  चालीस  पकड़ाए और चल दीं। मुन्ना कुछ न बोला। उसे मालूम है कि चालीस से ज्यादा एक छदाम नहीं मिलेगा। लेकिन बहस की औपचारिकता तो निभानी थी। वरना माल न बिकता। वो गर्दन झटक कर दूसरे ग्राहक से निपटने लगा।
मेमसाब खुश। मगर घंटा भर तो ख़राब हो गया। पंद्रह दिन गुज़रे। सैंडिल नमस्कार कर गए। मेमसाब को गुस्सा आया। फिर चलो बाज़ार।
यह कोई नई बात नहीं है। झल्लाया बंदा एक जगह खड़ा हो गया। एक घंटे बाद यहीं मिलेंगे। मगर मेमसाब दो घंटे लौटेगी। उसे विश्वास है पति छोड़ कर भागेगा नहीं।

Sunday, November 22, 2015

दाल चढ़ी है।

-वीर विनोद छाबड़ा
दृश्य - एक।
पत्नी - आप कब आये?
पति - कोई घंटा भर हो गया।

पत्नी - तो बताया क्यों नहीं?
पति - अरे मैंने स्कूटर रखा। मुंह-हाथ धोया। टीवी ऑन किया। एक दोस्त की काल आई। कमरे में नेट ठीक नहीं था। बाहर निकल ज़ोर-ज़ोर से बातें की। चंदा लेने वालों की क्लास ली। इतना होने के बाद भी तुम्हें पता नहीं चला कि मैं घर आ गया हूं? ज़रा टीवी का वाल्यूम कम रखा करो।
पत्नी - टीवी तो कबका बंद है।
पति - क्यों झूठ बोलती हो। अभी-अभी तो  बंद किया है।
पत्नी - अच्छा-अच्छा। ठीक है। चाय ठंडी हो गयी। फिर गर्म करनी होगी। मुझे बाजार जाना है। दाल-चावल लाने। आपको तो कोई मतलब है नहीं।
पति - अच्छा बाबा। आइंदा से घर में घुसते ही पहले तुम्हें नमस्ते करूंगा। एक सांस में इतनी लंबी बात करने से क्या फ़ायदा? अपना भी ब्लड प्रेशर बढ़ाओ और मेरा भी।
पत्नी - लंबी बात कौन कर रहा है? मैं या आप?
पति - अच्छा बाबा, माफ़ करो। तुमसे तो बात करना ही फ़िज़ूल है।
पत्नी - यह लो चाय। ध्यान से पीना। गर्म है बहुत। बिस्कुट खुद निकाल लेना। मैं जा रही हूं मुंशीपुलिया। और हां देखो, कोई चंदा मांगने आये तो देना नहीं। आजकल रावण फूंकने के नाम पर जाने कहां-कहां से आ जाते हैं चंदा लेने वाले। पैसे मुफ़्त में पेड़ पर उगते हैं जैसे।
पति - अरे भई, मैं कहां देता हूं? बताया न, अभी थोड़ी देर पहले ही चंदा लेने वालों को भगाया है।
पत्नी - मालूम है, मालूम है। दिल तुम्हारा बहुत बड़ा है। कभी पांच सौ, तो कभी हज़ार लुटाया करते हो शादी-ब्याह में।
पति - शादी-ब्याह में दिया जाने वाला रुपया चंदा नहीं होता। अब जाओ बाज़ार। कल्लू की दुकान बंद हो जायेगी।
पत्नी - जा तो रही हूं। और हां दाल चढाई हुई है। दो सीटी बजने के बाद गैस बंद कर देना। टीवी देखते-देखते सो न जाना। एक बार कुकर फट चुका है।
पति - उसमें मेरी गलती नहीं थी। तुमने बताया ही कहां था?
पत्नी - अच्छा ठीक है, ठीक है। दस साल पुरानी बात अब याद आ रही है। जा रही हूं। दरवाज़ा अच्छी तरह बंद कर लेना।
पति - शुक्र है, गई।

दृश्य - दो।
पति - सुनो, मैं आ गया हूं।
पत्नी - तो मैं क्या करूं?
पति - अरे कल तुम्हीं ने तो कहा था। घर आओ तो बताना चाहिए।

पत्नी - कहा था। लेकिन इतनी ज़ोर से गाना गाने की क्या ज़रूरत है कि मोहल्ला भर सुने।
पति - ठीक है। आइंदा नहीं बताऊंगा। दरवाज़ा खटखटा दिया करूंगा।
पत्नी - अजीब आदमी हो। अपने घर आने पर कोई दरवाज़ा खटखटा है भला? मेहमान हो क्या? यह लो चाय। ठंडी लगे तो अपने आप गर्म कर लेना। बिस्कुट अपने आप निकाल लेना। मैं जा रही हूं मुंशीपुलिया। दाल चावल लेना है। पेंट वाले ताहिर का पैसा देना और मुजाहिद से बात करनी है कि लोहे का जाल कब तक बना कर देगा। बंदरों ने तंग कर रखा है। और हां वो दाल चढ़ा.
पति - हां हां, मालूम है। दो सीटी बजे तो कुकर बंद कर देना। अब जाओ भी।

Saturday, November 21, 2015

यहां मरने के लिए आते हैं ज्यादातर।

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे शहर में एक हॉस्पिटल है। वृद्धा आश्रम ही समझ लो।
यहां पचास साल से ऊपर वाले ही भर्ती किये जाते हैं। खासतौर पर वो जिनके पास मैनपॉवर नहीं है। नौकरी कर लें या बैठें मरीज़ के पास। ऐसे लोग अपने परिजनों को यहीं छोड़ जाते हैं। सुबह या शाम एक चक्कर लगा लिया। कुछ तो महीने दो महीने के लिये दूसरे शहर या विदेश भी चले जाते हैं। मरीज़ जब चंगा हो गया तो घर चला गया।

हमें कई बार जाना हुआ है वहां। ऐसों-ऐसों को देखा जिन्हें कुछ याद नहीं। खाना और पाखाना करना भी याद नहीं रहता। कोई भी इंद्रिय काम नहीं करती। कोई अस्सी का है तो कोई नब्बे पंचानवे का। दर्द से बिलबिलाते रहते हैं। सिस्टर आ कर उन्हें प्यार से दुलारती है, डांटती भी है। उनके डायपर भी बदलती है और चद्दर भी। जैसे कोई मां बच्चे से मुख़ातिब हो। एक्सर्साइज़ भी कराती है। चलना भी सिखाती है। किसी-किसी को तो अपने हाथ से खाना खिलाती भी है। उनके परिजन उन्हें मरने के लिए छोड़ गए हैं। दरअसल उन्हें मरना ही है। डॉक्टर घोषित कर चुके हैं। अंग शिथिल हो चुके हैं। कोई जब घड़ी आती है तो खबर कर दी जाती है। यह एक क्रूर सत्य है।
एक साहब मिले। बिलकुल हट्टे-कट्टे।
हमने पूछा आप यहां क्यों?
बोले कैंसर है। अस्सी प्लस हूं। न जाने कब बुलावा आ जाये। बच्चों के पास फ़ुरसत नहीं। उनकी गलती नहीं। कभी यहां तो कभी वहां। ये आज का दौर है। ग्लोबलाईज़ेशन का।  सब दूर-दूर बिखरे पड़े हैं। संयुक्त परिवार रहे नहीं। न चाहते हुए भी रिश्ते टूट गए हैं। पत्नी भी नहीं है। मुझे पेंशन मिलती है। सब यहीं खर्च हो जाती है। मन भी लगा रहता है। अख़बार, रिसाले और पुस्तकें पढता हूं। हिंदी उर्दू और अंग्रेज़ी कुछ भी मिल जाये। के दूसरे मरीज़ों से मिलता हूं। उन्हें हौंसला देता हूं। पॉजिटिव बनो। गुड नाईट। कल मिलेंगे ज़िंदा रहे तो। नहीं तो ऊपर जाकर। खाना भी यहीं मिलता है। चार-पांच दिन पर कोई दोस्त या रिश्तेदार भूले भटके आ जाता है। उस दिन अच्छा खाना मिलता है।

Friday, November 20, 2015

बचा ली एक पुरानी निशानी।

- वीर विनोद छाबड़ा
पुरानी निशानियां एक-एक करके ख़त्म हो रहीं हैं।
पिता जी नहीं रहे और फिर कुछ साल बाद माता जी। लेकिन उनकी निशानियां रहीं। उन्हीं को देख-देख कर हम उन्हें याद करते रहे। हम बड़े फ़ख़्र से बताया करते थे कि ये पलंग १९५६ का है और यह दूसरा वाला १९५९ का।

और ये श्रंगार मेज़ है, प्योर शीशम। बिग साईज़। आठ दराज़ें हैं। अंग्रेज़ों के ज़माने का बना है। कोई नवाब साहब इंग्लैंड जाने से पहले पिताजी को कोई गिफ़्ट कर थे। खड़े होकर मेकअप करिये। चाहे स्त्री हो या पुरुष। बरसों हमने इसी के सामने खड़े होकर घंटों कंघी-पटी की है। आत्ममुग्ध होकर खुद को निहारा है। और यह है हमारे पिता जी की राईटिंग टेबल। बहुत बड़ी है न। टेबल लैंप भी है। जाने इसकी रौशनी में रात-रात भर बैठ कर पिताजी ने क्या-क्या लिखा? जब उनको साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था तो कई दिन तक इसी टेबुल पर सजा रहा।
और किताबों का अथाह भंडार। इसके अलावा भी बहुत कुछ। लेकिन धीरे-धीरे सब गायब होने लगा। शाम जब मैं ऑफिस से लौट कर आता तो घर खाली खाली सा दिखता। राईटिंग टेबुल गयी। सफ़ाई दी गयी कि इसकी एक टांग गल गयी थी और फिर चूहों ने इसकी दराज़ में घर बना लिया था। खून का घूंट पीकर रह गया। फिर एक शाम लौटा तो श्रृंगार मेज़ गायब मिली। एक शाम पुराने फ्रिज की जगह नया फ्रिज दिखा। किताबें भी धीरे-धीरे कम होने लगीं। कोई मांग कर ले गया तो कोई.
बहुत लंबी फ़ेहरिस्त है। गिनाने बैठूंगा तो मेरी आंखों से गंगा-जमुना बह निकलेगी। हर बार एक ही स्पष्टीकरण कि पुराना जायेगा तभी तो नया आयेगा। इससे पहले कि किताबें साफ़ हो जातीं, मैंने खुद ही इन्हें करामात हुसैन गर्ल्स डिग्री कॉलेज को गिफ़्ट कर दीं, जहां उर्दू की तालीम का प्रोवीज़न था। थ्री-पीस सोफ़ा और किताबों की रेक जैसे-तैसे अपने कब्ज़े में करके अपने छोटे से कमरे में ठूंस ली।
इस सोफ़े को १९७० में लाये थे पिताजी। तबसे तीन बार मरम्मत हो चुकी है इसकी। पिछली बार १२-१३ साल पहले बना था। रैक्सीन की जगह लाल कपड़े का कवर चढ़ा दिया गया। हमारा घर पार्क के किनारे है। दिन भर बच्चे ऊधम मचाने के साथ साथ गर्द-गुबार उड़ाते हैं। हर दूसरे-तीसरे दिन सफ़ाई करते है हम। वैक्यूम क्लीनर भी है। लेकिन सब नाकाफ़ी रहा। ऊपर से हमें एलर्जी। डॉक्टर ने मना किया है धूल-धक्कड़ और धुएं से बचो।
घर के बॉर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स और दोस्तों-हमदर्दों ने सलाह दी- बेच डालो और नया ले लो। हिसाब किताब भी बताया-समझाया गया हमें। पुराना मरम्मत कराने से बेहतर रहेगा।

Thursday, November 19, 2015

वो स्पर्श!

- वीर विनोद छाबड़ा
आज इंदिराजी का जन्मदिन है। हमने इंदिराजी को कई बार देखा है बहैसियत इंदिराजी और प्रधानमंत्री के तौर पर भी। लेकिन तीन यादें ऐसी हैं जो आज भी ज़हन में ताज़ा हैं। उन्हीं में से एक याद शेयर है। 

१९६२ का चीन युद्ध ख़त्म हो चुका था। लेकिन इसके बावज़ूद नार्थ-ईस्ट से फ़ौजियों आमद-रफ़्त बहुत तेज़ थी। इसका अंदाज़ा लखनऊ जंक्शन रेलवे स्टेशन पर हम रोज़ देखा करते थे। फ़ौजियों की फौरी तौर पर थकान मिटाने की गर्ज़ से लखनऊ जंक्शन रेलवे स्टेशन पर फरवरी-मार्च १९६३ में एक चाय-काफ़ी कैंटीन खोली गयी, बिलकुल मुफ़्त।  
उसका उद्घाटन इंदिराजी ने किया था। तब हम लगभग १२ साल के थे।
हमने सुना नेहरूजी की बेटी आ रही हैं। तब हम स्टेशन के बहुत करीब मल्टी स्टोरी कॉलोनी में रहते थे। पिताजी हम तीनों भाई-बहन को स्टेशन ले गए। कोई पब्लिसिटी या शोर-शराबा नहीं। थोड़ी भीड़ थी, लेकिन बिलकुल शांत, कोई थक्का-मुक्की नहीं। सिक्योरिटी का भी कोई ख़ास इंतेज़ाम नहीं। बस दो सिपाही मौजूद थे। हम लोग कैंटीन से चंद कदम दूर ए.एच.व्हीलर के बुक स्टॉल पर जम गए।
थोड़े इंतेज़ार के बाद इंदिराजी आईं। दो-तीन लोग उनके साथ थे। कोई ताली नहीं। कोई नारा नहीं। बिलकुल छरहरे बदन की इंदिरा जी। ऊंचा कद। सुर्ख चेहरा। ओज से भरपूर। हमारी तो आंखें चौंधिया गई।
हमें याद नहीं कि कांग्रेस में उनकी क्या हैसियत थी। लेकिन हमारे लिए वो चाचा नेहरू की बेटी थीं। हमारे बहुत करीब से गुज़री थीं। इतने करीब से कि उनको आसानी से छू सकते थे। 
इंदिराजी ने फीता काटा। तालियां बजी। कोई नारे बाज़ी नहीं हुई। उद्घाटन के बाद वो दिल खोल कर मुस्कुराईं थीं, तस्वीर के लिए। दो-तीन फ़्लैश चमके। इंदिराजी चाय/काफ़ी की चुस्कियां लीं और इस दौरान वो फौजियों से गुफ्तगू में मशगूल रहीं। कोई आधा घंटा रही वो वहां। हम अपलक उन्हें मंत्रमुग्ध देखते रहे।

Wednesday, November 18, 2015

बेसन का हलवा तो मां ही बनाती थी।


- वीर विनोद छाबड़ा
यूं तो हमें हर तरह का हलवा पसंद है, लेकिन सबसे ज्यादा बेसन का।
हमारे बचपन  के दिन थे। सात-आठ साल की उम्र रही होगी। गर्मी की छुट्टी बिताने नानी के घर भोपाल गए थे।

उन दिनों की नानियां बड़े जिगर वाली होती थीं। बड़ी ख़ुशी ख़ुशी बेटियों को उनके अव्वल दर्जे के शरारती बच्चों सहित दो-दो महीने बर्दाश्त लेती थीं।
हमें शुरू से ही टिक कर नहीं बैठने और हर चीज़ को छेड़ने की आदत रही है। इसी क्रम में हमने बिजली के सॉकेट में अपनी छोटी उंगली डालने की कोशिश की, यह देखने के लिए कि इसकी गहराई कितनी है।
नतीजा, जोर का करेंट लगा। हम ज़ोर से चीखे और झटके से दूर जा गिरे। लेकिन उंगली को कुछ नहीं हुआ। अंगूठे पर ज़रूर चोट लगी। खूनो-खून हो गया। मां ने अंगूठे को अपने दुपट्टे से लपेट कस कर दबा दिया। नानी सरसों का तेल गर्म कर लाई। खून रुक चुका था तब तक। नानी ने तेल लगा दिया। उस दौर में हर चोट के लिए सरसों का तेल ही फौरी मरहम का काम करता था।
लेकिन हमारा रोना नहीं रुक रहा था। मां ने बहलाने की बहुत कोशिश की। एक टका (दुअन्नी) भी रखा हाथ पर। लेकिन हम थे कि माने ही नहीं। मां को गुस्सा आ गया। जड़ दिया एक चांटा। रुकने की जगह रोना और भी बढ़ गया। तभी नानी को एक उपाय सूझा। बेसन का गरमा-गर्म हलवा बना लाई। इससे पहले इसका हमने कभी नाम ही नहीं सुना था। उस दिन हम पहली बार खाने जा रहे थे। हम झिझक रहे थे। तब मां ने चम्मच में थोड़ा सा हलवा भरा। तीन-चार बार फूंक मारी। उंगली की कोर से छुआ। ठंडा हो गया था। हाथ से हमारे गालों को दबाया। हमारा मुंह खुल गया। डाल दिया चम्मच मुंह में। बहुत टेस्टी लगा। मां ने पूछा, कैसा लगा। हमने सर हिला दिया। मां ने कटोरी स्टूल पर रख दी, खा धीरे-धीरे। हम धीरे धीरे ही खाते रहे ताकि देर तक चले।

उस दिन के बाद से बेसन का हलवा हमारे लिए मरहम बन गया और कमजोरी भी। साईकिल चलाना सीखते हुए कई बार गिरे। मां ने बेसन का हलवा बना दिया। दर्द भूल गए। राशन की लंबी दुकान से अमरीका का बेस्वाद पीएल-४८० लाल गेहूं और चीनी पीठ पर लाद लाये तो मां ने ईनाम के तौर बेसन का हलवा बना दिया। डिपो से कोयला मंगवाना रहा हो या टाल से जलावनी लकड़ी या आरा मशीन से बुरादा, मां ने बेसन के हलवे का ही लालच दिया। छठा पास किया या दसवां, यहां तक कि त्रिपुल एमए पास हुए, मां बेसन का हलवा अपने लाल को खिलाना नहीं भूली।

Tuesday, November 17, 2015

आज भी बच्चों की पत्रिका सुख देती है।

-वीर विनोद छाबड़ा
साठ और सत्तर के दशक में मैं रेलवे स्टेशन के ठीक सामने ही रहता था। पिताजी रेलवे में थे। इस नाते रेल हमारी संपति हुआ करती थी।
आईस-पाईस खेलते हुए स्टेशन पहुंच जाते। खेल भूल कर एक नंबर प्लेटफॉर्म पर व्हीलर पर जम जाते। राजा भैया, बालक, मनमोहन, पराग और चंदामामा के पन्ने पलटने शुरू। जो पसंद आई, उठा ली। पैसे पिता जी देंगे। व्हीलर का मालिक चूंकि पिता जी को जानता था इसलिये मुस्कुरा देता।
कई बार तो पिताजी ही धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान लेने भेजते थे। इस तरह बार-बार बुक स्टाल पर जाने से बुक स्टाल मेरी कमजोरी बन गया। जो अभी तक जारी है। बुक स्टाल देखा नहीं कि खड़े हो गए। भले दो मिनट के लिए सही। इस दो मिनट में एक आध मैगज़ीन तो खरीद ही लेता हूं।

हां, तो मैं बता रहा था कि बाल पत्रिकाओं के प्रति रुझान के बारे में। उन दिनों शमा ग्रुप से उर्दू में एक बाल पत्रिका आती थी - खिलौना। पिताजी इसमें से रोचक कहानियां पढ़ कर हमें सुनाया करते थे। पराग पढ़ पढ़ कर मैंने आर्ट और क्राफ़्ट खूब सीखा। सबसे प्रिय था माचिस की खाली डिब्बियों को जोड़ कर मकान या सोफ़ा बनाना। फिर उस पर चिकना कागज़ चिपका देना। इसके लिए हम रोज़ सुबह-सुबह उठ जाते और पान-बीड़ी के दुकानों के आसपास फेंकी गयी खाली माचिस की डिब्बियां बटोर लाते। मित्रों के जन्मदिन पर उपहार में भी यही दे आते थे।
दसवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते बाल पत्रिकाओं के प्रति शौक कम हो गया। लेकिन चंदामामा मैंअरसे तक बदस्तूर पढता रहा।
बाल पत्रिकायें पढ़नी मैंने भले कम कर दीं लेकिन बच्चों से नाता नहीं टूटा। बड़े हो जाने के बावजूद मेरा बालमन बार-बार बचपन की वापस धकेलता रहा। इससे प्रेरित होकर मैंने पराग और लोट-पोट में ढेर कहानियां लिखीं। आकाशवाणी लखनऊ में बाल जगत और आओ बच्चों के कार्यक्रमों से गाहे-बगाहे कहानी पाठ के लिये निमंत्रण भी चला आता। यह सिलसिला कोई पंद्रह साल पहले बिलकुल ही टूट गया।

Monday, November 16, 2015

ज़िंदगी, कैसी है पहेली, हाय रे

-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह का वक़्त। एक बंदा घर से बाहर धकेला गया। वो नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित है। बकौल चिकित्सक बेहतर सेहत के लिए टहलना बेहद ज़रूरी है। उसने पलट कर देखा। दरवाज़ा बंद हो चुका था। मजबूरन उसने खुद को खींचा और चल पड़ा टहलने। आंखें अभी तक बंद-बंद सी हैं। कदम लड़खड़ा रहे हैं। घनघोर पैसेंजर ट्रेन माफ़िक ढकेलता हुआ मंथर गति से वो खुद को सरकाता है।

बंदा उन मार्निंग वाकरों में से है जिनके मन और बुद्धि जुदा-जुदा हैं। मन सुस्ती की दुनिया का बेताज बादशाह। नींद दुनिया का सबसे हसीन तोहफ़ा है। मन जिस्म को पल भर में स्विट्ज़रलैंड की हसीन वादियों से सैर करा वापस ले आता है। मन चंगा है तो कठौती में गंगा। लेकिन स्वास्थ्य की पहरेदार बुद्धि तीन-चार किलोमीटर रोज़ टहलना मांगती है। 
मन और बुद्धि के बीच भीषण द्वंद है। बीच में जिस्म बेवज़ह पिसता है।
आधा घंटा गुज़र चुका है। बंदा अब तक चैतन्य हो चुका है। उसे अपने जैसे अनेक बेमन टहलूए दिखने लगे हैं। कुछ बदबूदार नालों पर बनी टूटी-फूटी पुलिया पर बैठे झपकिया रहे हैं। कुछ को कुत्ते खींच-खींच कर टहला रहे है। उन्हें बिस्तर से उठा कर भी कुत्ते लाये हैं।
बगीचा आ गया। बंदा प्रवेश करता है। यहां नाना प्रकार के समूह हैं। कई लोग विभिन्न मुद्राओं वाले योगा में लीन हैं। बीच-बीच में कनखियों से साथी महिलाओं को तकते भी हैं। कुछ चालाक ध्यान लगाने के बहाने नींद मारते दिखते हैं। सबका एक ही ध्येय है, मन काबू में करना। लेकिन मन रे, तू काहे न धीर धरे?
वहां वरिष्ठजन का भी एक समूह विराजमान है, ज़िंदादिल और बिंदास। ये तो बस पौ फटी नहीं कि पार्क में आ पसरे। इन्हें टहलते और योगा-व्यायाम करते कभी नहीं देखा गया। ये डेढ़-दो घंटा दिल खोल कर हंसी-ठट्ठा करते हैं। बंदा इन्हीं का सदस्य है।
आज यहां जश्न का माहौल है। अमेरिका से सत्या जी लौटे हैं, पूरे छह महीने बाद। बेटे के परिवार की सेवा करने गए थे। तीन महीने बाद फिर जाएंगे। तब तक बहु के माता-पिता लौट चुके होंगे। तभी किसी ने कई दिन से गायब मदन जी का ज़िक्र छेड़ दिया। उनकी ड्यूटी इन दिनों कुत्ता टहलाने पर है।