Tuesday, August 11, 2015

बादशाह!

-वीर विनोद छाबड़ा 
१९६० के आस पास की बात है। दस साल उम्र रही होगी मेरी। याद आता है एक काले-सफ़ेद रंग का सड़क छाप कुत्ता। जाने क्यों और किसने उसका नाम बादशाह रख दिया था।
रोज़ दोपहर एक-डेढ़ और फिर रात आठ-साढ़े आठ के बीच मां के रोटी बनाने का वक़्त होता। इसी दौरान बादशाह हमारे द्वारे आकर बैठ जाता। किवाड़ उड़के होते तो पंजे से धक्का मार कर खोल देता और यदि अंदर से सांकल चढ़ी होती तो पंजे से खटखटा कर अपनी आहट दर्ज करा देता। हम भाई बहनो में प्रतियोगिता चला करती कि कौन पहले किवाड़ खोल कर बादशाह को रोटी देगा।
 
कभी रोटी बनने में देर हो तो उसे इंतज़ार करने को कहते। वो बैठ जाता। उसमें धैर्य बहुत था।
कभी-कभी मां उसे अंदर बुला लेती। वो बड़े एहतियात से धीरे-धीरे गलियारा और बरामदा क्रॉस करता। और रसोई में बैठी मां के हाथ से रोटी लेकर बाहर चला जाता। एक मशीन की तरह।
उसे ताज़ी रोटी ही पसंद होती। बासी रोटी सूंघ कर छोड़ देता।
मुझे याद है एक बार हमें किसी डिनर पार्टी में जाना था। मां ने उसके लिए स्पेशली रोटी बनाई और उसके आने के बाद ही पार्टी के लिए निकले।
उन्हीं दिनों गर्मी की छुट्टी में हम मामा के घर भोपाल गए। बादशाह के लिए रोटी का इंतेज़ाम हमने अपने ठीक सामने वाले पड़ोसी के घर कर दिया।
महीने बाद लौटे तो बादशाह को किवाड़ के पास लेटा पाया। हमें देख वो मारे ख़ुशी के पिछले पैरों पर खड़ा हो गया। शायद अभिवादन कर रहा था। पड़ोसी ने बताया कि हमारे जाने के बाद वो दिन-रात यहीं पड़ा रखवाली करता रहा।
उन दिनों आलमबाग के वेजीटेबल ग्राउंड में देर रात रामलीला चलती थी। मैं लौट कर आता तो घुप्प अंधकार होता। हमारा घर ऊपर की मंज़िल पर था। सीढ़ियों में भी रौशनी का कोई इंतज़ाम नहीं होता था। मां को नीचे से आवाज़ लगाते तो न जाने कहां बादशाह प्रकट हो जाता। मेरा सारा डर जाता रहता।
पिताजी की रेलवे पार्सल ऑफिस में थे। कभी-कभी ईवनिंग शिफ़्ट हुआ करती। आधी रात लौटना होता। किवाड़ जब खोले जाते तो पिता जी के साथ में बादशाह को भी दुम हिलाते हुए पाते। उस दिन उसे एक रोटी एक्स्ट्रा मिल जाती।   
एक दिन बादशाह नहीं आया। दूसरे दिन दोपहर भी जब वो नहीं आया तो हम सबकी दिल एक अनजान आशंका से धड़क उठे। हमीं नहीं अड़ोस-पड़ोस भी चिंतित हुआ। दरअसल वो कई घरों में लोकप्रिय था। उसकी खोज-बीन शुरू हुई। लेकिन वो नहीं मिला। अनुमान लगाया गया कि शायद वो किसी ट्रक के नीचे आ गया है।

हमारे घर के सामने से कानपुर रोड का नज़ारा साफ़ दिखता था। रोज़ाना कोई न कोई कुत्ता ट्रक के नीचे कुचला पड़ा दिखाई देता। आज की तरह उस ज़माने में दुर्घटना में मरे कुत्तों को उठाने मुंसीपाल्टी के कारिंदे नहीं आते थे। दूसरे कुत्ते और चील-कौवे उसे नोच कर खा जाते। उसके बचे-कुचे का कुछ हिस्सा आते-जाते ट्रकों के पहियों से चिपक कर दूर चला जाता। और बाकी सड़क से चिपक कर उसका हिस्सा बन जाता। कुछ दिनों बाद नामों-निशां भी न रहता। शायद अपने बादशाह का भी यही हश्र हुआ होगा।
आज लगभग पचपन बरस गुज़र चुके हैं। जब भी कोई काला सफ़ेद कुत्ता देखता हूं तो मुझे बादशाह की बेसाख़्ता याद आती है।
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11-08-2015 Mob 7505663626
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Lucknow-226016

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