Wednesday, June 17, 2015

एक आत्मकथा इस गधे की भी।

-वीर विनोद छाबड़ा
याद नहीं कि यह कथा किसी ने सुनाई थी या कहीं पढ़ी थी।
किशोरावस्था में कृष्ण चंदर की 'एक गधे की आत्मकथा' पढ़ी थी। कदाचित उसके कुछ गुण आ गए हों।
एक गधा हुआ करता था। उसका मालिक उसे कहता बेटा था मगर गधा समझ कर खूब काम लेता। कभी भरपेट खाने को नहीं दिया।
गधा चाहता तो भाग सकता था। उसका मालिक उससे कम बड़ा गधा नहीं था। अक्सर उसे बांधना भूल गया।
लेकिन वो नहीं भागा। अपनी गधेपंती के कारण नहीं। बल्कि इस उम्मीद में कि उसका मालिक अपनी बेटी को उससे ब्याह देगा। दरअसल वो अक्सर अपनी कम अक्ल बेटी को चेतावनी देता था - अगर तू इसी तरह गधापन दिखाती रही तो तेरी शादी इसी गधे से कर दूंगा।
लेकिन वो न सुधरी। एक दिन उसे गधे जैसे गुणों से भरपूर एक मानुष से ब्याह दिया गया। और द्वार पर बंधा गधा सपने ही देखता रहा।
वो अपने मालिक का दामाद नहीं बन पाया। मगर वो गधा ही क्या, जो उम्मीद छोड़ दे। शायद वो क्रिकेट का दीवाना था। जब तक आखिरी गेंद न डाल दी जाये तब तक इस खेल में कोई भी भविष्यवाणी खतरनाक हो सकती है।
वो बंधा रहा उस उम्मीद में कि शायद मालिक की बेटी अपने गधेनुमा पति से लड़-झगड़ कर वापस आ जाए और उसका चांस लग जाए। मगर यह मालिक की बेटी भी अपने पति से कम बड़ी गधी नहीं थी। कभी वापस न आई।
कई साल गुज़र गए। उम्मीद के सपने देखता गधा बूढ़ा हो चला था।
उसे ठीक से दिखता भी नहीं था। एक दिन वो घास चरते-चरते एक सूखे कुएं में जा गिरा। उसने खूब ढेंचू-ढेंचू किया। उसके मालिक ने उसकी आवाज़ सुनी। वो अपने कई साथियों को लेकर वहां पहुंचा जहां से आवाज़ आ रही थी। देखा उसका प्यारा गधा कुएं में गिरा पड़ा है। उसने अपने तमाम रिश्तेदारों, मित्रों और गांव वालों को बुला लिया और अनुरोध किया कि उसके प्यारे गधे को किसी तरह बाहर निकालने में मदद करें।
मालिक को एक सयाने ने सलाह दी कि अब यह बूढ़ा हो चला गधा तेरे किसी काम का तो रहा नहीं। मेरी मान तो मट्टी डाल और खिसक ले।
मालिक को बात समझ में आ गयी। कुछ कमाई तो हो नहीं रही इससे। उल्टा बोझ ही बना है। वो उसे वहीं दफ़न को तैयार हो गया।
उसने और बाकी लोगों ने उस कुएं में मट्टी डालनी शुरू की। लेकिन मानवों के बीच बरसों से रहते हुए गधा भी कुछ तो सयाना हो गया था। वो उनकी धूर्तता समझ गया। उसने तय किया कि वो उनके मंसूबों पर पानी फेर कर रहेगा।

सब लोगों ने सूखे कुएं में मट्टी डालनी शुरू की। लेकिन वो गधा हर बार मट्टी डालने पर फुदक कर मट्टी के ऊपर आ जाता था। यह क्रम काफी देर तक चलता रहा। फिर एक स्थिति ऐसी आई कि गधे को कुएं से बाहर की दुनिया दिखने लगी। वो फुदक कर बाहर कूदा और जंगल की और भाग गया।
उसके बाद गधे ने गधापन नहीं किया। बाकी की ज़िंदगी उसने जंगल में घास खाते गुज़ार दी। घास खाने से वक़्त मिलता तो वो जंगल के दूसरे शाकाहारी जानवरों को सलाह देता कि ज़िंदगी भले ही छोटी सही मगर आदमी की बात पर यकीन नहीं करना। यह लाख कहे मगर अपनी बेटी की शादी किसी गधे से नहीं करेगा। भले ही गधे से बड़े गधे जैसे मानव से कर दे।

नोट -देर से सही, गधे को भी अक्ल आती है।
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