Sunday, November 30, 2014

मृगतृष्णा (कहानी)

- वीर विनोद छाबड़ा
(मुझे तकरीबन ३० साल पहले लिखी एक कहानी याद आ गयी। लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपी थी। शीषर्क शायद 'मृगतृष्णा' था। कुछ यों सी थी कहानी।)

उसने मिलने का वादा किया।

वो तय जगह वक़्त से पहले पहुंचा। तकते-तकते तय वक़्त गुज़र गया।

वो नहीं आई।

एक घंटा ऊपर हो गया। वो नहीं आई। दो घंटे गुज़रे। फिर तीन। दिन ढल गया। चिराग जल उठे। रात हुई। बाज़ार बंद हो गया। गश्ती पुलिस ने खदेड़ा। वो फुटपाथ पर सो रहे दिहाड़ी वाले बेघर बेघरों के बीच लेट गया।

सुबह हो गयी। फिर दिन चढ़ने लगा। एक-एक करके दुकानें खुलने लगी। मगर वो नहीं आई।
उसे नहीं मालूम शाम कब हुई और कब सुबह।

आंख खुली तो अस्पताल में पाया। क़ासिद की मार्फ़त संदेशा भिजवाया।

वो नहीं आई।

उलटे क़ासिद खबर लाया कि बंद दरवाज़े पर मोटा पीतल का ताला लटका है। पडोसी ने बताया कि मालूम नहीं कहां गए और कब तक आएंगे।

मगर उसने हिम्मत नहीं हारी।

कई-कई रोज़ गया। मुलाकात की तय जगह और उसके घर भी। हर बार बंद दरवाज़े पर लटकते ताले को हसरत भरी नज़र से देख कर लौट आया।

ये सिलसिला रुका नहीं। कई-कई हफ़्ते और फिर कई साल तक जारी रहा। इस बीच एक दिन ताला खुला पाया। उसकी बाछें खिल गयी। मगर वो नया किरायेदार आया था।

खबरी ने खबर दी कि उसकी शादी हो चुकी है। वो विदेश में है कहीं।

उसको भी माता-पिता की ज़िद के सामने झुक कर शादी करनी पड़ी। बहुत अच्छी पत्नी मिली।

लेकिन कहानी ख़त्म नहीं हुई। वो एक बार उससे मिलना चाहता है - क्यूं नहीं आई? क्या कमी थी मुझमें?


दस बरस गुज़र गए। इस बीच सर के आधे बाल उड़ गए। चेहरा भी थोड़ा लटक गया।

और एक दिन तय जगह पर वो अचानक दिखी। कुछ तलाशती हुई। बेहद मोटी और थुलथुली हो गयी थी। मगर इसके बावजूद पहचानने में कतई देर नहीं लगी। गौर किया कि उसकी मांग लाल है। ये खबर तो थी ही। फिर भी हल्का सा धक्का लगा।  

वो एक्साइटेड होकर उसके सामने खड़ा हो गया। मगर उसने नहीं पहचाना। याद दिलाया। फिर भी उसे याद न आया।

तभी एक हैंडसम और लंबा-चौड़ा आदमी आया। वो शायद उसका पति था। बोला - कबसे तुम्हें ढूंढ़ रहा हूं। कहां चली गयी थी

उसने गहरी सांस ली - बाबा यहीं तो थी। तुम्हीं जाने कैसे इधर-उधर हो गए। अब चलो।

और वो दोनों चल देते हैं।

वो फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ता है। पीछे-पीछे चल पड़ता है। वो आपस में बातें कर रहे हैं। वो तेज़ी से उनके करीब सुनने की कोशिश करता है। उसने सुना।

उसका पति पूछ रहा था - कौन था वो?

वो कहती है - कहता है मेरे साथ पढ़ता था। मुझे तो याद नहीं है। शक्ल से कुछ बांवरा लग रहा था। बात करने का अंदाज़ भी पागलों वाला था।

ये सुन उसको शॉक लगता है। कानों में गरम-गरम शीशा उड़ेला हो किसी ने। पैर वहीं पत्थर की मानिंद जड़ हो जाते हैं। कुछ देर वो अचेतन सा उसी जगह खड़ा रहा।

फिर अचानक उसके मुहं से निकला - धत्त तेरे की! पागल! सचमुच पागल। किसके पीछे पागल रहा?

वो बड़ी तेज़ी से कपड़ों के एक शोरूम में घुस जाता है।

उसके सामने पत्नी का चेहरा है। कितनी खूबसूरत है वो। पिछले दस बरस से पत्नी को साड़ी तक नहीं दी थी उसने। उसने कभी मांगी भी नहीं। उसको दो खूबसूरत बच्चे भी दिए हैं। वो अब बड़े हो रहे हैं।

आज वो सबको हैरान कर देगा। 

-वीर विनोद छाबड़ा ७५०५६६३६२६/३०-११-२०१४  

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