- वीर विनोद छाबड़ा
(मुझे तकरीबन ३० साल पहले लिखी एक कहानी याद
आ गयी। लखनऊ के ‘स्वतंत्र भारत’ में छपी थी। शीषर्क शायद 'मृगतृष्णा'
था। कुछ यों सी थी कहानी।)
उसने मिलने का वादा
किया।
वो तय जगह वक़्त से
पहले पहुंचा। तकते-तकते तय वक़्त गुज़र गया।
वो नहीं आई।
एक घंटा ऊपर हो गया।
वो नहीं आई। दो घंटे गुज़रे। फिर तीन। दिन ढल गया। चिराग जल उठे। रात हुई। बाज़ार बंद
हो गया। गश्ती पुलिस ने खदेड़ा। वो फुटपाथ पर सो रहे दिहाड़ी वाले बेघर बेघरों के बीच
लेट गया।
सुबह हो गयी। फिर दिन
चढ़ने लगा। एक-एक करके दुकानें खुलने लगी। मगर वो नहीं आई।
उसे नहीं मालूम शाम
कब हुई और कब सुबह।
आंख खुली तो अस्पताल
में पाया। क़ासिद की मार्फ़त संदेशा भिजवाया।
वो नहीं आई।
उलटे क़ासिद खबर लाया
कि बंद दरवाज़े पर मोटा पीतल का ताला लटका है। पडोसी ने बताया कि मालूम नहीं कहां गए
और कब तक आएंगे।
मगर उसने हिम्मत नहीं
हारी।
कई-कई रोज़ गया। मुलाकात
की तय जगह और उसके घर भी। हर बार बंद दरवाज़े पर लटकते ताले को हसरत भरी नज़र से देख
कर लौट आया।
ये सिलसिला रुका नहीं।
कई-कई हफ़्ते और फिर कई साल तक जारी रहा। इस बीच एक दिन ताला खुला पाया। उसकी बाछें
खिल गयी। मगर वो नया किरायेदार आया था।
खबरी ने खबर दी कि
उसकी शादी हो चुकी है। वो विदेश में है कहीं।
उसको भी माता-पिता
की ज़िद के सामने झुक कर शादी करनी पड़ी। बहुत अच्छी पत्नी मिली।
लेकिन कहानी ख़त्म नहीं
हुई। वो एक बार उससे मिलना चाहता है - क्यूं नहीं आई? क्या कमी थी मुझमें?