Saturday, September 12, 2015

फ़ूफा की फ़ूफी!

-वीर विनोद छाबड़ा
फ़ूफा की फ़ूफी ने ताउम्र दांत से पैसा पकड़ा। चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाये। कंजूस ही नहीं महा-मक्खीचूस।
दरअसल फ़ूफी शुरू से ऐसी नहीं थी। उसे ऐसा बनने के लिये फ़ूफा ने मजबूर किया। उन्हें न घर की फ़िक्र और न अपनी। जितना कमाया जुए में
शराब उड़ा दिया। धुआं भी खूब उड़ाया। शबाब के भी खासे मुरीद थे। कुल मिला कर कोई ऐब ऐसा न था जिसके लिए फ़ूफा जी जाने न जाते हों। नीचे की कमाई तो बेहिसाब। जैसे आती वैसे ही निकल जाती। बचत नाम की ज़ीरो बटा अंडा।  
कभी कभी तो सारे पीपे खाली हो जाते। फूफी बेचारी क्या खुद खाए और क्या दो अदद बच्चों को खिलाये। अड़ोसी-पड़ोसी अच्छे न होते तो फ़ाके करने पड़ते। पानी एक बार नहीं कई बार सर से ऊपर निकला। कोई और होती तो कबकी कुएं में छलांग लगा चुकी होती। यह तो फ़ूफ़ी की हिम्मत की दाद देनी होगी कि पहुंच गयी एक दिन अपने फ़ूफ़ा के दफ़्तर।
ज़बरदस्त हंगामा हुआ। शोर बॉस के कान तक जा पहुंचा। बाल बच्चों वाला आदमी था वो। कई घर बर्बाद होते देखे थे उसने। हुकुम लिख दिया कि फ़ूफा का वेतन फ़ूफी को मिलेगा।
उस दिन से फ़ूफ़ी के अच्छे दिन आने शुरू हो गए। लेकिन एक दिन फ़ूफ़ी की बचत पर नामुराद फ़ूफा की नज़र पड़ गयी। सब साफ़ हो गया।
अबकी फ़ूफी ने ऐसी जगह बचत छुपाई कि फ़ूफा के फ़रिश्ते भी न सोच पायें। कोठारी में पड़े पीपे में। पुराने सड़े कपड़ों के बीच। डिब्बे में पहले नोट और ऊपर अरहर की दाल। आटा हटाओ तो वहां भी रूपए मिलें। घर में दो चूहेदानियां थीं। एक चूहेदानी में बचत के रूपए। पड़ोसी के घर मेहमान की महक पाते ही मय बच्चों के पहुंच जाती।
इसी बचत के बूते ही फ़ूफी ने बच्चों को बढ़िया तालीम दिलाई। पहले बिटिया और छह महीने बाद बेटे को ब्याह दिया। जी खोल कर खर्च किया। सब बोले, वाह फ़ूफी, वाह। अगली-पिछली सारी कसर पूरी कर दी।
अब फ़ूफी अस्सी की होने को आई। फ़ूफा को खर्च हुए दस साल गुज़र चुके थे। बहुत भाग-दौड़ की थी फ़ूफी ने। पानी की तरह पैसा बहाया। बड़े अस्पताल में बढ़िया ईलाज कराया। मगर फूफा का मर्ज़ डॉक्टर काबू न कर पाये। फूफा अंत समय में समझदार हो गए। जो किया है उसका फल इसी जन्म में भुगतना है।
बेटा-बहु तो नौकरी के सिलसिले में पहले से ही बंगलौर में थे। फ़ूफ़ी एकाकी हो गयी। लेकिन चोरी-चुपके बचत वाली आदत न गयी। सलवार के नेफ़े में अब भी हज़ार-पांच के कई नोट मोड़-मूड़ छुपा रखती।
उस दिन सुबह दूधवाला आया। बहुत देर तक कुंडा खड़खड़ाया। अड़ोस-पड़ोस में खबर दी। आख़िरकार दरवाज़ा तोड़ा गया। फ़ूफी नींद में ही परलोक सिधार चुकी थी। बाल-बच्चों को ख़बर दी गयी। शमशान पर पूरा मोहल्ला गवाह बना।

लौट कर जामा तलाशी हुई। दाल और आटे के डिब्बे खंगाले गए। स्टोर में रखे टीन के तीन पीपे खोले गए। हज़ारों रूपये निकले। हज़ार से लेकर एक रुपये का नोट भी। कुल मिला कर दो लाख से कम नहीं थे। मगर सब बेकार। तक़रीबन सब सड़ गए थे। उसके ऊपर रखे पुराने कपडे भी नहीं बचे थे। ज़मीन पर रखे गये थे पीपे। बरसों से सरकाये भी नहीं गए थे। टूटा-फूटा फर्श। पीपों में सीलन घुस गयी थी। खून-पसीना बहा कर की गयी बचत यों हुई बर्बाद। 
मोहल्ले की तमाम महिलाओं ने आंखें फाड़-फाड़ कर यह नज़ारा देखा।
अगले ही दिन नज़दीकी बैंक में कई नये बचत खाते खुल गए।
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