Saturday, August 1, 2015

मीना कुमारी - ट्रेजेडी क्वीन की ट्रेजेडी!

-वीर विनोद छाबड़ा
सिनेमा इतिहास की सर्वश्रेष्ठ ट्रेजेडी क्वीन के लिए कई बार फ़ेहरिस्त बनी। टॉप पर हमेशा दिवंगत मीना कुमारी नाम ही दिखा।
लेकिन मीना को महज़ बेहतरीन अदाकारा के लिए ही याद नहीं किया जाता। वो त्रासदी का पर्याय थीं।

मर्दों के मामले में मीना की च्वॉइस कुछ अजीब सी रही। उन्होंने पंद्रह साल बड़े कमाल अमरोही को चाहा। पहले से शादी-शुदा और बाल-बच्चों वाला। एक बटा हुआ शख़्स। शादी के बाद अहसास हुआ कि उन्होंने कमाल को कभी चाहा ही नहीं। और न कमाल ने उनको। कुछ अरसे बाद  तलाक़ हो गया।
मीना की ज़िंदगी में दूसरा शख़्स आया -धर्मेंद्र। वो भी शादी-शुदा और उम्र में कम। दोनों ने सात फ़िल्में की - पूर्णिमा, काजल, चंदन का पालना, फूल और पत्थर, मैं भी लड़की हूं, मझली दीदी और बहारों की मज़िल। मीना ने धर्मेन्द्र को बताया कि यह दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है डूबते को नहीं। उनका शीन-काफ़ और तलफ़्फ़ुज़ दुरुस्त किया। लेकिन वो किसी और के लिए उन्हें छोड़ गया।
मीना को ज़रूरत थी एक ऐसे शख्स की जो खुद को भूल कर चौबीस घंटे उनके साथ रहे। ऐसा शख्स उन्हें न गुलज़ार (मेरे अपने) में दिखा और न सावन कुमार टाक (सात फेरे और गोमती के किनारे) में। और फिर अपनी उमगें कुचल कर उनके पास बैठने की फुर्सत किसे।  
मीना बचपन से ही फैमिली के लिए रोटी-रोज़ी जुटाने का साधन रही। खेलने-कूदने की उम्र एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो चक्कर काटते कटी। वो कब जवान हो गयी, उसे पता ही नहीं चला। दूसरों के लिए जीती रही। दूसरे उसे इस्तेमाल करते रहे और वो इस्तेमाल होती रही। अवसाद में घिरी रही। डॉक्टर ने अच्छी नींद के लिये एक घूंट ब्रांडी का नुस्खा लिखा। लेकिन मीना ने जल्दी ही उसे आधा गिलास कर दिया। जब समझाया गया तो वो डेटोल की शीशी में मदिरा  भरने लगी। खुद को मदिरा के हवाले कर दिया।
संयोग से फिल्मों में भी उन्हें सियापे और त्रासदी से भरपूर किरदार मिले। वो इसी को मुकद्दर समझ कर जीने लगी। 'साहब बीबी और ग़ुलाम' की 'छोटी बहु' सरीखी ज़िंदगी अपना ली। इतने परफेक्शन के साथ जिया इसे कि यह किरदार कालजई हो गया। हर छोटी-बड़ी नायिका के लिए रोल मॉडल बन गयी। मीना की ज़िंदगी एक किताब हो गयी। विनोद मेहता ने तो लिख भी दी - A Classic Biography (१९७२).

ट्रेजडी की लीक से हट कर ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के साथ 'आज़ाद' और 'कोहिनूर' की। हलकी-फुल्की कॉमेडी भूमिका। दिलीप तो अवसाद से निकल गए, लेकिन मीना नहीं बाहर हो पायीं। गहरे और गहरे डूबती गयीं। वो शायरा हो गयीं।
सुनील दत्त और नर्गिस ने मीना जी को नई ज़िंदगी देने की पहल की। छह साल से डिब्बे में बंद कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' फिर शुरू हुई। जब रिलीज़ हुई तो मीना की तबियत काफ़ी नासाज़ थी। फिल्म को अच्छी ओपनिंग नहीं मिली। लेकिन महीने बाद मीना को लीवर सिरॉसिस निगल गया। ट्रेजडी क्वीन को श्रद्धांजलि देने के लिए बॉक्स ऑफिस पर लंबी कतारें सज गयी। पूर्व पति मालामाल हो गए। मगर मीना का दिया जो खाते रहे उनके पास तीन हज़ार रूपए नहीं थे, हॉस्पिटल बिल चुका कर मीना की लाश उठाने के लिए।

यह मीना जी के पैर ही थे जिनके लिए कहा गया - इन्हें ज़मीन पर न रखियेगा, मैले हो जायेंगे।   
मीना की अदाकारी का लेवल इतना ऊंचा था कि उन्हें फिल्मफेयर में १२ बार बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नामांकित किया गया और चार बार विजेता हुईं - परिणीता, बैजू बावरा, साहब बीवी और गुलाम और काजल।
मीना ने कुल ९५ फिल्मों में काम किया। कुछ और यादगार फ़िल्में हैं - दुश्मन, बहु-बेगम, नूरजहां, चित्रलेखा, पिंजरे के पंछी, भीगी रात, बेनज़ीर, ग़ज़ल, दिल एक मंदिर, आरती, शरारत, यहूदी, शारदा, बादबान, चांदनी चौक, दो बीघा ज़मीन, दिल अपना और प्रीत पराई, एक ही रास्ता आदि।
०१ अगस्त १९३२ को जन्मीं मीना ३१ मार्च १९७२ को मौत के आगोश में चलीं गयीं। महज़ ३९ साल की उम्र नहीं होती है ऊपर जाने की और वो भी अदाकार के लिए।
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