Saturday, June 20, 2015

मुद्रा राक्षस - लोहा इंसान।

-वीर विनोद छाबड़ा
मुद्रा राक्षस। एक क्षीण काया। विलक्षण प्रतिभा से भरपूर चलता-फिरता कभी न ख़त्म होने वाला अजूबा खज़ाना। हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि।
लखनऊ में मुद्राजी के ८२वें जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की भीड़ जमा हुई।

मंच का संचालन करते हुए कौशल किशोर ने नाट्य, मंचन, कहानी उपन्यास, आलोचना, संपादन, पत्रकारिता से जुड़े मुद्राजी को समाज के बीच का वो एक्टिविस्ट बताया जो हर जनसंघर्ष में जन के साथ है। स्थापित चिंतन से टकराता है।
वीरेंद्र यादव ने बताया कि मुद्राजी ने आपतकाल के विरोध में रेडियो की भली-चंगी नौकरी छोड़ उपन्यास लिखा 'शांतिभंग', जिसमें आपतकाल की भयानकता अनावृत हुई। एक नया रचनात्मक अवतार हुआ। अमेरिका के वियतनाम पर हमले के विरुद्ध वो झंडा लेकर चले। दलित विमर्श के मुद्दों पर बहुत मुखर रहे। वामपक्ष के चिंतक के रूप में उभरे। जब वो युवा थे तो नामवर जी ने उनके अतिवादी पहलुओं का विश्लेषण कर उन्हें जीनियस बताया। आलोचना के प्रति वो सहिष्णु हैं। साहित्यिक जगत उनसे सदैव आतंकित रहा।
उर्मिल कुमार थपलियाल ने बताया कि मित्रों और विरोधियों के साथ मुद्रा जी असहमत हो सकते हैं लेकिन मुद्राजी को नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है। उन्होंने दर्पण नाट्य संस्था के लिए मुद्राजी द्वारा लिखे नाटक 'गुफाएं' को याद करते हुए कहा कि मुद्राजी को समझे बिना यह नाटक करना बहुत मुश्किल था।
प्रो.रमेश दीक्षित की नज़र में मुद्राजी किसी साहित्यकार का नहीं अपितु प्रतिबद्धता का नाम है। हाशिये के लोगों के नायक हैं। जब-जब सत्ता हावी हुई तो उसको मुद्राजी ने ठेंगा दिखाया। जितनी आलोचना मुद्राजी को सहनी पड़ी है किसी अन्य को नहीं। मुद्राजी की कविताओं और शास्त्रीय संगीत में रूचि को भी उन्होंने याद किया।
तद्भव के अखिलेश का मानना है कि मुद्राजी को जानना बेहद कठिन काम है। आप जैसा सोच रहे हैं, अगले पल मुद्राजी कुछ और करते दिखते हैं। सबको चुनौती देते हुए ठीक विपरीत खड़े होते हैं। विचारों और शब्दों में एक जैसी उष्मा है। स्थापित धारणाओं, चाहे मार्क्सवाद ही क्यों न हो, को विध्वंस करते हैं। उनके विचार और व्यवहार में समानता है। उनमें वर्चस्ववादी प्रतिष्ठान से टकराने की हिम्मत है। वो लोहा इंसान हैं।
राकेश मुद्राजी को हर विचारधारा में रहते हुए एक अलग मुकाम पर देखते हैं। हर चिंतन पर सवालिया निशान लगाते हैं। अनहद में आराम से खड़े हर तथ्य का परीक्षण करते हैं। उनका अंदाज़े बयां और है। आचरण और व्यवहार में अंतर नहीं। उन्हें कोई करोड़ भी दे तो वो विचार नहीं बदलते। कबीर हैं वो, जो मुल्ला-पंडितों के पाखंड का बेलौस विरोध करते हैं। बकौल उनके कविता-कहानी-नाटक से कुछ नहीं होगा। विचार से बदलाव होगा। विचार ने ही युगों को दिशा दी है। विचार नहीं मरता। मस्तिष्क नहीं मरता। जितना ज्यादा इस्तेमाल होता है उतना ही प्रखर होगा।
सुभाष राय ने याद किया कि मुद्राजी व्यवहारिक दृष्टि से बेहद सरल और स्पष्ट हैं। उनके समाचार पत्र में वो बराबर लिखते रहे। मौजूदा और आने वाले दिनों में उनके जैसे उच्च स्तर के विचारों के मार्गदर्शन की सख्त ज़रूरत है।

रवींद्र वर्मा की दृष्टि में सार्थकता के प्रतीक हैं मुद्राजी। अपने पर किसी को हावी नहीं होने दिया। शरीर से वो कम कमजोर हैं मगर मस्तिष्क से बहुत सजग हैं। उन्होंने कामना की कि वो सौ तक जीयें और बराबर सृजन और चिंतन करते रहें।
शैलेंद्र सागर मुद्राजी में unpredictable personality पाते हैं। वो बहुत जल्दी रूठते हैं। मगर उनका रूठना बालसुलभ होता है। बड़ी जल्दी मान भी जाते हैं। 'कथाक्रम' को उन्होंने बहुत स्नेह दिया। दलित चिंतन पर 'कथाक्रम' के विशेषांक का उन्होंने संपादन किया था। बरसों हो गए लेकिन आज भी इस अंक की मांग है। उनकी दलित मुद्दों पर विश्लेषणात्मक सोच है। हैरानी होती है कि कोई व्यक्ति इतना विविधितापूर्ण अध्ययन कैसे कर सकता है। हिंदी साहित्य में ऐसा लेखक और व्यक्तित्व दूसरा नहीं है।
कामरेड अशोक मिश्र की नज़र में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसे मुद्रा जी ने चुनौती न दी हो। वो जननायक हैं। दूरदराज के इलाकों में भी उनकी पहचान है। उरई में शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह खां की याद में स्कूल की आधारशिला रखने के लिए मुद्राजी की मांग गई। इनके विचार सबके लिए एक आतंक की तरह चुनौती हैं। यकीन है कि इनका विद्रोही मन अंत तक लड़ेगा।
अजय सिंह मुद्राजी के विचारों भावावेश और अतिरेक पाते हैं। उन्होंने बताया कि मुद्राजी तस्लीमा पर लेख लिखा। असहमत होते हुए मैंने भी लिखा। मुद्रा जी ने फ़ोन की किया कि जो तुमने लिखा वो सही है और जो मैंने लिखा वो भी सही है। लोकतंत्र में असहमति होनी चाहिए। मुद्राजी इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। वो प्रिय भी हैं और दूर भी। यही विशेषता है। इनका चिंतन भावावेशी है।
शकील सिद्दीकी ने फ़रमाया मुद्राजी के आतंक का अहसास तब तक है जब तक कि आप इनसे दूर हैं। असहमति के विवेक को लंबे समय तक बनाये रखना एक विलक्षण प्रतिभा है। निश्छल व्यक्ति हैं। बड़े से बड़े अपराध को भी सरलता से क्षमा कर देते हैं। संकटों के समय अन्याय के विरुद्ध बोलते रहे। उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिलाये जाने के मुद्दे पर मजबूती से साथ दिया। मुद्राजी पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय हैं। वहां के लोगों को लगता है कि उनकी तरह ज़ुल्म सहने वाले व्यक्ति की आवाज़ हैं वो। बिलकुल अपने से हैं। उर्दू में अनुदित उनकी कहानियां खूब पढ़ी जाती हैं।
वंदना मिश्र ने बताया कि श्रीलाल शुक्ल तरह मुद्राजी में भी शास्त्रीय गायन की विलक्षण प्रतिभा है। पाकिस्तान में उनके कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी रचनायें हदों को लांघती हैं। उनका लेखन मानवता पक्ष को इंगित करता है। संस्मरणों का खजाना हैं वो।

दयानंद पांडे ने मुद्राजी जुड़े कुछ संस्मरणों का ज़िक्र किया। वो किसी की भी धज्जियां उड़ा देते हैं। उस पार्टी की भी जिसके कभी वो नगर अध्यक्ष रहे। उर्दू को दूसरी राज्य भाषा बनाने की खुल कर वक़ालत की। एक बार चैनल बादशाह रूपर्ट मुर्डोच ने उन्हें साइन किया। मोटी रक़म का मिला चेक दिखाने लगे। मैंने कहा चेक मुझे क्यों दिखा रहे हैं। उन्होंने चेक फाड़ दिया। एक वाकया कॉफ़ी हाउस में हुआ। एक जर्मन लेडी आई। उसे शास्त्रीय संगीत के बारे में जानकारी चाहिए थी। तमाम हरफनमौला थे वहां। कोई जानकारी नहीं दे पाया। तब मुद्राजी ने हिंदी-अंग्रेजी क्या संस्कृत में धारप्रवाह बोल कर उसे ज़रूरी जानकारी दी। वहां मौजूद सभी लोग अवाक् मुद्राजी का मुंह ताक रहे थे। मुद्राजी जी ने हमेशा पिता की तरह प्यार दिया। वाकई बहुत बड़ी हस्ती हैं वो।
नीरज सिंह ने कहा कि मुद्राजी को पढ़ कर पीढ़ियां बड़ी हुई हैं। जनवादी लेखक संघ ने जब उर्दू को दूसरी ज़बान बनाने की आवाज़ उठाई तो मुद्राजी साथ-साथ रहे। आज विदेशी कंपनियों के आगमन से देश की सार्वभौमिकता को खतरा है। मुद्राजी जैसे योद्धा की ज़रूरत है हमें।
आख़िर में आतमजीत सिंह ने एक नाटक का ज़िक्र करते हुए संस्मरण सुनाया। मुद्राजी ने इसे देने से मना कर दिया। कुछ दिन बाद फिर ज़िक्र हुआ तो बोले - करो, किसने रोका है। पता नहीं चलता था, उनका नाराज़ होना और फिर मान जाना। केके चतुर्वेदी ने भी आतमजीत सिंह के कथन की पुष्टि की।
लेकिन मुद्राजी को बधाई देने आई भीड़ को थोड़ी निराशा हुई। मुद्राजी के बारे में सुनने को ही नहीं मुद्राजी को सुनने की भी बहुत चाह थी।
मुद्राजी बहुत भावुक हो गए। कुछ ही शब्द बोले - न चाहते हुए भी सब मुझ पर केंद्रित हो गया.मैं क्या कह सकता हूं.कुल मिला कर हमारे ही विचारों का आदान-प्रदान हैयह सचमुच बड़ी अजब बात है कि हम कोशिश करके भी एक तरह से अपनेपन से अलग नहीं हो पाते हैं.मैं कितनी ही कोशिश करूं अपने आप से बाहर नहीं जा पातामैं अपने आप को दोहरा रहा हूं.यह दोहराव कष्टप्रद भी है और रोचक भी.कोशिश कर रहा हूं अपने आप से बाहर आऊं.आ नहीं पा रहा हूं.विचित्र असत्य है यह.मैं कहां हूं? यह जानने की कोशिश करता रहा हूं आपके माध्यम से.यह पहला मौका है कि कुछ बोल नहीं पा रहा हूं.जितना चाहा है उतना पा भी लिया है.मित्रगण सहायक हुए, शिद्दत से सामने आये सही बात यह है कि मुझसे न बुलवाइये।
अंत में मैं। वक्ता नहीं, बतौर लेखक।
वाकई आज अस्वस्थ, क्षीण और छोटे कद-काठी वाले मुद्राजी की भीमकाय बौद्धिक हस्ती के समक्ष सारे शब्द बौने लग रहे थे। मेरे लिए तो मेरे दिवंगत पिता के मित्र मुद्राजी को देखना ही हमेशा से सबसे बड़ी उपलब्धि रही है और आज भी रही।
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२१-०६-२०१५
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