Wednesday, November 26, 2014

हमसे भूल हुई गई, हमको माफ़ी देई दो!

-वीर विनोद छाबड़ा

हफ्ता भर पहले की बात है। पडोसी मित्र प्रेमजी सुबह-सुबह आ धमके।

माथे पर हाथ रख कर कातर स्वर में बोले - यार, चाय पिलाओ।

उनका उदास और लटका चेहरा देख मैंने पूछा - सब सुख तो है न?

प्रेमजी दुखी आत्मा समान बोले - कहां यार? कल रात क्या हुआ कि मैं काम में व्यस्त था।

मेमसाब बोलीं - मैं बर्तन धोने जा रही हूं। जब दूध उबल जाये तो गैस बंद कर देना।

मैं अपनी धुन में था। मेरे मुहं से निकल गया -  पड़ोस में बर्तन धोने जा रही हो क्या?

बस इसी बात पर वो बिगड़ गयीं - मैं मेहरी हूं क्या?

मैंने लाख समझाने की कोशिश की। मगर वो मानी नहीं। बेहद क्रोधित हैं। घर में ज्वालामुखी धधक रहा है। चाय भी नहीं मिली पीने को। ये टॉप शुक्र है कि अब उनके मां-बाप रहे नहीं। भाई-भाभी ज्यादा घास नहीं डालते। नहीं तो अब तक मायके निकल चुकी होती।

मैंने अपनी मेमसाब को आवाज़ लगाई - अरे भाई प्रेमजी आये हैं। बढ़िया सी चाय-शाये बनाओ ज़रा।

नेपथ्य में ऊंचे स्वर में कड़कता हुआ जवाब गूंजा  - खुद बना लो। मुझे फुरसत नहीं है।

जी धक हो गया। ऐसे जवाब की मैंने कभी स्वपन्न में भी कल्पना नहीं की थी।

लेकिन कुछ पल में मैं समझ गया कि प्रेमजी के घर में धधकते ज्वालामुखी के लावे की आंच मेरी मेमसाब तक पहुंच गयी है।

बहरहाल, मैंने प्रेमजी के लिए चाय बनाई। कुछ बिस्कुट उनके सामने प्रस्तुत किये।

बिस्कुट की ओर उंगली दिखाते हुए उन्होंने मुझे इशारे से कुछ पूछा।

उनका आशय समझते हुए मैंने उन्हें आश्वस्त किया - नहीं, कुत्ते के खाने वाले नहीं हैं।

और फिर बेआवाज़ उन्होंने चाय में डुबो कर बिस्कुट खाए और सुड़कने के स्थान पर सिप करके चाय पी। इस दौरान न वो कुछ बोले और न मैं। इस डर से कि दीवारों के भी कान होते हैं। मेरे और उनके मुहं से निकली 'चूं' तक की आवाज़ मेरी और उनकी मेमसाब के कानों तक पहुंच सकती है।

थोड़ी देर बाद प्रेमजी भारी क़दमों से उठ कर चले गए।

उनके जाते ही मैंने शुक्र किया - बेचारे प्रेमजी! इनके चक्कर में मैं भी मारा जाऊंगा।  

जल्दी-जल्दी नहा-धोकर नाश्ता किया और दफ्तर के लिए जल्दी निकल गया।

आज एक हफ्ता गुज़र चुका है। प्रेमजी का खाना तो बहाल हो चुका है। लेकिन सुबह की चाय वो अभी तक मेरे घर पर ही पी रहे हैं। मैं खुद ही उनके और अपने लिए चाय बना रहा हूं। वो चाय बेआवाज़ सिप करके ही पी रहे हैं। कम से कम एक घंटा अख़बार पढ़ते हैं। मैं कम्प्यूटर पर अख़बार पढता रहता हूं। 

इस बीच प्रेमजी की मेमसाब बर्तन, झाड़ू-पोंछा, अस्टिंग-डस्टिंग वगैरह करके स्नान कर चुकी होती है। और दो घंटे के लिए घंटियों वाली पूजा-पाठ और ध्यान के लिए बैठने जा रही होती है।

प्रेमजी दबे पांव घर में घुसते हैं। जल्दी से नहाते-धोते हैं। और फिर खुद ही नाश्ता-वाश्ता करके डाइनिंग टेबल पर एक परची रख कर दफ़्तर सरक लेते हैं।

उस परची में लिखा होता है - हमसे भूल हुई गई, हमका माफ़ी देई दो।

प्रेमजी की अर्जी मंज़ूर नहीं हुई है। चोट भी तो बहुत गहरी पहुंचाएं हैं। अब घाव भरने में टाइम तो भई लगता ही है।
-वीर विनोद छाबड़ा मो. ७५०५६६३६२६

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