Tuesday, September 1, 2015

एक्स्ट्रा रोटी!

-वीर विनोद छाबड़ा
मुझे याद है, पचास के दशक का आख़िरी और साठ के दशक के पहले दो साल।
तब हम आलमबाग के चंदर नगर गेट के पास बनी मार्किट के ऊपरी हिस्से में रहते थे। उस इलाके में ज्यादातर रिहाईश उन रिफ्यूजियों की थी जो पार्टीशन के कारण पाकिस्तान से उजड़ कर आये थे।  
मां दिन के लिए जब रोटी बनाती थी तो एक एक्स्ट्रा रोटी विधवा ब्राम्हणी के लिए भी बनाना नहीं भूलती थी। इसे हमदा कहा जाता था। और जिसको दी जाती उसे हम हमदेवाली कहते थे। 
मां बताती थी -ये रिवाज़ है। पुरखों के वक़्त से चला आ रहा है। हमारे पुरखे और माता-पिता मियांवाली (अब पाकिस्तान में) के रहने वाले थे।
मां के मायके और उनके पुरखों में भी भी यही रिवाज़ था। बल्कि पूरे इलाके में था यह रिवाज़।
हम लोग भले ही रात का बचा सुबह और सुबह का बचा रात में खा लेते थे परंतु ब्राह्मणी के लिए ताज़ी रोटी ही बनती थी। हम पूछते थे - ऐसा क्यों
किया जाता है?
मां बताती थी - इससे पुण्य मिलता है। सारे समाज को पुण्य मिलता है। समाज का सामूहिक दायित्व बनता है कि किसी ग़रीब और विधवा को मदद पहुंचाई जाए।
लेकिन हम यह न पूछ सके कि पुण्य प्राप्त के लिए ब्राह्मणी का ही चुनाव क्यों किया गया?
हमें याद है। रोज़ दोपहर बारह-एक के बीच सफ़ेद सलवार कमीज पहने एक औरत थाल लिए आती थी। उसमें पहले से ही कई रोटियां होती थीं। वो कहीं दूर से आती थी। मां उसे कभी-कभी अचार भी देती थी और वार-त्यौहार के अलावा भी उसे इकन्नी या दुअन्नी देती थी। हम उसे ब्राह्मणी ही समझते थे। लेकिन एक दिन मां की बातों से पता चला कि उस हमदेवाली का नाम कौशल्या है। उसका परिवार भी पार्टीशन के फलस्वरूप सरहद पार से आया है।  वो वास्तव में दरख़्वान (बढ़ई) की विधवा है।
दान देने से मतलब है, वो बस ज़रूरतमंद हो। यह छूट पुरखे दे गए थे कि अगर आस-पास ब्राह्मणी न मिले या वो हमदा लेने के लिए तैयार न हो तो ब्राह्मणी के नाम की रोटी किसी मजलूम को दे दी जाये।
हमें अपने पुरखों के इस गुण पर बहुत गर्व हुआ।
यों मेरी मां भी बहुत भली थी। वो थी तो धर्म-कर्म और रीति-रिवाज़ों को मनाने वाली, लेकिन दकियानूस नहीं थी। वो ऑमलेट-मीट खाती भले नहीं थी लेकिन हम लोगों के लिए बना ज़रूर देती थी। 
हम हैरान होते थे कि ये कौशल्या इतनी ढेर रोटियां कैसे अकेले खाती होगी? पूछने पर पता चला कि उसके परिवार में उसके अलावा चार और लोग भी हैं। जो रोटियां बच जाती थी कौशल्या किसी गरीब को या गाय को खिला देती।

एक दिन कौशल्या ने कहा कि वो अब नहीं आएगी। देवर ने उस पर चादर डाल दी है। वो कहता है कि अब उसकी मेहनत की कमाई से परिवार चलेगा।
हमने मां से चादर का मतलब पूछा तो पता चला की देवर से शादी। पंजाब में उन दिनों ऐसा ही रिवाज़ था।
बहरहाल, उस दिन के बाद से मैंने कौशल्या को नहीं देखा। लेकिन एक रोटी एक्स्ट्रा ब्राह्मणी के नाम पर बनती ज़रूर रही। यह रोटी किसी फ़कीर की झोली में डाली जाती रही। कभी-कभी गाय को भी हम लोग रोटी खिलाने जाते थे। साथ में बची हुई रोटियां भी ले जाते थे।
दो-तीन साल बाद हम चंदर नगर छोड़ चारबाग़ आ गए। मुझे याद पड़ता है कि ब्राह्मणी के नाम पर एक एक्स्ट्रा रोटी का रिवाज़ भी हम वहीं छोड़ आये।
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