Wednesday, September 30, 2015

हे भगवान, दुश्मन को भी न देना दांत-ए-दर्द।

-वीर विनोद छाबड़ा
दर्द और वो भी दांत का दर्द। इतना ख़राब कि भगवान दुश्मन को भी न दे। यही मुंह से निकलता है, हर दांत दर्दू के मुंह से।
न सोने दे और न चैन से बैठने दे। खाना-पीना भी मुश्किल। सोचना तो बहुत दूर की बात। पान और मसाला चबाने वालों के लिए तो बस जीना
हराम।
अब यह कोई बनिये की ऑन लाईन दुकान भी नहीं कि चौबीस घंटे खुली रहे और हम पूछें इस दर्द की दवा क्या है? जल्दी से भेज दो।
यों सलाह देने वाले भी एक नहीं। हर दूसरा आदमी महान जानकार। सलाह से पहले अपने पर गुज़री दांत-ए-दर्द के लंबी-चौड़ी दास्तां सुना डाली। जिनकी अपनी आपबीती नहीं वो दूसरों की आपबीती ले बैठा। सबसे बोर आदमी। आख़िर में जो दवा बताई तो ज्यों ज्यों दवा की दर्द बढ़ता ही गया।
बिना डेंटिस्ट के काम नहीं चलता। वहां लगी लाईन देख दर्द और भी बढ़ जाता है। जान हथेली पर आ जाती है, जब डेंटिस्ट कहता है तीन दिन बाद आना। अभी फ़ुरसत नहीं।
अब आते हैं मुद्दे पर। हम उन दिनों बीए फ़ाईनल का एग्ज़ाम दे रहे थे। पिछले साल अच्छे नंबर नहीं थे। लिहाज़ा बहुत प्रेशर था। सेकंड डिवीज़न लानी है। नहीं तो बीए पास थर्ड डिवीज़न कहलायेंगे। ख़ानदान में पहले नालायक़। नाक नहीं कटनी चाहिए। मगर अचानक दांत में भयंकर पीड़ा उठी। अब नाक बचायें या दांत। यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया।
डेंटिस्ट छुट्टी पर। तीन दिन बाद आयेगा। फिजीशियन ने कहा निकालना पड़ेगा। तब तक यह एंटीबॉयटिक और पेनकिलर खा।
न जाने कैसी दवा थी कि नींद न टूटे। ऊपर से एग्ज़ाम। ख़ानदान की नाक। नाक में दम हो गया। रोना भी आ गया। 
जैसे-तैसे दर्द निवारक खा-खा कर एग्ज़ाम  दिया। और लौट कर घर आने की बजाये सीधा डेंटिस्ट के पास। लखनऊ का नाले के पास कृपा देवी ट्रस्ट हॉस्पिटल। डेंटिस्ट भी एक नमूना। मोटा-ताजा और गहरा सांवला रंग। हाथ में प्लास। पहले तो हम देख कर डर ही गए। यमराज के पास तो नहीं आ गए। इंजेक्शन दिया। बोले, बड़ा सा मुंह खोल कर मन ही मन बोलो बजरंग बली की जय।

हमने ऐसा ही किया और पता ही नहीं चला कब डेंटिस्ट ने दांत उखाड़ कर हमारे हाथ में रख दिया। खूब मोटा और लंबा सा। सड़ा हुआ। जितना ऊपर नहीं उससे कहीं बड़ा नीचे। इसे कहते हैं अक्कल दाढ़।
अरे बाबा, अक्कल दाढ़ गयी तो हम किस काम के रहे? कल फिर एग्ज़ाम है।
समझाया गया कि दिमाग वाली अक़ल से कोई मतलब नहीं। तीन दिन तक खाना नरम-नरम। मां घर में निकाले देसी घी में मनपंसद बेसन का हलवा सुबह-शाम खिलाती रही।
सिर्फ़ पच्चीस पैसे का ख़र्च आया था। वो भी परचा बनवाई का। ट्रस्ट का हॉस्पिटल जो था। बहुत सस्ते मद्दे में निपट गए।
तब से आज तक दांत के दर्द को लेकर दर्जनों बार एक से बढ़ कर एक डेंटिस्ट के पास जाना पड़ा। हर बार नया तजुर्बा। कभी उखड़वाने तो कभी ठुकवाने। अब तो अच्छी ख़ासी चिपका भी देते हैं, हज़ारों रूपए की और दांत भी चिपक जाता है। कई बार आरसीटी की कई सिटिंग वाली लंबी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा।
हमें याद है एक आमने मे सिर्फ़ चांदी भरी जाती थी। अब तो ढक्कन भी लगा देते हैं। मेटल का भी है और फाईबर का भी। हरेक की कीमत हज़ारों में। सोच लीजिये, दांत है तो खाना बढ़िया चबाया जाएगा। खाना बढ़िया चबेगा तो हज़म जल्दी होगा। हज़म जल्दी होने का मतलब सेहत ठीक रहगी और सेहत ठीक होने के मतलब लंबी उमर। चेहरे की बनावट भी ठीक रहेगी।मुंह पिचका पिचका नहीं लगेगा।
आदमी को सोचने का मौका ही नहीं। बस, आप जो ठीक समझें डॉक्टर साहब। ज़िंदगी चलती रहनी चाहिये। पैसा तो आनी-जानी चीज़ है। हमें याद है हमारे धनवान बड़े-बुज़ुर्ग सोने का दांत लगवाया करते थे। कोई चांदी के दिलवाला, कोई सोने का दिलवाला। हमें याद है हमारे मोहल्ले में एक साहब मरे थे तो उनके बेटों ने प्लास से सोना चढ़ा दांत खींचा था। 
पहले शहर में डेंटिस्ट ढूंढने पड़ते थे। एक्का दुक्का होते थे। फुटपाथिये डेंटिस्ट तो हर वक़्त मिलते थे। नहीं तो मेडिकल कॉलेज जाईये। जान-पहचान है तो सोने में सुहागा। वरना दर्द किसी दांत में होता था और उखाड़ कोई और लिया जाता। सिखंतु डेंटिस्ट का कभी भरोसेमंद नहीं रहे। 

Tuesday, September 29, 2015

महमूद - कॉमेडी का बादशाह।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज दिवंगत महमूद अली का जन्म दिन है।
महमूद साठ और सत्तर के दशक के दौर की फिल्मों की कॉमेडी के बेताज बादशाह थे। पिता मुमताज़ अली प्रसिद्ध डांसर और चरित्र अभिनेता। बाल
कलाकार के रूप में महमूद ने कई फिल्मों में काम किया। लेकिन जवान हुए तो फ़िल्में रास नहीं आईं। कई छोटे-मोटे काम किये। निर्माता-निर्देशक प्यारे लाल संतोषी की ड्राईवरी की। भाग्य का खेल है कि संतोषी के पुत्र राजकुमार संतोषी ने महमूद को 'अंदाज़ अपना में' (१९९३) में प्रोड्यूसर की भूमिका में कास्ट किया।
बहरहाल, महमूद ने ज़िंदा रहने के लिये मीना कुमारी को टेबल-टेनिस की ट्रेनिंग दी। बाद में मीना की छोटी बहन मधु से महमूद की शादी हुई। मीना की जब कमाल अमरोही से अनबन चल रही थी तो महमूद का ही वो घर था जहां मीना को आसरा मिला। मीना एक बड़ी एक्ट्रेस थी। उन्होंने बीआर चोपड़ा से महमूद की सिफ़ारिश की। लेकिन ख़ुद्दार महमूद को जब पता चला तो उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि वो 'धूल का फूल' और 'कानून' में छोटे छोटे किरदारों में दिखे।  
महमूद यूं ही नहीं टॉप पर पहुंचे। कई छोटे-मोटे रोल किये। गुरुदत्त उन पर खासतौर पर मेहरबान रहे - सीआईडी, कागज़ के फूल,प्यासा आदि।
'परवरिश' में महमूद का बड़ा रोल था और वो भी भारी भरकम राजकपूर के सामने। बाद में उन्होंने कपूर ख़ानदान की 'कल आज और कल' की तर्ज 'हमजोली' में सफ़ल कॉपी की। यह बड़ा मज़ाक था। कपूर खानदान और उनके शुभचिंतकों ने इस पर ऐतराज़ भी किया। महमूद तब बहुत बड़े कॉमेडी स्टार थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने माफ़ी मांगी।
स्ट्रगल के दिनों में महमूद की किशोर कुमार से भेंट हुई। महमूद की प्रतिभा से वो वाकिफ़ थे। कई प्रोड्यूसरों से उनकी सिफ़ारिश की यह कहते हुए कि मैं अपने ही रोल तुम्हें दिला कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। तब महमूद ने उनसे वादा किया था कि एक दिन मैं आपको अपनी फिल्म में ज़रूर कास्ट करूंगा। आगे चल कर 'पड़ोसन' में किशोर यादगार अदाकारी की। दोनों 'साधु और शैतान' में भी हिट रहे।

महमूद के हास्य मर्म को दक्षिण भारत के फिल्मकारों ने खूब भुनाया - ससुराल, हमराही, गृहस्थी, बेटी-बेटे आदि।
'छोटे नवाब' बना कर खुद को कॉमेडी हीरो के रूप में प्रोजेक्ट किया। फ़िल्म भले नाकाम रही मगर महमूद ने लोहा मनवा लिया कि वो किसी भी हीरो को कॉमेडी के बूते पीछे धकेल सकते हैं। साठ और सत्तर के दौर की कोई भी फ़िल्म उठा कर देखें तो पता चलता है कि हीरो से ज्यादा महमूद की पूछ होती थी। मुख्य कहानी के साथ महमूद की अलग कहानी चलने लगी। और क्या बच्चे और क्या बूढ़े और जवान, सभी को महमूद की एंट्री का इंतज़ार रहने लगा। उनकी कॉमेडी ने न सिर्फ दर्शकों को हंसाया बल्कि कॉमेडी को भी हंसना सिखाया।
शोभा खोटे और अरुणा ईरानी के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी। बरसों हवा भी रही की महमूद और अरूणा की शादी हो चुकी है। कई साल बाद जब महमूद से अनबन हुई तो अरुणा ने इससे इंकार किया।
रद्दी फ़िल्में भी महमूद की वज़ह से लिफ़्ट हुई। महमूद की मौजूदगी के कारण हीरो की चमक फीकी पड़ने लगी। शायद इसी कारण से महमूद के दुश्मनों की संख्या बढ़ गयी। तमाम हीरो लॉबी करने लगे - महमूद हटाओ। लेकिन महमूद डटे रहे। यह उनका दौर था। वितरकों ने साफ़ कर दिया महमूद नहीं तो फ़िल्म नहीं उठेगी।

महमूद ने 'छोटे नवाब' में संगीतकार आरडी बर्मन को ब्रेक दिया। अमिताभ बच्चन के डूबते कैरियर को 'बांबे टू गोवा' में लिफ्ट किया। स्ट्रगल और कड़की के दिनों में अमिताभ को महमूद का ही सहारा था। वो उनके घर पर महीनों रहे। फ़िल्में दिलाने में भी महमूद ने उनकी बहुत मदद की। महमूद उनके भाईजान थे। महमूद दीवार, ज़ंज़ीर और शक्ति में उनके प्रदर्शन से खुश होते रहे। महमूद ने एक इंटरव्यू में अपना दर्द भी उड़ेला - जब अमिताभ के पिताजी की तबियत ख़राब थी तो मैं उनको देखने गया। लेकिन हफ़्ते बाद उसी अस्पताल में मेरी बाई-पास सर्जरी हुई। अमिताभ अपने पिताजी को देखने सुबह शाम आते रहे। लेकिन मुझे देखना तो दूर 'जल्दी निरोग हों' एक कार्ड तक नहीं भेजा।
आईएस जौहर से महमूद की खूब पटरी खाती थी। 'नमस्ते जी' और 'जौहर महमूद इन गोवा' बड़ी कामयाबियां थीं। लेकिन 'जौहर महमूद इन हांगकांग' फ्लॉप रही। जौहर चाहते थे कि महमूद के साथ उनकी जोड़ी लॉरल-हार्डी के माफ़िक चले। लेकिन महमूद ने मना कर दिया। जौहर की निगाह फ्रंट बेंचेर पर होती थी जबकि महमूद को हर वर्ग के प्यार की ज़रूरत थी।
महमूद बतौर हीरो भी कामयाब रहे। छोटे नवाब, नमस्ते जी और शबनम के अलावा लाखों में एक, मैं सुंदर हूं, मस्ताना, दो फूल, सबसे बड़ा रुपैया आदि इसकी मिसाल हैं।

Monday, September 28, 2015

अक़्ल बनाम भैंस और बंदूक बनाम कलम।

- वीर विनोद छाबड़ा
अक़्ल बड़ी या भैंस? सबको मालूम है कि अक़्ल ही बड़ी है। फिर भी उल्टी गंगा बहाने में माहिर आशावादी कवायद में लगे हैं। वो सुबह कभी तो आयेगी जब भैंस अक़्ल से बड़ी कहलायेगी। मंत्री जी की पांच-छह भैंसे चोरी
हो जाती हैं। हलकान महक़मा अक्ल को घास चरने छोड़ देता है। खोये इंसानों की बजाये भैंसे ढूंढ़ लाता है। जितना पैसा खोयी भैंसो को तलाशने पर खर्च किया इतने में तो नई भैंसें खरीद लाते। मगर अक़्ल होती तब न!
अजी छोड़िये, आप हैं कहां? कुत्ता-बिल्ली खोने तक की रिपोर्टें दर्ज होती है। क्या करे महक़मा भी। सारी अक़्ल तो इन्हें तलाशने में खर्च होती है।
चैनल पर ख़बर न ठीक से सुनी, न देखी और न लाईनों के भीतर देखने की कोशिश की। सिर्फ फोटो व बाईट देख उत्तेजित हो गये। उठ गये लाठी-डंडे। जैसे दिखाने वाले वैसे ही देखने वाले। नई किस्म की पौध है। कोई दहाड़-दहाड़ कर खुद को सुुनामी बताता है तो कोई राॅबिनहुड का अवतार होने का दावा करता है। कोई डीएनए में घुसे भष्टाचार और अपराध को झाड़ू से बुहार देता है।
कभी झूठ बोलना पाप और चोरी करना अपराध था। इसमें लिप्त धिक्कारे जाते थे। अब गंगा उलटी बहती है। मूल्य पलट गये हैं। लड़का ऊपर से कितना कमाता है?…अजी, ऊपरी कमाई टेबुल के नीचे से नहीं, खुलेआम ऊपर से लेता है। बहादुर लड़का!
ज्ञान चक्षु खोलने के लिये एक से बढ़ कर एक हाई-फाई संत प्रगट हो रहे हैं। माताओं को भी नहीं छोड़ा। ज्ञान का विपुल भंडार लेकर वीर अभिमन्यु गली-गली जन्म ले रहे हैं। ज्ञान बिकाऊ है। एक छोटी सी ज़मात फिलहाल जेल में चक्की पीस रही है। लेकिन पब्लिक है कि मानती नहीं। देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान! भगवान को सलाखों के पीछे डाल दिया। घोर कलयुग!
कभी क़लम सबसे बड़ी ताकत थी। पचास के दशक की फिल्म - मास्टरजी। दिक्कत में फंसे बुजुर्ग को कलेक्टर साहब षणयंत्रकारियों के चुंगल से छुड़ाते है। हैरान-परेशां बुज़ुर्ग उसे शुक्रिया कहते हैं। कलेक्टर उल्टे उनके पांव छूकर बताता है कि वो वही छोटा नटखट नंदू है जिसे आपने ईनाम में क़लम इनायत की थी। उसी क़लम की बदौलत वो कलेक्टर बना। वोे क़लम आज भी बतौर अमानत महफूज़ है। आज बंदूक बड़ी ताक़त है। क़लम को ख़ामोश कराती-फिरती है। लेकिन क़लम के दावेदार भी बहुत हैं। क़लम जब चाहे इंसान को कुत्ता और कुत्ते को इंसान बना सकती है।
देखे गये सीन ज्यादा देर टिकते नहीं। रात गयी, बात गयी। पर लिखी बात पर दूर तक बात होती है। एक से एक सूरमा माथा-पच्ची करते हैं। कलम के बूते कालजयी तुलसीदास और प्रेमचंद आज भी प्रासांगिक हैं, उनके लिखे पर आज भी लंबे मंथन होते हैं। शोध चलते हैं। जाने कितने डाक्टरेट पा गये। तोपें-एटमबम जिस समस्या का हल नहीं निकाल सके उसे ढाई आखर प्रेम चुटकियों में हल कर दिया। दुनिया का आज भी सबसे खूबसूरत लिखित शब्द है, जिस पर अनेक महान गाथायें लिखी जा चुकी है। ये सिलसिला रुकेगा नहीं, अनंत तक।
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नोट - प्रभात ख़बर दिनांक २८ सितंबर २०१५ में प्रकाशित।
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28-09-2015 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
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Sunday, September 27, 2015

चिरयुवा देवानंद!

-वीर विनोद छाबड़ा
कल देवानंद साब का जन्मदिन था। वो होते तो ९२ साल पूरे करते।
देवानंद की ज़िंदगी के ८८ वर्षों में से ६५ वर्ष सिनेमा जगत में कटे।
इन वर्षों में वो कभी चुप नहीं बैठे। फिल्म इंडस्ट्री से जो कमाया उसे सूद
Devanand
सहित वापस करते रहे। चाहे किसी को पसंद आये या नहीं। उनका जोश और फिल्म बनाने का जज़्बा देख कर उनके उम्रदराज़ होने के बावजूद उन्हें चिरयुवा बुज़ुर्ग कहा जाता था। इसीलिए वो कभी अप्रासंगिक नहीं हुए। किसी ने किसी वज़ह से चर्चा में रहे। कभी हिट फिल्म के लिए तो कभी फ्लॉप के लिए। कभी अपनी हेयर स्टाइल के लिए। उनका पहनावा भी नंबर एक पसंद रहा।
यों पुरुषों के मुकाबले देवानंद महिलाओं में ज्यादा लोकप्रिय थे। हर उम्र की महिला की वो पहली पसदं थे। उनकी तस्वीरें उनके तकिये के नीचे और पर्स में मिलती थीं।
पुरुष युवा वर्ग में वो तब नंबर वन बने जब 'हम दोनों' में उन्होंने ज़िंदगी के हर शोक और फ़िक्र को अपने खास अंदाज़ में धुंए में उड़ा दिया। फ़िक्रो-गम में डूबे हज़ारों लोगों को एक साथी मिल गया। हज़ारों नौजवानों ने देव साब को देख और सुन कर पहली दफ़े होटों में सिगरेट दबायी।
एक वक़्त था जब अपनी नई फिल्म के लिए किसी नवेली या युवा हीरोइन को साइन करना उनके जुनून में शामिल था। इस बारे में एक किस्सा बड़ा मशहूर हुआ था।
उनकी एक नायिका ने शादी कर ली। कुछ वक़्त के बाद उसके बेटी हुई।
देव साब बधाई देने गए। और साथ में एग्रीमेंट और साइनिंग अमाउंट भी ले गए।
नायिका ने पूछा ये क्या?
देव साब बोले कि आपकी बेटी जब अट्ठारह साल की होगी तो मेरी फिल्म में मेरी हीरोइन होगी।

Saturday, September 26, 2015

डॉ मनमोहन सिंह - पिंजड़े से बाहर आईये।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज डॉ मनमोहन सिंह का जन्मदिन है। मुबारक।
दस साल तक प्रधानमंत्री रहे हैं डॉ मनमोहन सिंह। आपसे पहले नरसिम्हा राव जी मौनी बाबा कहलाते रहे। लेकिन आप तो उनसे भी बड़े साबित हुए।
Dr ManMohan Singh
आप पर बेशुमार हमले हुए। आप खामोश रहे। कोई मजबूरी रही होगी। लेकिन अब पद पर नहीं हैं तो भी ख़ामोशी अख्तियार किये हैं। मेरे ख्याल से ये आप ठीक नहीं कर रहे।
हो सकता है कि आपकी तरबीयत ऐसी रही हो जिसमें सच्चे को खामोश रहना सिखाया गया हो और आखिरी फैसला रब पर छोड़ना बेहतर बताया गया हो।
आपके दस साल में बड़े-बड़े घोटाले हुए, मगर ये भी तो सच है कि तमाम ज़बरदस्त कामयाबियों भी हासिल हुई हैं। आपकी बोई हुई फसलें अभी तक दूसरे काट रहे हैं। मगर आपकी नाकामियों की चर्चा ज्यादा है।
आप एक अच्छे प्रशासक नहीं रहे। मंत्री ठीक आपकी नाक के नीचे घोटाले करते रहे। और आप खामोश रहे। क्यों? कोई मज़बूरी या आपको पता नहीं चला?
अच्छे राजनीतिज्ञ नही बन पाये। पार्टी के नेता मनमानी करते रहे। आप अपनी मर्ज़ी से किसी को गेट आउट तक नहीं कह पाये।
माना जाता है कि आपकी डोर किसी और के हाथ में थी, जिसका आप भी बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने ने ही आपको पीएम बनाया था। आपने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। लेकिन आत्म-सम्मान नाम की कोई चीज़ भी होती है। तमाम नत्थू-खैरे आपको गरिया कर चले गए। अब भी आये दिन ऐसा ही हो रहा है। लेकिन आप फिर भी खामोश रहे, और आज भी हैं।
माना कि आप जेंटलमैन हो। स्टेट्समैन हो। सारी दुनिया आपकी आर्थिक नीतियों का सम्मान करती है।
भले ही आप अपनों की नज़र में घर की मुर्गी। चुप्पी आपका स्वभाव हो। हर ऐरे-गैरे की पोस्ट पर कमेंट करना आपकी शान के विरुद्ध रहा हो।
मगर आप ये क्यों भूल जाते हैं कि आप ही ने तो वर्तमान आर्थिक नीति की नीव रखी थी। जो लोग पानी पी पी कर कोसते थे, आज वही इसकी पूजा कर रहे हैं। इसी के दम पर दुनिया के नेता बनने की हुंकार भर रहे हैं। आपके प्रोडक्शन को अपना कह के बेच रहे हैं। आप न होते तो सुई तक हम अमरीका से इम्पोर्ट कर रहे होते। दूसरों के रहमो-करम पर जीते होते। 
मीडिया भी सब कुछ जानते हुए दूसरे की शान में कसीदे पढता रहा। उनकी हर बात पर वारी-वारी हो जाता रहा। आपके लिए बिछी १०० फुट की रेड कारपेट के मुकाबले उनके लिए बिछी तीन फुटी कारपेट में उन्हें बहुत बड़ी और ऐतिहासिक उपलब्धि दिखती रही।
हम आपकी ख़ामोशी के नज़ारे एक मुद्दत से देख रहे हैं। बर्दाश्त कर रहे हैं। आपकी सिधाई, भद्रता और स्टेट्समैनशिप का लोग मखौल उड़ा रहे थे, हम तब भी कुछ नहीं बोले थे।

Friday, September 25, 2015

दिल दिया है, जां भी देंगे…

-वीर विनोद छाबड़ा
जिसकी लाठी उसकी भैंस। समरथ को नहीं कोई दोष गुसाईं। अपने मुल्क में भी खूब चलता है।
उसको कोई प्रमाण नहीं देना। वो जो चाहे करे। सड़क के बीच में मूर्ति रख कर पूजा करे तो सड़क रास्ता बदल देती है। अगर रास्ता नही बदला तो मजबूर कर दी जाती है।
धर्म के नाम पर वो रात-रात भर भोंपू बजाएं। फ़िल्मी धुनों पर भगवान का नाम लेते हुए चीखें-चिल्लायें। सबकी नींदें हराम करे।
सब माफ़। किसी की हिम्मत नहीं ऐतराज़ करने की। उनसे ये बहस करनी फ़िज़ूल है कि दूसरे धर्मों में तो ऐसा नहीं होता।
कहां है? तेरी सहिष्णुता जो तेरी पहली खासियत है, तेरी पहचान है।  
बात आस्था की है। उनकी ख़ुशी की है। सुनना पड़ता है कि जिसे बर्दाश्त नहीं, वो कानों में रुई ठूंस लें। अगर ये भी मंज़ूर नहीं तो कहीं और जाकर रहो। और अगर दूसरे धर्म के हो तो मुल्क छोड़ दो। और अगर दूसरे धर्म कि तरफदारी कर रहे हो तुम भी वही बन जाओ और रातों रात मुल्क़ छोड़ कर भाग जाओ। और उनसे भी बड़े ग़द्दार कहलाओ। 
उनसे ये सवाल करना बेमानी है कि अरे भई, क्यूं छोडूं ये मुल्क? जितना तेरे बाप का है, उतना मेरे भी बाप का है। कहीं बाहर से आया नहीं। जो तेरी नस्ल है वो मेरी भी। मेरा धर्म, तेरा धर्म अलग है, तो क्या हुआ? चल डीएनए करा। शर्त लगा ले। दोनों का मूल इसी धरती का मिलेगा। वन हंड्रेड परसेंट।
फिर उसे हर कदम पर इम्तिहान क्यूं देना है कि मुल्क उसके लिए पहले है और धर्म बाद में।
इस कवायद के उस्ताद से किसी ने नहीं पूछा कि तेरे लिए पहले मुल्क है या धर्म।
तू रिश्वत खाए, जरायम की दुनिया में बादशाही करे, सब माफ़। दूसरा करे तो एंटी नेशनल। बाकी धर्म वालों से कोई न पूछे। वो तेरे सगे लगे हैं न।
कर भई, तू जो चाहे कर, तेरी मर्ज़ी। तू अपना धर्म निभा, हम अपना करेंगे। तू जिसको चाहता है वोट दे। मैं जिसे चाहूं वोट दूं। इसमें क्या बिगड़ता है तेरा?
देखना मुल्क के लिए मर मिटने का मौका आएगा तो सबसे आगे हमें ही पाओगे। अतीत में झांको तो यही पाओगे। हमारे ऊपर रहने की हमारी कुर्बानियों की कहानियों/किस्सों की टीआरपी सबसे ज्यादा है। हमें ही मिसाल बना कर पेश किया जाता है। चाहे अख़बार हो या रेडियो या टीवी या सिनेमा का पर्दा। और चाहे चौपाल हो। 
जितना चाहो, जलो-भूनो। अपना ही खून जला रहे हो। हमारा क्या? चीखो जितनी हिम्मत हो। हम नहीं जाने वाले यहां से। यहीं पैदा हुए यहीं दफ़न होंगे।

Thursday, September 24, 2015

वक़्त वक़्त की बात है।

-वीर विनोद छाबड़ा
चार दिन पहले की बात है। दिमागी कसरत के लिए एक वीडियो म्यूज़िक चैनल खोले बैठा था मैं। ब्लैक एंड वाइट युग के गाने चल रहे थे। एक से बढ़ कर टॉप क्लॉस। तभी पर्दे पर दिखे राजेश खन्ना और आशा पारेख। आ जा पिया तोहे प्यार दूं गोरी बइयां तोपे वार दूं.मजरूह का गाना और
Rajesh Khanna & Asha Parekh
राहुलदेव बर्मन का संगीत। फ़िल्म थी - बहारों के सपने। १९६७ में रिलीज़।
उस दौर में कोई नहीं पूछता था राजेश खन्ना को। यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स टैलेंट हंट की खोज थे वो।
राजेश को सबसे पहले साईन किया था जीपी सिप्पी ने 'राज़' के लिये। नायिका बबिता थी। दोनों ही बिलकुल फ्रेश। राजेश से पांच-छह साल छोटी थी बबिता। लेकिन फ़िल्म लेट हो गयी। 
नासिर हुसैन एक क्विकी बनाना चाहते थे। बजट कम रखने के लिए ब्लैक एंड व्हाईट में बनाने का फैसला लिया। नाम रखा - बहारों के सपने। अब नए-नए हीरो राजेश के पास तो डेट ही डेट थीं।
लेकिन नायिका आशा पारेख पसड़ गयीं। मैं इतनी सीनियर। उम्र में भी दो महीने बड़ी। इस नए-नए लौंडे की हीरोइन बनूं! मार्किट वैल्यू गिर जायेगी। कितना असहज महसूस होगा? सवाल ही नहीं पैदा होता।
उन दिनों सबसे महंगी हीरोइन होती थी आशा। तीन लाख प्रति फ़िल्म। आज के तीन करोड़ से भी ज्यादा।
लेकिन नासिर हुसैन ने आशा को मना लिया। लड़का बहुत टैलेंटेड है। हज़ारों में से चुना गया है। यों समझो लाखों में एक।
वैसे नासिर हुसैन कहें और आशा न माने, ये हो ही नहीं सकता था। अब यह बात दूसरी है कि आगे चल कर राजेश खन्ना हो गए सुपर स्टार। राजेश आगे-आगे और आशा पीछे-पीछे। आशा संग तीन और फ़िल्में बनीं- कटी पतंग और आन मिलो सजना। धर्म और कानून में राजेश खन्ना की दोहरी भूमिका थी। बाप और बेटे की। और आशा पारेख राजेश की पत्नी और मां भी।
यह ऐसा शुरुआती दौर था जब राजेश खन्ना को ऐसी नायिकाएं मिली जो उम्र में उससे बड़ी थीं। इंद्राणी मुख़र्जी (आख़िरी ख़त), वहीदा रहमान (ख़ामोशी), नंदा (दि ट्रेन, इत्तिफ़ाक़ और जोरू का गुलाम)  बड़ी उम्र थीं। और तनूजा (हाथी मेरे साथी), मुमताज़ (सच्चा झूठा) और शर्मीला टैगोर (आराधना) उम्र में छोटी मगर प्रोफेशन में बहुत सीनियर। नाक-भौं सिकोड़ी जाती थी। लेकिन राजेश ने कभी असहज महसूस नहीं किया और किया भी तो ज़ाहिर नहीं होने दिया।
और फिर 'आराधना' (१९६९)  की रिलीज़ के बाद तो तख्ता ही पलट गया। सुपर स्टार बन गए राजेश खन्ना। जो भी उनके साथ काम करती, उसके कैरियर को पंख लग जाते। उन दिनों राजेश को लोग घमंडी भी कहने लगे थे।

Wednesday, September 23, 2015

कामतानाथ हिंदी के लिए बड़ी उपलब्धि हैं।

-वीर विनोद छाबड़ा
महत्व कामतानाथ- व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा।
यह आयोजन २२ सितंबर को दिवंगत कामतानाथ जी का ८१वें जन्मदिन के अवसर पर लखनऊ के इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी जी ने की।

कार्यक्रम के संचालक सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश कामतानाथ जी के बेहद करीबी रहे, कहानी और नाटक से लेकर ट्रेड यूनियन
तक। राकेश बताते हैं कि कामतानाथ सिर्फ़ समर्थ कहानीकार, उपन्यासकार और नाटककार ही नहीं थे। एक कुशल अभिनेता भी रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद ज़हीर पर बनी टेलीफ़िल्म में उन्होंने सज्जाद ज़हीर का रोल बखूबी किया था।  वो रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया में कार्यरत रहे। कर्मचारियों के नेता भी। उनके समर्पण और प्रतिबद्धता के दृष्टिगत उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। वो जेल भी गए। लंबे समय तक रहना पड़ा उन्हें वहां। वहीं उनके मस्तिष्क में जन्मा एक नायाब उपन्यास - एक और हिंदुस्तान। वो कमलेश्वर के समकक्ष समकालीन कहानी आंदोलन के प्रवर्तक रहे। बतरस को शिल्प की स्वीकृति दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वंचितों के बात की। अगर वो आज होते तो सांप्रदायिकता के नाम पर वो सब उनके दरवाज़े पर खड़े होते जिन्होंने कलबुर्गी, पंसारे और डोभालकर की हत्या की है। उ.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद लंबे समय तक संभाला। उनके उपन्यास 'काल कथा' के दो खंड आ चुके हैं और अब अक्टूबर में बाकी दो खंड सहित चारों खडं एक साथ आ रहे हैं।

सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर बहुत करीबी रहे हैं कामतानाथ जी के। साथी के बारे में बोलना बहुत कठिन है। वो उनके १९६० से साथी रहे। कामतानाथ समकालीन कथाकारों से बिलकुल अलग थे। वो आंदोलन में नारे लगाते और उसे आगे भी बढ़ाते थे। लीड करते थे। वो वास्तव में एक्टिविस्ट थे। और साथ ही चिंतनशील लेखक भी। दो नावों के
सवारी कोई आसान नहीं होती। पर कामतानाथ ने सवारी की और सफलता से चले। उन्होंने एक्टिविज़्म के साथ-साथ परिवार को भी संभाला। सिर्फ़ पत्नी के हवाले नहीं किया। खुद भी हाथ बटाया और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। उनका चिंतन आम आदमी का चिंतन था और भाषा भी आम आदमी के थी। उनकी इंसानियत मेरे लिए एक प्रेरक थी। नेता होते हुए भी ज़ोर से नहीं बोले, अनियंत्रित नहीं हुए कभी। उनके समकालीनों में चार खंड में हिंदी का उपन्यास लिखने वाला कोई नहीं। 'काल कथा' उपन्यास की भाषा संघर्षशील जन और वर्ग से जुड़ी है। सांप्रदायिकता का जो चेहरा आज दिख रहा है वो पहले ही दिख गया था इस उपन्यास में। उनकी आलोचना बड़े-बड़े लेखकों ने की। मुझे बेहद दुःख हुआ। इतना कि एक लेख उस आलोचना के विरोध में लिखना पड़ा। डॉ नामवर सिंह और राजेंद्र यादव जी ने इसकी आलोचना की। मैंने कामतानाथ को मैंने उस दृष्टि से देखा जैसे कोई कहानीकार देखता है। उनमें आम आदमी की संवेदना थी। एक ज़माना था जब लोग एक-दूसरे के बात सुनते थे। उन्हें समझने की कोशिश करते थे। आज ऐसा नहीं हैं। कामतानाथ मूल्यों में यकीन करते हे। अपने में उतारते थे। समकालीन संवेदनाओं और सोच को साथ लेकर चले। ढेर चुनौतियों को झेलते हुए रचनाधर्मिता को साथ लेकर चले। उन्होंने उपेक्षा का भी सम्मान किया। इस देश की मिट्टी में उनकी सुगंध आती है।

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक शक़ील सिद्दिक़ी ने कामतानाथ जी की कहानियों पर नज़र डाली। मैंने एक बार इंटरव्यू लिया था उनका। उन्होंने कहा जो जुल्म और बेइंसाफी की मुख़ालफ़त नहीं करता वो बड़ा लेखक हो ही नहीं सकता। उन्होंने मज़दूर संघर्ष और वंचित पर ही नहीं लिखा, परिवार पर भी लिखा। परिवार के बिखरने की भी बात की। गांव से शहर की ओर पलायन को भी देखा। विविधिता थी उनमें। वो विश्वसनीय लेखक थे। उनका फ़लक बहुत बड़ा है। उनकी कहानियां कालजई थीं। मंचन भी हुआ उनका। उनकी कहानियों में गंगा-जमुनी तहज़ीब भी जीवंत होती दिखी मुझे। एक कहानी है उनकी - रिश्ते नाते। बड़े भावुक रिश्ते हैं उसमें। एक ग्रामीण वृद्ध अपने युवा पौत्र को चलते वक़्त एक लाल थैली पकड़ाता है। उसे लगता है कि इसमें
आपार धन है, लेकिन जब वो घर जाकर उसे खोलता है तो उसमें वंशावली निकलती है। कामतानाथ जी की कथायें पाठक को अपनी कहानियां लगती हैं। उन्होंने अमानवीय स्थिति की असंवेदनशीलता पर लिखा। उनकी भाषा गढ़ी हुई और आरोपित भाषा नहीं है। उसमें उर्दू का हस्तक्षेप बहुत है। कामतानाथ जी मूलतः उर्दू में शिक्षित थे। मगर एमए इंग्लिश में किया। पहली कहानी भी अंग्रेज़ी में लिखी। मेरी नज़र में कामतानाथ जी हिंदी में हिंदी के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि हैं।     
         
मो.मसूद साहब कामतानाथ नाथ जी के बहुत करीबी मित्र रहे हैं। उन्होंने बताया कि कामतानाथ जी को अपने चार खंडों के उपन्यास 'काल कथा' को लिखने में तीस साल लगे। हर खंड अपने में मुकम्मल है। दो खंड तो प्रकशित हो चुके हैं। उनकी आलोचना भी हुई है। कहा गया कि इसमें इतिहास ज्यादा है। लेकिन वास्तव में यह जीवन संघर्ष, उस वातावरण और उस दौर की कहानी है। कौन सरकार थी? क्या विचारधारा थी? आम आदमी कैसे झेलता था उन्हें? क्या अपेक्षाएं थीं उसको? इसमें १९३६ में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक सम्मेलन की संपूर्ण गतिविधियों का ज़िक्र भी मिलता है। यह  अकादमिक दृष्टि से भी बहुत उपयुक्त है। इसमें दो परिवारों के कहानी मिलती है। भाषा का महत्व है। हर सवाल के जवाब में सवाल है। अवधी बहुतायत में है। वो पात्रों को सदा साथ लेकर चले।  भारत के टॉलस्टाय थे।  

सुप्रसिद्ध कथाकार हरिचरण प्रकाश का कथन है कि 'काल कथा' पीरियड नावेल है। यह देखना चाहिये कि अकादमिक है या आम आदमी का इतिहास है या फिर समानांतर उपन्यास है। चित्रण पूरे समय को सामने लाता है। मुझे यह प्रामाणिक उपन्यास लगता है। इसे नए नज़रिये से पढ़ने की ज़रूरत है। पिघलेगी बर्फ - में राजा नही प्रजा बदली थी। ऐसा पहली बार हुआ था। पार्टीशन पर बात हुई है इसमें। मेरी निगाह में कामतानाथ भौगोलिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना को झंकृत करते हैं।

सुप्रसिद्ध और वरिष्ठ कथाकार/उपन्यासकार शिवमूर्ति बताते हैं कि कामतानाथ से उनकी पहली मुलाक़ात बहुत पहले कानपुर में हुई थी। मैं सिर्फ ४५ दिन रहा  वहां। उनका व्यक्तित्व सबसे अलग और आकर्षित करने वाला था। समझने और समझाने का तरीका बहुत ही अच्छा था। गंभीरता आकर्षित करती थे। काल कथा के दोनों खंड पढ़े हैं मैंने। लगता है इतिहास को समेट कर कैप्सूल में बंद कर दिया गया है। कामतानाथ सामग्री, भाषा और समय को साथ लेकर चले हैं। मेरी नज़र में 'काल कथा' जैसा आज तक कोई नहीं है।

कामतानाथ जी के पुत्र आलोक ने बताया कि उन्हें इल्म है कि पिता ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत काम किया है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा। एक पाठक के रूप में पढ़ा। सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लेखकों को भी पढ़ा। पिताजी को पढ़ कर ही पता चला कि हमारा हिंदुस्तान कैसा है। विरासत में साहित्य के मिलने का जीवन में बहुत महत्व है। साहित्य धैर्य देता है। बुद्धि को कुशाग्र करता है। इसने मुझे इंजीनियरिंग शिक्षा पढ़ने में बहुत मदद की। बचपन में उन्होंने नंदन और चंपक जैसी बाल पत्रिकाएं लाकर हममें पढ़ने की आदत डाली। आज पढ़ने में गिरावट आई है। उन्होंने अपने लेखन में अवधी का बहुत प्रयोग किया है। हमारे चाचा आते थे तो फिर वो और पिताजी अवधी में ही बात करते थे। हम बस चुपचाप सुनते थे। बहुत आनंद आता था हमें। 

Tuesday, September 22, 2015

मुलुक से आया मेरा दोस्त!

-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने आज एक मित्र की पोस्ट देखी। मुद्दा अप्रवासी को दूसरे शहर में अपने वतन का कोई मिलता है तो वो कितना आनंदित और झंकृत होता है। उसका रोम-रोम उसे गले लगाने को मचल उठता है। 
मुझे याद आता है पैंतालीस साल पहले का ज़माना। बंबई गया था घूमने। तब बंबई, बंबई था मुंबई नहीं। वहां मेरे मित्र थे, नील रतन (अब दिवंगत)। अपने लखनऊ के ही। उसी के घर ठहरा था। मूलजी बिल्डिंग थी, दादर का प्रभा देवी इलाका।
नीचे एक पान की दुकान। पंजाबी होते हुए भी मुझमें पंजाबियत नहीं और पंजाबी लहज़ा भी नहीं। भाषा से शुद्ध यूपीयन। कुछ तरबीयत का असर और कुछ गंगी-जमुनी तहज़ीब का।
नील रतन ने पान वाले से परिचय कराया। मुलुक से आया मेरा दोस्त। सलाम करो।
पानवाला भी सुल्तानपुर से था। मस्त हो गया सुन कर।
मैंने सिगरेट पी।
काहे का पैसा? अरे भाई, मुलुक से हो। सुल्तानपुर से लखनऊ कोई दूर तो है नहीं। यही ढाई-तीन घंटे का रास्ता।
मैं पान नहीं खाता था, ज़बरदस्ती खिलाया। मीठा पान। मज़ा आ गया। भई, जब तक हूं यहां तुम्हारी बंबई में, रोज़ खाऊंगा।
मैं तक़रीबन हफ़्ता भर रहा वहां। वो सिगरेट-पान के पैसे लेने से इंकार करता रहा। मैंने बहुत ज़ोर दिया तो सिगरेट के दाम लिए लेकिन पान के नहीं। यह तो प्यार की निशानी है।
चलते वक़्त मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए। जोर से दबाये। कस कर गले मिला। उसकी आंखें नम थीं। मैं भी नहीं रोक पाया अपने को। 
उसी दौर में ऐसा ही वाकया चंडीगढ़ में पेश आया।
सुखना लेक से सेक्टर सत्रह। रिक्शावाला तैयार हो गया। लेकिन पैसे ज्यादा मांग रहा था। कोई और दिखा नहीं। शाम ग़हरी हो रही थी। मरता क्या न करता। चल भाई। तेरी ही जै जै।
यों भी मैं रिक्शे वाले से ज्यादा झंझट नहीं करता। कितना अमानवीय है? आदमी, आदमी को ढोता है। नहीं बैठूंगा तो यह खायेगा कहां से?
शक़्ल, डील-डौल और भाषा से वो अपने यूपी का लग रहा था। पहले सोचा, जाने दो। मुझसे क्या मतलब?
लेकिन टाईम पास करना था। पूछ ही लिया।
बाराबंकी का निकला। मैंने कहा मैं लखनऊ का हूं।
पैसे देने लगा तो हाथ जोड़ दिये। अपने पड़ोसी हैं आप। ज़बरदस्ती दिये, तय से भी दुगने। 
हां, उसकी बीड़ी भी पी। उसकी आंख में आंसू छलछला आये।
उन्हीं दिनों बिलासपुर जाना हुआ। मामा रहते थे मेरे वहां।