Wednesday, September 23, 2015

कामतानाथ हिंदी के लिए बड़ी उपलब्धि हैं।

-वीर विनोद छाबड़ा
महत्व कामतानाथ- व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा।
यह आयोजन २२ सितंबर को दिवंगत कामतानाथ जी का ८१वें जन्मदिन के अवसर पर लखनऊ के इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी जी ने की।

कार्यक्रम के संचालक सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश कामतानाथ जी के बेहद करीबी रहे, कहानी और नाटक से लेकर ट्रेड यूनियन
तक। राकेश बताते हैं कि कामतानाथ सिर्फ़ समर्थ कहानीकार, उपन्यासकार और नाटककार ही नहीं थे। एक कुशल अभिनेता भी रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद ज़हीर पर बनी टेलीफ़िल्म में उन्होंने सज्जाद ज़हीर का रोल बखूबी किया था।  वो रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया में कार्यरत रहे। कर्मचारियों के नेता भी। उनके समर्पण और प्रतिबद्धता के दृष्टिगत उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। वो जेल भी गए। लंबे समय तक रहना पड़ा उन्हें वहां। वहीं उनके मस्तिष्क में जन्मा एक नायाब उपन्यास - एक और हिंदुस्तान। वो कमलेश्वर के समकक्ष समकालीन कहानी आंदोलन के प्रवर्तक रहे। बतरस को शिल्प की स्वीकृति दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वंचितों के बात की। अगर वो आज होते तो सांप्रदायिकता के नाम पर वो सब उनके दरवाज़े पर खड़े होते जिन्होंने कलबुर्गी, पंसारे और डोभालकर की हत्या की है। उ.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद लंबे समय तक संभाला। उनके उपन्यास 'काल कथा' के दो खंड आ चुके हैं और अब अक्टूबर में बाकी दो खंड सहित चारों खडं एक साथ आ रहे हैं।

सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर बहुत करीबी रहे हैं कामतानाथ जी के। साथी के बारे में बोलना बहुत कठिन है। वो उनके १९६० से साथी रहे। कामतानाथ समकालीन कथाकारों से बिलकुल अलग थे। वो आंदोलन में नारे लगाते और उसे आगे भी बढ़ाते थे। लीड करते थे। वो वास्तव में एक्टिविस्ट थे। और साथ ही चिंतनशील लेखक भी। दो नावों के
सवारी कोई आसान नहीं होती। पर कामतानाथ ने सवारी की और सफलता से चले। उन्होंने एक्टिविज़्म के साथ-साथ परिवार को भी संभाला। सिर्फ़ पत्नी के हवाले नहीं किया। खुद भी हाथ बटाया और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। उनका चिंतन आम आदमी का चिंतन था और भाषा भी आम आदमी के थी। उनकी इंसानियत मेरे लिए एक प्रेरक थी। नेता होते हुए भी ज़ोर से नहीं बोले, अनियंत्रित नहीं हुए कभी। उनके समकालीनों में चार खंड में हिंदी का उपन्यास लिखने वाला कोई नहीं। 'काल कथा' उपन्यास की भाषा संघर्षशील जन और वर्ग से जुड़ी है। सांप्रदायिकता का जो चेहरा आज दिख रहा है वो पहले ही दिख गया था इस उपन्यास में। उनकी आलोचना बड़े-बड़े लेखकों ने की। मुझे बेहद दुःख हुआ। इतना कि एक लेख उस आलोचना के विरोध में लिखना पड़ा। डॉ नामवर सिंह और राजेंद्र यादव जी ने इसकी आलोचना की। मैंने कामतानाथ को मैंने उस दृष्टि से देखा जैसे कोई कहानीकार देखता है। उनमें आम आदमी की संवेदना थी। एक ज़माना था जब लोग एक-दूसरे के बात सुनते थे। उन्हें समझने की कोशिश करते थे। आज ऐसा नहीं हैं। कामतानाथ मूल्यों में यकीन करते हे। अपने में उतारते थे। समकालीन संवेदनाओं और सोच को साथ लेकर चले। ढेर चुनौतियों को झेलते हुए रचनाधर्मिता को साथ लेकर चले। उन्होंने उपेक्षा का भी सम्मान किया। इस देश की मिट्टी में उनकी सुगंध आती है।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक शक़ील सिद्दिक़ी ने कामतानाथ जी की कहानियों पर नज़र डाली। मैंने एक बार इंटरव्यू लिया था उनका। उन्होंने कहा जो जुल्म और बेइंसाफी की मुख़ालफ़त नहीं करता वो बड़ा लेखक हो ही नहीं सकता। उन्होंने मज़दूर संघर्ष और वंचित पर ही नहीं लिखा, परिवार पर भी लिखा। परिवार के बिखरने की भी बात की। गांव से शहर की ओर पलायन को भी देखा। विविधिता थी उनमें। वो विश्वसनीय लेखक थे। उनका फ़लक बहुत बड़ा है। उनकी कहानियां कालजई थीं। मंचन भी हुआ उनका। उनकी कहानियों में गंगा-जमुनी तहज़ीब भी जीवंत होती दिखी मुझे। एक कहानी है उनकी - रिश्ते नाते। बड़े भावुक रिश्ते हैं उसमें। एक ग्रामीण वृद्ध अपने युवा पौत्र को चलते वक़्त एक लाल थैली पकड़ाता है। उसे लगता है कि इसमें
आपार धन है, लेकिन जब वो घर जाकर उसे खोलता है तो उसमें वंशावली निकलती है। कामतानाथ जी की कथायें पाठक को अपनी कहानियां लगती हैं। उन्होंने अमानवीय स्थिति की असंवेदनशीलता पर लिखा। उनकी भाषा गढ़ी हुई और आरोपित भाषा नहीं है। उसमें उर्दू का हस्तक्षेप बहुत है। कामतानाथ जी मूलतः उर्दू में शिक्षित थे। मगर एमए इंग्लिश में किया। पहली कहानी भी अंग्रेज़ी में लिखी। मेरी नज़र में कामतानाथ जी हिंदी में हिंदी के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि हैं।     
         
मो.मसूद साहब कामतानाथ नाथ जी के बहुत करीबी मित्र रहे हैं। उन्होंने बताया कि कामतानाथ जी को अपने चार खंडों के उपन्यास 'काल कथा' को लिखने में तीस साल लगे। हर खंड अपने में मुकम्मल है। दो खंड तो प्रकशित हो चुके हैं। उनकी आलोचना भी हुई है। कहा गया कि इसमें इतिहास ज्यादा है। लेकिन वास्तव में यह जीवन संघर्ष, उस वातावरण और उस दौर की कहानी है। कौन सरकार थी? क्या विचारधारा थी? आम आदमी कैसे झेलता था उन्हें? क्या अपेक्षाएं थीं उसको? इसमें १९३६ में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक सम्मेलन की संपूर्ण गतिविधियों का ज़िक्र भी मिलता है। यह  अकादमिक दृष्टि से भी बहुत उपयुक्त है। इसमें दो परिवारों के कहानी मिलती है। भाषा का महत्व है। हर सवाल के जवाब में सवाल है। अवधी बहुतायत में है। वो पात्रों को सदा साथ लेकर चले।  भारत के टॉलस्टाय थे।  

सुप्रसिद्ध कथाकार हरिचरण प्रकाश का कथन है कि 'काल कथा' पीरियड नावेल है। यह देखना चाहिये कि अकादमिक है या आम आदमी का इतिहास है या फिर समानांतर उपन्यास है। चित्रण पूरे समय को सामने लाता है। मुझे यह प्रामाणिक उपन्यास लगता है। इसे नए नज़रिये से पढ़ने की ज़रूरत है। पिघलेगी बर्फ - में राजा नही प्रजा बदली थी। ऐसा पहली बार हुआ था। पार्टीशन पर बात हुई है इसमें। मेरी निगाह में कामतानाथ भौगोलिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना को झंकृत करते हैं।

सुप्रसिद्ध और वरिष्ठ कथाकार/उपन्यासकार शिवमूर्ति बताते हैं कि कामतानाथ से उनकी पहली मुलाक़ात बहुत पहले कानपुर में हुई थी। मैं सिर्फ ४५ दिन रहा  वहां। उनका व्यक्तित्व सबसे अलग और आकर्षित करने वाला था। समझने और समझाने का तरीका बहुत ही अच्छा था। गंभीरता आकर्षित करती थे। काल कथा के दोनों खंड पढ़े हैं मैंने। लगता है इतिहास को समेट कर कैप्सूल में बंद कर दिया गया है। कामतानाथ सामग्री, भाषा और समय को साथ लेकर चले हैं। मेरी नज़र में 'काल कथा' जैसा आज तक कोई नहीं है।

कामतानाथ जी के पुत्र आलोक ने बताया कि उन्हें इल्म है कि पिता ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत काम किया है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा। एक पाठक के रूप में पढ़ा। सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लेखकों को भी पढ़ा। पिताजी को पढ़ कर ही पता चला कि हमारा हिंदुस्तान कैसा है। विरासत में साहित्य के मिलने का जीवन में बहुत महत्व है। साहित्य धैर्य देता है। बुद्धि को कुशाग्र करता है। इसने मुझे इंजीनियरिंग शिक्षा पढ़ने में बहुत मदद की। बचपन में उन्होंने नंदन और चंपक जैसी बाल पत्रिकाएं लाकर हममें पढ़ने की आदत डाली। आज पढ़ने में गिरावट आई है। उन्होंने अपने लेखन में अवधी का बहुत प्रयोग किया है। हमारे चाचा आते थे तो फिर वो और पिताजी अवधी में ही बात करते थे। हम बस चुपचाप सुनते थे। बहुत आनंद आता था हमें। 

उर्दू के सुप्रसिद्ध सीनियर अफ़साना निगार, पत्रकार, संपादक आबिद सुहैल साहब ने बताया कि उनकी कामतानाथ जी मुलाक़ात एक डॉक्टर के क्लीनिक में होती थी। लेकिन मैं बरसों नहीं जान पाया कि वो लेखक हैं। एक दिन उर्दू में उनकी कहानी मिली। उस वक़्त भी नहीं जान पाया। बल्कि बाद में चला कि यह वही कामतानाथ हैं। उसका बच्चा - उनकी यह कहानी पढ़ी। बच्चा मरता है तो आदमी दुःख को कैसे बर्दाश्त करता है और फिर दूसरों को हिम्मत देता है बर्दाश्त करने की। पुराने लखनऊ के बारे में वो बड़े ध्यान और एकाग्रता से सुनते थे। रिश्ते कैसे होने चाहिए? सिर्फ़ बताते ही नहीं उस पर खुद भी अमल करते थे।  उनका जाना मेरा निजी नुक़सान है। वो बहुत बड़े थे और जितना वो जानते थे, मैं उसका एक हिस्सा भी नहीं जानता था।

कार्यक्रम के अध्यक्ष और सुप्रसिद्ध वरिष्ठ उपन्यासकार व कथाकार शेखर जोशी जी के व्यक्तिगत मित्र थे कामतानाथ। 'काल कथा' उपन्यास परम्पराओं की कथा है। उनका व्यक्तित्व विद्रोही था। इसीलिए वो एक्टिविस्ट बने। इस व्यक्तित्व को उन्होंने साहित्य के माध्यम से आगे बढ़ाया। वो नेता थे। कर्मचारियों के प्रति प्रतिबद्ध। अपने पात्रों से भी उन्होंने न्याय किया और वर्ग दृष्टि से देखा।

कामतानाथ जी का जन्म २२ सितंबर १९३४ को हुआ था ०७ दिसंबर १९१२ को उन्होंने इस धरती से विदा ली। 

अंत में प्रगतिशील लेखक संघ की सचिव किरण सिंह ने धन्यवाद देते हुए कहा कि इस कार्यक्रम के माध्यम से कामतानाथ जी के व्यक्तित्व को समझने में मदद मिली।

समारोह में वीरेंद्र यादव, अखिलेश, प्रो रमेश दीक्षित, दयानंद पांडेय, बंधु कुशावर्ती, विजय राज बलि माथुर, शीला पांडे, राम किशोर, ऋषि श्रीवास्तव सुधाकर अदीब, अनिल दुबे, नसीम साकेती आदि अनेक समालोचक, लेखक, कवि आदि विशिष्टगण उपस्थित थे। 
नोट - सभी तस्वीरें सुश्री शीला पांडे जी के सौजन्य से।
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२३-०९-२०१५ mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

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