Tuesday, September 29, 2015

महमूद - कॉमेडी का बादशाह।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज दिवंगत महमूद अली का जन्म दिन है।
महमूद साठ और सत्तर के दशक के दौर की फिल्मों की कॉमेडी के बेताज बादशाह थे। पिता मुमताज़ अली प्रसिद्ध डांसर और चरित्र अभिनेता। बाल
कलाकार के रूप में महमूद ने कई फिल्मों में काम किया। लेकिन जवान हुए तो फ़िल्में रास नहीं आईं। कई छोटे-मोटे काम किये। निर्माता-निर्देशक प्यारे लाल संतोषी की ड्राईवरी की। भाग्य का खेल है कि संतोषी के पुत्र राजकुमार संतोषी ने महमूद को 'अंदाज़ अपना में' (१९९३) में प्रोड्यूसर की भूमिका में कास्ट किया।
बहरहाल, महमूद ने ज़िंदा रहने के लिये मीना कुमारी को टेबल-टेनिस की ट्रेनिंग दी। बाद में मीना की छोटी बहन मधु से महमूद की शादी हुई। मीना की जब कमाल अमरोही से अनबन चल रही थी तो महमूद का ही वो घर था जहां मीना को आसरा मिला। मीना एक बड़ी एक्ट्रेस थी। उन्होंने बीआर चोपड़ा से महमूद की सिफ़ारिश की। लेकिन ख़ुद्दार महमूद को जब पता चला तो उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि वो 'धूल का फूल' और 'कानून' में छोटे छोटे किरदारों में दिखे।  
महमूद यूं ही नहीं टॉप पर पहुंचे। कई छोटे-मोटे रोल किये। गुरुदत्त उन पर खासतौर पर मेहरबान रहे - सीआईडी, कागज़ के फूल,प्यासा आदि।
'परवरिश' में महमूद का बड़ा रोल था और वो भी भारी भरकम राजकपूर के सामने। बाद में उन्होंने कपूर ख़ानदान की 'कल आज और कल' की तर्ज 'हमजोली' में सफ़ल कॉपी की। यह बड़ा मज़ाक था। कपूर खानदान और उनके शुभचिंतकों ने इस पर ऐतराज़ भी किया। महमूद तब बहुत बड़े कॉमेडी स्टार थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने माफ़ी मांगी।
स्ट्रगल के दिनों में महमूद की किशोर कुमार से भेंट हुई। महमूद की प्रतिभा से वो वाकिफ़ थे। कई प्रोड्यूसरों से उनकी सिफ़ारिश की यह कहते हुए कि मैं अपने ही रोल तुम्हें दिला कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। तब महमूद ने उनसे वादा किया था कि एक दिन मैं आपको अपनी फिल्म में ज़रूर कास्ट करूंगा। आगे चल कर 'पड़ोसन' में किशोर यादगार अदाकारी की। दोनों 'साधु और शैतान' में भी हिट रहे।

महमूद के हास्य मर्म को दक्षिण भारत के फिल्मकारों ने खूब भुनाया - ससुराल, हमराही, गृहस्थी, बेटी-बेटे आदि।
'छोटे नवाब' बना कर खुद को कॉमेडी हीरो के रूप में प्रोजेक्ट किया। फ़िल्म भले नाकाम रही मगर महमूद ने लोहा मनवा लिया कि वो किसी भी हीरो को कॉमेडी के बूते पीछे धकेल सकते हैं। साठ और सत्तर के दौर की कोई भी फ़िल्म उठा कर देखें तो पता चलता है कि हीरो से ज्यादा महमूद की पूछ होती थी। मुख्य कहानी के साथ महमूद की अलग कहानी चलने लगी। और क्या बच्चे और क्या बूढ़े और जवान, सभी को महमूद की एंट्री का इंतज़ार रहने लगा। उनकी कॉमेडी ने न सिर्फ दर्शकों को हंसाया बल्कि कॉमेडी को भी हंसना सिखाया।
शोभा खोटे और अरुणा ईरानी के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी। बरसों हवा भी रही की महमूद और अरूणा की शादी हो चुकी है। कई साल बाद जब महमूद से अनबन हुई तो अरुणा ने इससे इंकार किया।
रद्दी फ़िल्में भी महमूद की वज़ह से लिफ़्ट हुई। महमूद की मौजूदगी के कारण हीरो की चमक फीकी पड़ने लगी। शायद इसी कारण से महमूद के दुश्मनों की संख्या बढ़ गयी। तमाम हीरो लॉबी करने लगे - महमूद हटाओ। लेकिन महमूद डटे रहे। यह उनका दौर था। वितरकों ने साफ़ कर दिया महमूद नहीं तो फ़िल्म नहीं उठेगी।

महमूद ने 'छोटे नवाब' में संगीतकार आरडी बर्मन को ब्रेक दिया। अमिताभ बच्चन के डूबते कैरियर को 'बांबे टू गोवा' में लिफ्ट किया। स्ट्रगल और कड़की के दिनों में अमिताभ को महमूद का ही सहारा था। वो उनके घर पर महीनों रहे। फ़िल्में दिलाने में भी महमूद ने उनकी बहुत मदद की। महमूद उनके भाईजान थे। महमूद दीवार, ज़ंज़ीर और शक्ति में उनके प्रदर्शन से खुश होते रहे। महमूद ने एक इंटरव्यू में अपना दर्द भी उड़ेला - जब अमिताभ के पिताजी की तबियत ख़राब थी तो मैं उनको देखने गया। लेकिन हफ़्ते बाद उसी अस्पताल में मेरी बाई-पास सर्जरी हुई। अमिताभ अपने पिताजी को देखने सुबह शाम आते रहे। लेकिन मुझे देखना तो दूर 'जल्दी निरोग हों' एक कार्ड तक नहीं भेजा।
आईएस जौहर से महमूद की खूब पटरी खाती थी। 'नमस्ते जी' और 'जौहर महमूद इन गोवा' बड़ी कामयाबियां थीं। लेकिन 'जौहर महमूद इन हांगकांग' फ्लॉप रही। जौहर चाहते थे कि महमूद के साथ उनकी जोड़ी लॉरल-हार्डी के माफ़िक चले। लेकिन महमूद ने मना कर दिया। जौहर की निगाह फ्रंट बेंचेर पर होती थी जबकि महमूद को हर वर्ग के प्यार की ज़रूरत थी।
महमूद बतौर हीरो भी कामयाब रहे। छोटे नवाब, नमस्ते जी और शबनम के अलावा लाखों में एक, मैं सुंदर हूं, मस्ताना, दो फूल, सबसे बड़ा रुपैया आदि इसकी मिसाल हैं।

महमूद ने बेशुमार फिल्मों में दक्षिण भारतीय किरदार अदा किये हैं। इस पर उन्हें खूब तालियां भी मिलीं। लेकिन यहां कुछ गलती कर गए वो। अस्सी के दशक में वो खुद को दोहराने लगे। जब उन्हें अहसास हुआ तब तक देर हो चुकी थी। नई खेप आ चुकी थी। दर्शकों की पसंद भी बदल चुकी थी। महमूद खुद को बदल नहीं सके और न पुराने महमूद को खोज सके। टाईमिंग गड़बड़ा गयी। उनके लिए चुटीले संवाद लिखने वाले लेखक जाने कहां चले गए। उन्हें हमेशा फैमिली का कॉमेडियन माना गया। ट्रेजेडी यह भी रही कि फैमिली फ़िल्में बनने ही बंद हो गयी। कल तक जिनकी फ़िल्में महमूद भाईजान की कॉमेडी की वज़ह से चलती थीं, वो सब किनारा कर गए। 
महमूद ने १९९६ में दमदार एंट्री मारने की एक आख़िरी कोशिश की। अपने बेटे मंज़ूर अली का परिचय कराने के लिए 'दुश्मन दुनिया का' निर्देशित की। सलमान खान और शाहरुख़ खान भी भाईजान के प्रति प्रेम की ख़ातिर मेहमान बने। लेकिन दुनिया को हंसा नहीं सके।
महमूद सिर्फ़ संवाद और मैंनेरिज़्म के बूते ही फ़िल्म को हिट नहीं कराते थे, उन पर फ़िल्माये अनेक गाने भी सुपर-डुपर हिट रहे। हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं.अपनी उल्फ़त पे ज़माने का यह पहरा न होता...वो दिन याद करो.प्यार की आग़ में तन बदन जल गया.आओ ट्विस्ट करेंओ मेरी मैना, तू मान ले मेरा कहनातुझको रखे राम तुझको अल्लाह रखे.एक चतुर नार करके सिंगारसज रही गली मेरी अम्मा चुनरी गोटे में.
महमूद को दिल तेरा दीवाना के लिए श्रेष्ठ सह-अभिनेता और प्यार किये जा, वारिस, पारस और वरदान के लिए श्रेष्ठ कॉमेडियन का फिल्मफेयर पुरुस्कार मिला।  इसके अलावा वो लव इन टोकियो, मेहरबान, नीलकमल, साधू और शैतान, मेरी भाभी, हमजोली, मैं सुंदर हूं, बांबे टू गोवा, दो फूल, दुनिया का मेला, कुंवारा बाप, क़ैद, सबसे बड़ा रुपैया, नौकर और खुद्दार के लिए बेस्ट कॉमेडियन नामांकित किये गए। उनकी कुछ अन्य चर्चित फ़िल्में हैं - छोटी बहन, बेटी-बेटे, राखी, आरती, दिल एक मंदिर, ज़िंदगी, ज़िद्दी, चित्रलेखा,दो दिल, आरज़ू, पत्थर के सनम, दो कलियाँ, औलाद, आंखें, प्यार ही प्यार, नया ज़माना, जिन्नी और जॉनी आदि।
महमूद ने छोटी-बड़ी लगभग तीन सौ फ़िल्में की। २३ जुलाई २००४ को नींद में ही महमूद ने आख़िरी सांस ली। कॉमेडी की ट्रैजिक बिदाई। उन दिनों वो अमेरिका में अपना ईलाज करा रहे थे। महमूद युग के बाद अनेक कॉमेडियन आये और गए, लेकिन उनके जैसा दूजा कोई न आया।
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