Monday, September 28, 2015

अक़्ल बनाम भैंस और बंदूक बनाम कलम।

- वीर विनोद छाबड़ा
अक़्ल बड़ी या भैंस? सबको मालूम है कि अक़्ल ही बड़ी है। फिर भी उल्टी गंगा बहाने में माहिर आशावादी कवायद में लगे हैं। वो सुबह कभी तो आयेगी जब भैंस अक़्ल से बड़ी कहलायेगी। मंत्री जी की पांच-छह भैंसे चोरी
हो जाती हैं। हलकान महक़मा अक्ल को घास चरने छोड़ देता है। खोये इंसानों की बजाये भैंसे ढूंढ़ लाता है। जितना पैसा खोयी भैंसो को तलाशने पर खर्च किया इतने में तो नई भैंसें खरीद लाते। मगर अक़्ल होती तब न!
अजी छोड़िये, आप हैं कहां? कुत्ता-बिल्ली खोने तक की रिपोर्टें दर्ज होती है। क्या करे महक़मा भी। सारी अक़्ल तो इन्हें तलाशने में खर्च होती है।
चैनल पर ख़बर न ठीक से सुनी, न देखी और न लाईनों के भीतर देखने की कोशिश की। सिर्फ फोटो व बाईट देख उत्तेजित हो गये। उठ गये लाठी-डंडे। जैसे दिखाने वाले वैसे ही देखने वाले। नई किस्म की पौध है। कोई दहाड़-दहाड़ कर खुद को सुुनामी बताता है तो कोई राॅबिनहुड का अवतार होने का दावा करता है। कोई डीएनए में घुसे भष्टाचार और अपराध को झाड़ू से बुहार देता है।
कभी झूठ बोलना पाप और चोरी करना अपराध था। इसमें लिप्त धिक्कारे जाते थे। अब गंगा उलटी बहती है। मूल्य पलट गये हैं। लड़का ऊपर से कितना कमाता है?…अजी, ऊपरी कमाई टेबुल के नीचे से नहीं, खुलेआम ऊपर से लेता है। बहादुर लड़का!
ज्ञान चक्षु खोलने के लिये एक से बढ़ कर एक हाई-फाई संत प्रगट हो रहे हैं। माताओं को भी नहीं छोड़ा। ज्ञान का विपुल भंडार लेकर वीर अभिमन्यु गली-गली जन्म ले रहे हैं। ज्ञान बिकाऊ है। एक छोटी सी ज़मात फिलहाल जेल में चक्की पीस रही है। लेकिन पब्लिक है कि मानती नहीं। देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान! भगवान को सलाखों के पीछे डाल दिया। घोर कलयुग!
कभी क़लम सबसे बड़ी ताकत थी। पचास के दशक की फिल्म - मास्टरजी। दिक्कत में फंसे बुजुर्ग को कलेक्टर साहब षणयंत्रकारियों के चुंगल से छुड़ाते है। हैरान-परेशां बुज़ुर्ग उसे शुक्रिया कहते हैं। कलेक्टर उल्टे उनके पांव छूकर बताता है कि वो वही छोटा नटखट नंदू है जिसे आपने ईनाम में क़लम इनायत की थी। उसी क़लम की बदौलत वो कलेक्टर बना। वोे क़लम आज भी बतौर अमानत महफूज़ है। आज बंदूक बड़ी ताक़त है। क़लम को ख़ामोश कराती-फिरती है। लेकिन क़लम के दावेदार भी बहुत हैं। क़लम जब चाहे इंसान को कुत्ता और कुत्ते को इंसान बना सकती है।
देखे गये सीन ज्यादा देर टिकते नहीं। रात गयी, बात गयी। पर लिखी बात पर दूर तक बात होती है। एक से एक सूरमा माथा-पच्ची करते हैं। कलम के बूते कालजयी तुलसीदास और प्रेमचंद आज भी प्रासांगिक हैं, उनके लिखे पर आज भी लंबे मंथन होते हैं। शोध चलते हैं। जाने कितने डाक्टरेट पा गये। तोपें-एटमबम जिस समस्या का हल नहीं निकाल सके उसे ढाई आखर प्रेम चुटकियों में हल कर दिया। दुनिया का आज भी सबसे खूबसूरत लिखित शब्द है, जिस पर अनेक महान गाथायें लिखी जा चुकी है। ये सिलसिला रुकेगा नहीं, अनंत तक।
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नोट - प्रभात ख़बर दिनांक २८ सितंबर २०१५ में प्रकाशित।
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