Thursday, July 23, 2015

ऑटो चालक का भी दिल है।

-वीर विनोद छाबड़ा
अभी आज सुबह ऑफिस टाइम की बात है। मुंशीपुलिया ऑटो-टेम्पो स्टैंड पर सीट के लिये मारा-मारी है। हमें हैरानी होती है कि ऐसे मारा-मारी के माहौल में भी दो-तीन खाली आटो सामने से मुंह चिढ़ाते हुए सरपट निकल गए। दो आटो वाले स्टैंड से तनिक हट कर आराम फरमा रहे हैं। उनमें से एक से हमने अति विनम्रता से निवेदन किया - भैया शक्ति भवन तक जाना है। चलोगे?

उसने न हमें और न हमारे निवेदन पर कोई तवज़्ज़ो दी।
दूसरे से पूछा तो वो बोला - नहीं।
शुक्र है उसने जवाब तो दिया। इसका मतलब यह है कि उसमें जगप्रसिद्ध लखनवी गंगा-जमुनी तहज़ीब के कुछ अंश बाकी हैं या फिर हमीं ने सुबह-सुबह किसी भलेमानुस के दीदार किए हैं। 
सहसा कई तरह के सवाल ज़हन में पैदा होते हैं। यह चालक निठल्ले क्यों बैठे हैं? आटो में खराबी है? चालकों का हाज़मा खराब है? पेचिश की शिकायत हैं? बीवी की डांट खायी है? किसी से कोई झंझट हुआ है? पेट इतने भरे हैं कि इन्हें अब और पैसे की ज़रूरत नहीं है?
तभी हमने गौर किया। पहले वाला चालक बड़ी बेसब्री से बार-बार एक खास दिशा की तरफ देख रहा है। बीच-बीच में घड़ी भी देखता है। उसे शायद किसी का इंतजार है।
अचानक आटो चालक के चेहरे पर संतोष की लहर दौड़ी, आंखों में खुशी चमकी। वह अपनी सीट पर मुस्तैदी से बैठ गया। और फुर्ती से ऑटो स्टार्ट किया।
और तभी जाने कहां से एक सजी-धजी जवान लड़की आई और आटो में धम्म से बैठ गयी।
चालक ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पूछा भी नहीं कि कहां चलना है। तुरंत पिक-अप लिया और देखते ही देखते वाहनों की भीड़ में गुम हो गया।
हम एक पल के लिए सोच में डूबे कि आख़िर  माज़रा क्या है? फिर अचानक हमारा सिक्सटी प्लस का तजुर्बा काम आया। हमारी आंखों से सामने ऑटो चालक का इंतजार करता बेसब्र चेहरा घूम गया।
ओह! तो ये कुछ वैलेंटाइन यानि इश्क-विश्क का मामला है!
एक तरफा है या दो तरफा? क्या फ़र्क पड़ता है। दिल आख़िर दिल है। ऑटो चालक का है तो क्या हुआ?
हमने माफ़ किया आटो चालक को।
तभी भन्न से एक ऑटो हमारे सामने आकर रुका। उसमें एक सीट खाली थी। 
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२३-०७-२०१५

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