Monday, September 14, 2015

हिंगलिश ही सही बढ़ तो रही है।

-वीर विनोद छाबड़ा
पचास के दशक का अंत। हमने जब होश संभाला तो खुद को लखनऊ के चंदर नगर में पाया। पार्टीशन से आये शरणार्थियों का बोलबाला था। पूरा

पंजाबी माहौल। दुकानदार भी पंजाबी। पढ़ते उर्दू का अख़बार थे। लेकिन पंजाबी लहज़े में हिंदी बोलते थे। यहीं हमने पहली मर्तबे हिंदी और अंग्रेज़ी का अख़बार देखा। साल भर एक हिंदी मीडियम मिशनरी स्कूल में पढ़े। हिंदी में बाईबल पढ़ी। पिताजी को चिंता हुई कि बच्चे महर्षि बाल्मीकि को कैसे जानेंगे
? एक सरकारी स्कूल में भर्ती हो गए। कक्षा एक से लेकर ट्रिपल एमए तक हम हिंदी माध्यम से ही ज्ञान प्राप्त करते रहे। इस बीच १९६८ में अंग्रेज़ी विरोधी आंदोलन चला। अंग्रेज़ी के बोर्ड उतरे और हिंदी के टंगे। १९८९ में श्री मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री बने। कई अंग्रेज़ी पसंद विभागों को ख्याल आया कि प्रदेश की राज्यभाषा हिंदी है। 
जो हिंदी में सोचते थे और अंग्रेज़ी में तरजुमा करके लिखते थे, अब हिंदी में लिखने भी लगे। कार्य सहज और त्वरित निपटने लगे।
लेकिन आम ज़िंदगी में अंग्रेज़ी मानसिकता हिंदी पर हावी रही। रैट के पीछे कैट है.टेबुल पर नाईफ़ रखा है.मुमु गुड ब्वॉय है.टॉयलेट में पॉटी करेगाकुर्सी पर नहीं चेयर पर बैठिये। कुत्ता भी 'सिट' कहने पर बैठता है और 'अप' पर खड़ा होता है। हिंदी में क्षमा मांगने वाले को हिक़ारत से देखा जाता है। अंग्रेज़ी का सॉरी तो हर मर्ज़ की दवा है। दूधवाला हो सब्ज़ीवाला  या फिर रिक्शावाला छुट्टा नहीं 'चेंज' बोलता है। भिखारी भी टेन रूपीस प्लीज़ कहने लगा है। अंग्रेज़ी बोलने वाला गरीब खुद को अभिजात्य और इलीट के समकक्ष समझाता है।
लेकिन हम निराश नहीं हैं। हमें फ़ख़्र है कि बच्चों के नाम शुद्ध हिंदी में हैं - नदिया, नेहा, पंखुड़ी, पायल, अंकिता, सुरभि, शुभांगी, आकांक्षा आदि। अर्थ जानने के लिए शब्दकोष की सहायता भी लेनी पड़ती है। 
घरों-बंगलों के गेट पर शिलापट लगे हैं -श्रद्धा, छाया, घरौंदा, मातृछाया, आसरा, शांति
कॉरपोरेट सामान बेचने के लिए हिंदी ही चाहिये। विज्ञापन देखिये। उत्पाद पर नाम अंग्रेज़ी में है। मगर यह पर्याप्त नहीं। साबुन का प्रयोग करने वाली सुंदरी हिंदी में बताती है उसका रंग रूप निखर आया है.फलां क्रीम से मुंहासे गायब हो  गए हैं.बिग बी तो कई कुछ मीठा हो जाये कह कर अरबों की चाकलेट बेच चुके हैं.सेकंड हैंड कार चला रहा कुत्ता भी हिंदी में संतोष व्यक्त करता है। हमें लगता है अगर कुत्ते बोलते होते तो हिंदी ही बोलते। इसे सीखने और जानने वालों की संख्या बढ़ रही है।

रोज़ी-रोटी न दे पाने के कारण कई अगले पच्चीस साल में अंग्रेज़ी सहित कई क्षेत्रिय भाषायें कमजोर हो जाएंगी। लेकिन हिंदी नहीं। हो सकता है वो आज की हिंदी न हो। उसमें अंग्रेज़ी के कई शब्द समाहित हो चुके हों। कुछ लोग उसे हिंगलिश भी कहते मिलें। और सौ साल बाद शायद दुनिया से अंग्रेज़ी गायब हो जाये। बचे-खुचे अंग्रेज़ हिंदी में समाहित अपनी इंग्लिश तलाशते मिलेंगे। और कब्र में लेटी अंग्रेज़ों की रूहें खुश होंगी कि हिंदी में इंग्लिश ज़िंदा है।   
फेसबुक पर तो हिंदी का कब्ज़ा है ही। अंग्रेज़ीदां भी अपनी बात दूर-दूर तक पहुंचाने के लिये हिंदी बोल रहे हैं। लिहाज़ा हमें नहीं लगता कि हिंदी खतरे में है। यह विशाल नदी है। अनेक छोटी-छोटी नदियां इसमें समाती जा रही हैं। 
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नोट - प्रभात खबर दिनांक १४ सितंबर २०१५ में प्रकाशित। 
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