Thursday, July 9, 2015

बेमिसाल हरीभाई उर्फ़ संजीव कुमार।


-वीर विनोद छाबड़ा
आज संजीव कुमार को गुज़रे आ ३० बरस हो गए हैं।
०६ नवंबर १९३८ को जन्मे हरिभाई जेठालाल जरीवाला को 'नौनिहाल' के सावन कुमार टाक ने संजीव कुमार बना दिया। थिएटर करते-करते फिल्मों में पहुंचे। कई फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं से लेकर हीरो रहे। जानकारों को इम्प्रेस बहुत किया। हरनाम सिंह रवैल ने उन्हें नोटिस किया। दिलीप कुमार सरीखे ग्रेट के सामने एक निगेटिव रोल ऑफर किया। हरीभाई ने झपट लिया। अपने आइडियल युसूफ भाई के सामने स्किल दिखाने का मौका कैरियर की शुरुआत में मिल गया। यह उम्मीद कतई नहीं थी। और वाकई पूरी कूवत दिखाई हरीभाई ने। पब्लिक ने उन्हें बहुत सराहा। 

प्रेस ने भी हरीभाई की खूब प्रशंसा की। दिलीप विरोधी एक लॉबी ने यह तक कह दिया कि कद्दावर युसूफ भाई को असहज कर दिया एक नए एक्टर हरीभाई ने।
लेकिन ऐसा नहीं था। दिलीप कुमार ने संजीव की बहुत तारीफ़ की। उस ज़माने में धारणा थी कि दिलीप कुमार अपने से बेहतर किसी की परफॉरमेंस बर्दाश्त नहीं करते थे और अपने ऊंचे कद के जलवे का इस्तेमाल करके ऐसे सीन कटवा देते हैं। दिलीप एक संजीदा अदाकार थे। सीन बेहतर हो, इस तथ्य के दृष्टिगत कुछ सुझाव ज़रूर देते थे। अगर वो निगेटिव धारणा वाले होते तो संजीव के वो सारे सीन/शॉट कटवा देते जिसमें संजीव उन पर भारी दिखे। कुछ भी हो यह तो तय हो गया था कि बड़े बड़ों की छुट्टी करने के लिए एक उम्दा अदाकार मैदान में आ गया है।
संजीव को अगली बार दिलीप कुमार के सामने खड़े होने का मौका मिला १९८२ में रिलीज़ गुलशन राय की सुभाष घई निर्देशित 'विधाता' में। लंबाई के हिसाब से छोटा मगर बहुत असरदार किरदार। लेकिन हरीभाई के लिए अहमियत युसूफ भाई के साथ की थी।
इससे पहले १९७४ में युसूफ भाई द्वारा नकारी 'नया दिन नई रात' को परफॉर्म करके हरीभाई खासा नाम कम चुके थे। एक बहस भी छिड़ी थी। अगर युसूफ भाई इसे करते तो क्या हरिभाई से बेहतर कर पाते?
बहरहाल विधाता में एक बार फिर यह तय करने का मौका आया कि कौन बेहतर है? यह वो दौर था जब दिलीप कुमार कैरियर की दूसरी पारी शुरू कर चुके थे  और संजीव बेहतरीन एक्टिंग की दुनिया में मज़बूत खंभा। सिनेमा और एक्टिंग की दुनिया में दिलचस्पी रखने वालों को बस इंतज़ार था कि दोनों कब आमने-सामने होते हैं और एक्टिंग का कौन सा नया आयाम स्थापित होता है।

हरीभाई को अबु बाबा का किरदार मिला, जिनके ज़िम्मे संजय दत्त की परवरिश की ज़िम्मेदारी थी। दिलीप-संजीव का कई शॉट में आमना-सामना हुआ। सब ठीक चला। आखिर वो सीन आ गया जिसका सब इंतज़ार कर रहे थे। संजय दत्त एक गरीब मछुआरिन से शादी करना चाहता है, मगर दादा दिलीप को सख़्त ऐतराज़ है। अबु बाबा संजय का साथ देते हैं। बहस बहुत गंभीर और तीव्र हो जाती है। हाई वोल्टेज ड्रामा। दिलीप कहते हैं -आप अपनी हैसियत से बहुत बढ़ कर बात कर रहे हैं।
संजीव पलट कर जवाब देते हैं - आप अपनी हैसियत से बहुत गिर कर बात कर रहे हैं।
आख़िर में दिलीप उन्हें नौकरी से अलग करते हैं और अबु बाबा बआवाज़े बुलंद एलान करते हैं - जाओ तुम मुझे क्या निकालोगे, मैं ही तुम्हें मालिक की नौकरी से अलग करता हूं।
गौरतलब है कि इस डायलॉग से पहले दिलीप कुमार सीन से निकल जाते हैं।

दो राय नहीं कि इस ड्रामे में जीत और तमाम तालियां संजीव के हिस्से में गईं। रिलीज़ होने से पहले कई एक्सपर्ट का दावा था दिलीप इस ड्रामे को हटवा देंगे। कद्दावर दिलीप के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। मगर ऐसा नहीं हुआ। ये ड्रामा और ये डायलॉग फ़िल्म की ज़रूरत ही नहीं जान थी। ये सिर्फ हरीभाई की जीत नहीं थी। अदाकारी की बेहतरीन मिसाल थी। जब दो ग्रेट आमने सामने होते हैं तो ऐसा ही कुछ अजूबा होता है।
हरीभाई अदाकारी की मिसाल हैं। उन्होंने १६३ फ़िल्में की हैं। दस्तक व कोशिश के लिए नेशनल अवार्ड और आंधी व अर्जुन पंडित के लिए फिल्मफेयर अवार्ड। शिकार के लिए भी उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर फिल्मफेयर मिला था।
हरीभाई बचपन से ही दिल के मरीज़ थे। यह उनकी खानदानी बीमारी थी। लंदन से बाईपास सर्जरी कराके लौटे थे। मगर कुछ ही दिन बाद  हार्टफेल हो गया। ये ट्रेजडी नहीं तो क्या है कि उन्होंने ६०-६५ से ज्यादा उम्र वाले बेशुमार किरदार किये लेकिन खुद महज़ ४७ साल की उम्र में इंतकाल फ़रमा गए।  
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०९-०७-२०१५     

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