Monday, November 24, 2014

अस्पताल तब और अब !

-वीर विनोद छाबड़ा
बंदा पच्चासी प्लस है। बिलकुल निरोग और चुस्त दुरुस्त। घरैतिन भी सलामत। अस्तित्वहीन मायके के टोने-टुटकों और घरेलू नुस्खों पर अटूट विश्वास वाली। दोनों सोशल प्राणी है। आये दिन किसी न किसी का हाल-चाल जानने अस्पताल जाते हैं।

अस्पतालों की भरमार है। किस्म-किस्म के। सस्ते-महंगे। सरकारी और मिशनरियों वाले।

अस्पताल में भर्ती होना स्टेटस सिंबल है। अमीर-ग़रीब सभी के लिए। सर्दी-जुकाम में भी लोग भर्ती होते हैं। मिजाज़पुरसी वालों की भीड़ जुटानी ज़रूरी है। भाड़े पर सब मिलता है। इवेंट मैनेजर हैं न!

बीमार देखने जाइए। लंच चाय-नाश्ता फ्री। आस-पास ढेर दुकानें और ठेले। बच्चों के तरह-तरह के खिलौने व गुब्बारे लाल-पीले-हरे-नीले। आइसक्रीम और कोल्डड्रिंक भी भरपूर। चाय-नाश्ते में बंद-मक्खन, ब्रेड-पकौड़ा और समोसा। लंच में पूड़ी-कचौड़ी चाइनीज़ व साऊथ इंडियन। परंतु मरीज़ की ज़रूरत वाला खाना नहीं।

क्वालिटी कंट्रोल और सफाई किचन में न के बराबर। बस स्वाद चखिए। वाह-वाह करिये। दाम भी ड्योढ़े हैं।  मिजाज़पुरसी करने महिलाएं दोपहर की रसोई निपटा कर बच्चों सहित आ धमकती हैं और दिन भर पंचायत करती हैं। बच्चे अस्पताल के चिकने फर्श पर स्किट करते किलकारियां भरते हैं।

शाम का वक़्त दफतर से लौटते कर्मियों का है। मरीज़ के सामने बैठ कर चटखारे लेते हुए समोसा व ब्रेड पकौड़ा भकोसते हैं।

रिवाज़ के मुताबिक सलाह-मशविरे हैं। क्या खाएं और क्या नहीं?

ईलाज की विधियां भी बताते हैं। इस मर्ज़ में फलां पैथी सौ टंच कारगर। फलां हकीमजी के हाथ में कमाल का जादू है। दो दिन की मेहमान मेरी सास दो दिन में सरपट दौड़ने लगी। यहां नहीं, वहां भरती करते। फलां अस्पताल के डाक्टर ज्यादा अच्छे हैं। एक साब ने अजीबो-गरीब बीमारियों के किस्से सुना डाले। हंसी-ठट्ठा करने वालों की भी कमी नहीं।

ये सब देख बंदे को अपना ज़माना याद आया।


पच्चास का दशक। शहर में एक्का-दुक्का सरकारी अस्पताल। एक-आध रिटायर्ड डॉक्टर और बाकी झोला छाप।  हकीम और वैद्य।

बंदे को तेज बुखार आया। तमाम घरेलू और आजू-बाजू वालों के नुस्खे बेकार साबित हुए। घरैतिन के मायके की हिकमत भी काम न आई। झाड़-फूंक और टोने-टुटके फेल।

मरता क्या न करता, बड़े अस्पताल में भर्ती होने का फैसला लिया। बिदाई को स्वतः-स्फूर्त सारा मोहल्ला उमड़ आया। अंतिम बिदाई सा समां।

मायके और ससुराल में खबर देने की तार-चिट्टी के बाद हरकारे भी रवाना कर दिए गए। जहां-तहां अब गए कि तब गए जैसा आपातकालीन चित्रण।

अस्पताल के बाहर भीड़। मोहल्ले के नब्बे फ़ीसदी लोगों ने इसके पहले कभी अस्पताल नहीं देखा था। कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। घरेलू नुस्खों से घर ही में ईलाज हो जाता। दो-चार दिन में ठीक। वरना पांचवे दिन ऊपर के लिए रवानगी।   
  
अस्पताल में पिनड्रॉप साइलेंस रहता। तूफ़ान आने से पहले का अंदेशा। ज्यादातर आखिरी दीदार के अंदाज़ में पधारते। कुछ ने दो दिन की छुट्टी ली। जाने कब क्या हो जाए? शाम दफ़्तर के लोग मिलने आये। जल्दी ठीक होने की अश्रुपूर्ण सांत्वना दी।

बंदे का ठीक जूनियर भी आया। बड़ा उदास दिखा। मगर बंदा जानता है। अंदर से वो खुश है। उसे बड़ी उम्मीद है कि बंदे का अंत समय निकट है। उसका प्रमोशन पक्का।

मगर सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए बंदा दस दिन बाद निरोग होकर घर लौट आया। टायफाइड ही तो था। बंदे ने डॉक्टर और अस्पताल प्रशासन को शुक्रिया कहा।

लेकिन घरैतिन ने क्रेडिट मायके को दिया। बोली - आखिर उनका ही टोटका काम आया। काम अपने ही आते हैं न!

-वीर विनोद छाबड़ा मो.७५०५६६३६२६ १२.११.२०१४

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