Monday, September 15, 2014

तुम्हें मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?

-वीर विनोद छाबड़ा

आज सुबह-सुबह मेमसाब बोलीं - ये देखो मेरी बगिया में मिर्ची निकली। लाल-लाल।

हमने गौर से देखा। न देखता तो आफ़त! यों भी सुखी पारिवारिक जीवन के लिए वो सब ज़रूर देखना चाहिए
जो मेमसाब दिखाना चाहती हैं या जो वो देखना चाहती हैं। मैंने एक कदम आगे बढ़ कर कहा - हरी मिर्च भी हैं ढेर सी। यही तो लाल हुई हैं।

उन्होंने मुझे गुस्से से देखा। मानो कह रही हों जितना दिखाया उतना ही देखो। खैर, वो आज बहुत खुश हैं।

यों घर की बाग-बगिया में दिलचस्पी रखने वाले तब-तब बाग-बाग होते हैं जब-जब उनकी बगिया में कोई फल-फूल खिलता है। कितना ही ख़राब क्यूं हो मूड, बगिया की अच्छी खबर से खिल उठता है। ये उनकी मेहनत का नतीजा जो होता है।

हमने किसान को भी इसी तरह खुश होते देखा है। लेकिन निराश होते भी जब कोई उसे उजाड़ दे या बारिश न होने से सूखा पड़ जाये या बाजार में उसका उचित मूल्य न मिले। मेमसाब भी किसान की तरह निराश होती हैं। 

बहरहाल, मेमसाब की ख़ुशी में हम शामिल हैं। आज कुछ अच्छा खाने को मिलेगा। हर आइटम में मिर्च होगी लाल भी और हरी भी। मिर्ची का आचार भी होगा। संभव है मीठे में भी मिर्ची हो। जो भी हो ज़ुबान वाली मिर्च से हर सूरत में बेहतर ही होगी न!

मिर्ची से मुझे एलर्जी है। मुंह में बेतरह जलन होती है। माथे से पसीना चूने लगता है। दो-चार छींकें भी आती हैं। सब बर्दाश्त है। बस मेमसाब खुश रहें। मेम साब खुश तो घर में बहार है। बिना हवा और वातानुकूलित यंत्र के भी ठंडी बयार है। हम अपनी तरफ से उन्हें हरचंद खुश रखने की कवायद में जुटे रहते हैं। आखिर हमारा भी तो घर में बेहतर माहौल बनाये रखने में योगदान होना चाहिए। ये फ़र्ज़ भी है।


हां, तो हम बात कर रहे थे बाग़ बगीचे की। ये शौक और ये संस्कृति मेमसाब मायके से लायी है। यही एक चीज़ है जो हमारे घर में नहीं थी। होश संभाला तो अपने को दुमंजिले या तिमंजिले पर पाया। मेमसाब का मायका ज़मीन पर था। लेकिन शादी के तीन-चार साल बाद हम भी हवा में उड़ना बंद ज़मीन पर उतर आये। लखनऊ के इंदिरा नगर में मकान ले लिया। आस पास बहुत ज़मीन खाली थी। मेमसाब तो इतनी खुश हुई कि मानों शादी के बाद उन्हें पहली बार कोई बढ़िया तोहफ़ा मिला हो। आते ही जुट गयीं।  कुछ ही दिनों बाद घर के आस-पास गेंदे के फूल ही फूल खिल उठे। लेकिन पारिवारिक ज़रूरतों ने खाली ज़मीन पर भी कुछ कमरे बनाने पर हम मज़बूर हो गए। 

लेकिन, जुनून बहुत कुछ कराता है। चारदीवारी के उस पार ४ फ़ीट नगर निगम की ज़मीन पर २० फ़ीट लंबा किचन गार्डन बना लिया। उन दिनों सरकार भी किचन गार्डनिंग की इज़ाज़त देती थी। ढोर-डंगर और बच्चों से बचाने के लिए लोहे की मोटी जाली से घेराबंदी भी की। आठ दस हज़ार ख़र्च किये। तीन बार नगर निगम का दस्ता उजाड़ चुका है। मेमसाब ज़ार-ज़ार रोयीं। इतना तो मायके से बिदाई के वक़्त बजी नहीं रोई थीं। लेकिन वो हिम्मत नहीं हारी। फिर जुट गयीं।

हमारा मेमसाब की खेती-बाड़ी में दखल कतई नहीं है। जब पिता जी थे तो वो काफी रूचि लेते थे। उनके जाने के बाद वो अकेली हो गई।

कब क्या लगाना है? कितनी खाद चाहिए? ये सब कहां कहां उपलब्ध है? और किससे मंगाना है? मेमसाब को सब जानकारी है। सुबह-शाम पानी भी वही देती हैं। 

हम गौर करते हैं कि इससे उनका टेंशन रिलीज़ होता है। ऊर्जा मिलती है। ताज़ग़ी महसूस करती हैं।हमारे ऐसे सारे मित्र उन्हें बहुत भाते हैं जिन्हें ये शौक है।

हमको उनकी बगिया के बैंगन, टमाटर, तुरई और लौकी कई बार खाने को मिली है। कई बार कड़वी होने के बावजूद हमने उफ़ तक नहीं की।

लेकिन, ये मिर्ची पहली बार उगी है। क्यूं उगी है? हम अपने में इसका कारण तलाश रहे हैं। हमें कोई सबक सिखाने की चाल तो नहीं। अगर है भी तो हम उसे धूल-धुसरित कर देंगे। उफ़ तक न करेंगे। अपने आंसू पानी समझ पी जायेंगे।


तभी मेमसाब ने गुहार लगायी - खाना इज़ रेडी।

हम अपना कंप्यूटर सिस्टम बंद करके ख़ुद को मिर्ची खाने के लिए तैयार कर रहे हैं। बर्दाश्त करना ही है। शिकायत से कोई फायदा नहीं।

क्योंकि हमें मालूम है कि मिर्ची खाने से उत्पन्न हमारी हर तकलीफ पर वो यही कहेंगी - तुम्हें मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?

- वीर विनोद छाबड़ा १५  सितंबर २०१४ मो०  ७५०५६६३६२६        

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