Wednesday, July 30, 2014

देखो देखो, साहब चूहा छोड़ने जा रहे हैं!

-वीर विनोद छाबड़ा

अभी कल ही की तो बात है। मैं गजेटेड पोस्ट पर नया-नया प्रमोट हुआ था। वो कहते हैं न कि खुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है। मुझे भी गजेटेड पद की महिमा और गरिमा बनाये रखने के कई स्थापित मानक खुद ब खुद ज्ञात हो गये। मसलन, ढाबे पर खड़े होकर चाय नहीं पीनी, कोई नमस्ते करे तो उसका जवाब सिर हिला कर देना। यदि नमस्ते करने वाली महिला हो तो हौले से मुस्कुरा देना। चैयरमैन के रूम में घुसने से पहले शर्ट के बटन ऊपर गले तक बंद कर लेना और आस्तीन नीचे हाथों तक गिरा लेना। वगैरह, वगैरह। मगर घर में मेरी बिसात में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। पत्नी ने फ़रमान जारी
किया- ‘‘अफ़सर होगे आफ़िस में। घर में सिर्फ पति और बच्चों के पिता हो और जो अब तक करते आये हो वही पहले की तरह करने रहो।’’ निर्वहन हेतु इन्हीं प्रदत्त कार्यों में था- चूहेदानी में फंसे चूहे की कहीं दूर रिहाई। यह भी सख्त ताकीद दी गयी कि ध्यान रहे- ‘‘चूहा मारना पाप है। गणेशजी की सवारी है।’’

मैं सुबह सबसे मूषक महाराज को मेन रोड के परली तरफ बडे़ नाले में विदा करता था। चूहेदानी का मुंह खुलते ही चूहा छलांग लगा कर बाहर कूदता और फिर पलट कर बंदे की तरफ यों देखता मानों चिढ़ा रहा हो - ‘‘बच्चू तैयार रहना लौट कर आ रहा हूं।’’ मुझे लगता था कि सारी मूषक बिरादरी को मुझसे एलर्जी थी। एक दिन मुझे संदेह हुआ कि चूहा इतनी दूर से भीड़-भाड़ भरी सड़क क्रास करके कैसे मेरे घर लौट आता है। एक दिन कैदी चूहे पर मैंने लाल स्याही छिड़क दी। ताकि पता चल सके कि वो वाकई लौटता है या नहीं। लेकिन लाल स्याही वाला चूहा मुझे नहीं दिखा। तब मुझे इत्मीनान हुआ कि चूहा मुझे चिढ़ा नहीं रहा बल्कि आज़ाद करने का शुक्रिया अदा कर रहा है।

चूहेदानी में लगभग रोज़ाना एक आध-चूहा फंसता था। कभी छोटा तो कभी बड़ा। मुझे गुस्सा तब आता था जब रास्ते चलते मोहल्ले के स्वयंभू ज्ञानी-ध्यानी रोक कर चूहे की साईज़ की बावत पूछते लगते। कोई बड़े चूहे को राजसी या खलिहानी बताता और कमजोर को गरीब। कभी-कभी लांछन सुनने को मिलता - ‘‘लगता है आप के घर में कुछ खास खाने को मिलता नहीं। वरना इतना कमजोर नहीं होता।’’ एक साहब बेसुरी आवाज़ में गाने लगे- ‘‘कैद में है बुलबुल सैय्याद मुस्कुराये....।’’ हद तो तब हो गयी जब एक साहब ने चुहलबाजी की - ‘‘अच्छा, तो चूहा फंसा है। लगता है छोड़ने जा रहे हैं?’’ मुझे बहुत गुस्सा आता था कि चूहेदानी में चूहा या छछूंदर ही फंसता है कोई हाथी नहीं। मुझे हैरानी होती कि मैंने अपने अलावा किसी अन्य को चूहेदानी के साथ कभी नहीं देखा। क्या उनको चूहे का सुख नसीब नहीं है? बहुत गये गुज़रे हैं ये लोग। एक बार मैंने पता चलाया। मुझे यह शक़ भी था कि मेरे घर में चूहेदानी होने का फायदा उठाते हुये पड़ोसी अपने घर के चूहों को मेरे घर डायवर्ट करता है ताकि उसके सिर पर गणेश जी की सवारी को पकड़ने का पाप न चढ़े। बीकानेर में देवी जी का एक ऐसा मंदिर भी है जहां हज़ारों-हज़ार चूहे हैं जो वहां बेखटके घूमते हैं।

Friday, July 25, 2014

इंदर सेन जौहर बोले तो आई.एस. जौहर!

-वीर विनोद छाबड़ा

हिंदी सिनेमा के इतिहास में कई अजीबो-गरीब शख्सियतों के नाम दर्ज हैं। इंदर सेन बोले तो आई.एस. जौहर की गिनती इन्हीं में है। जौहर ने स्थापित मान्यताओं, रवायतों, रस्मों, ढोंगों, चोंचलों की ज़रा भी परवाह नहीं की। बल्कि जमकर खिल्ली उड़ायी। ऐसा करते हुए कई बार हद से भी गुजर गये। इसका ख़ामियाज़ा उन्हें इस तरह भुगतना पड़ा कि वो महफ़िलों के लिये अवांछनीय हो गये। हमदर्दों ने उनके होंटो पर टेप चिपका दिया। बहुत पढ़े-लिखे थे। एल.एल.बी., अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एम.ए. की
डिग्रियां। सेंस आफ हयूमर, हाज़िर जवाबी और मज़ाक करने की टाईमिंग शानदार थी। ऐसा रील लाईफ के अलावा रीयल लाईफ में भी था। इसी कारण ऐसे लोग इनसे बचा करते थे जो खुद को अक़लमंदों के अलमबरदार और सीधे जन्नत से उतरा हुआ मानते थे।

जौहर लाहोर में रहते थे जब भारत का विभाजन हुआ। उस दिनों वो परिवार सहित एक रिश्तेदार की शादी में हिस्सा लेने पटियाला आये हुए थे। तभी विभाजन पूर्व के दंगे शुरू हो गये। लौट नहीं पाये लाहोर। सब कुछ लुट गया। कुछ वक़्त जालंधर में रुक कर छोटे-मोटे काम किये। फिर किस्मत उन्हें बंबई ले गयी जहां रूप के. शोरी की ‘एक थी लड़की’ (1949) में कामेडियन का रोल मिला। जौहर खूब पसंद किये गये। उसके बाद रास्ता खुल गया। पचास, साठ व सत्तर के दशक में अनेक फिल्में कीं। उनका नाम हास्य की पहचान बन गया।

जौहर उन चंद भारतीय अभिनेताओं में थे जिनकी हालीवुड में खास पहचान थी। वहां उन्हें सराहा भी खूब गया। दुनिया के प्रति अपने विचित्र विचारों के कारण विदेशों में वो उच्चकोटि के बुद्धिजीवी कहलाते थे। ‘हैरी ब्लैक’ (1958) उनकी पहली हालीवुड फिल्म थी। इसके बाद नार्थ वेस्ट फ्रंटियर (1959), लारेंस आफ
अरेबिया (1962) व डेथ आन दि नाइल(1978) की। ये बहुत कामयाब फिल्में थी। ‘हैरी ब्लैक’ में अभिनय के लिये उन्हें विश्व प्रसिद्ध ‘बाफ़टा’ पुरुस्कार हेतु नामांकित भी किया गया। अमेरीकन टीवी सीरीयल ‘माया’ से भी उन्हें खासी ख्याति मिली।

जौहर ने पंजाबी फिल्में भी की। जिनमें सबसे चर्चित थी ‘छड़यां दी डोली’ (1966), ‘यमलाजट’ और ‘नानक नाम जहाज है’ (1969)। पंजाबी फिल्मों के इतिहास में यह सर्वकालीन कामयाब फिल्मों में थी। जौहर का इसमें सुनील दत्त के भाई सोम दत्त, विम्मी और पृथ्वीराज कपूर के साथ अहम किरदार था।

जौहर बहुत अच्छे लेखक व निर्देशक भी थे। कुल 14 फिल्में निर्देशित की। प्रमुख थीं- श्रीमती जी, नास्तिक, श्री नगद नारायण, हम सब चोर हैं, मिस इडिया, बेवकूफ आदि। यह सब ए-ग्रेड फिल्में थी। परंतु जिन फिल्मों को उन्होंने स्वयं प्रोडयूस और डायरेक्ट किया, वे सभी बी-ग्रेड से ऊपर नहीं उठ पायीं। जैसे, जौहर महमूद इन गोवा, जौहर इन कश्मीर, नसबंदी, जाय बांग्ला देश, फाईव राईफल्स आदि। इनमें और इसके अतिरिक्त कई फिल्मों का लेखन भी किया। जैसे अफ़साना, दास्तान, करोड़पति, भाई-बहन, चांदनी चैक आदि।

Tuesday, July 22, 2014

क़लम की ताकत - हीरो को बनाया कुत्ता!

-वीर विनोद छाबड़ा

बात उस ज़माने की है जब फिल्में गूंगी थी। फिल्म का कथ्य और उसका असर डायलाग के ज़रिये की बजाय चेहरे की भाव-भंगिमाओं से नुमांया होता था। यानि आर्टिस्ट की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। लेकिन इसके बावजूद सबसे ताकतवर स्टूडियो का मालिक होता था। दरअसल वो स्टूडियो का दौर
था। आर्टिस्ट, डायरेक्टर, लेखक और तमाम तकनीशियन आदि मासिक वेतन पर स्टूडियो के लिये अनुशासित सिपाही की तरह काम करते थे।

लेकिन बाज़ लोग कभी-कभी बेलगाम हो जाते थे। ऐसा ही एक हीरो था जो कभी वक़्त का पाबंद नहीं था और सेट पर सीन बदलवाने के लिये भी खासा बदनाम था ताकि कैमरे के सामने ज्यादा से ज्यादा उसका थोबड़ा रहे। मगर फिल्म का डायरेक्टर भी बड़ा कड़क और घाघ आदमी था। उसके हुक्म के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता था। स्टूडियो मालिक ने अनुशासन कायम करने की उसे कुछ भी करने के पूरे अख्तियार दे रखे थे। नाम था, होमी मास्टर। उसका डसा पानी भी नहीं मांगता था। इसलिये पीठ पीछे उसे ‘कालिया नाग’ कहा जाता था।

एक दिन उसने बेलगाम हो रहे हीरो को सबक सिखाने की ठानी। लेखक को बुलाया और हुक्म सुनाया - ‘‘अभी के अभी स्क्रिप्ट बदलो। सीन यों है। एक अंतर्यामी साधु बाबा की एंट्री करो। हीरोइन को होश नहीं है। वो अपने प्रियतम (हीरो) की याद में बेतरह डूबी है। उसने साधु बाबा की देखा तक नहीं। इस घोर उपेक्षा से क्रोधित साधु बाबा ने हीरोइन को श्राप देते हैं - तू जिसकी याद में खोयी है वो कुत्ता बन जाये। जा, अब तू कुत्ते से प्यार कर। हीरो का फिल्म से काम खत्म।’’

Friday, July 18, 2014

बरखा रानी ज़रा संभल के बरसो !

-वीर विनोद छाबड़ा

बिजली कड़की। बादल गरजे। तेज हवाओं के साथ मोटी-मोटी बूंदों के साथ बारिश शुरू हो गयी। बंदे का छाता नाकाफ़ी पड़ गया। वो बेतरह भीग गया। तभी एक तेज रफ्तार बड़ी कार उसके बगल के गुज़री। कीचड़ भरे पानी से बंदा सरोबर हो गया। उसके मुंह से चुनींदा गालियों की बेतरह बौछार होती है। बारिश का लुत्फ उठाते हुए स्कूल से लौट रहे बच्चे ये दृश्य देख कर जोर-जोर से हंसने लगे। बंदा अपनी लाचारी पर झेंप गया। मां-बाप ने तमीज़ नहीं सिखायी है अपने बच्चों को कि किसी की लाचारी पर हंसना अच्छा
बात नहीं। सहसा उसे अपना बचपन याद आ गया....

....पचास साल पहले वो भी इन्हीं की तरह बच्चा था। बड़ा मजा आता था भीगने में। उन दिनों वाटरप्रूफ बस्ते नहीं थे। कापी-किताबें बुरी तरह भीग जाती थीं। बाज़ वक़्त भीगने से थोड़ा जुकाम और कभी-कभी हल्का बुखार भी चढ़ता था। दो-तीन दिन तक स्कूल जाने से भी निजात। लखनऊ के आलमबाग इलाके की चंदर नगर मार्किट में घर था। सामने खूब बड़ा मैदान था। बारिश से वहां तलैया बन जाती थी। कागज़ की नाव तैराने की होड़ लगती थी। उन दिनों राजकपूर पर फिल्माया ‘छलिया’ फ़िल्म का ये गाना बड़ा मशहूर था - ‘डम डम डीगा डीगा, मौसम भीगा भीगा सा, बिन पिये मैं तो गिरा, मै तो गिरा, हाय अल्लाह, सूरत आपकी सुभान अल्लाह...।  इस गाने में भरपूर मस्ती थी, तरंग थी जिसका नशा बिन पिये ही चढ़ जाता था। वो मस्ती, तरंग और वो नशा आज भी बरकरार है। तभी तो जब बारिश आती है तो झूम-झूम कर यही गाने के लिये मन उतावला हो उठता है...

...बंदा वर्तमान में वापस आता है। उसे अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व होता है। तब विकास के नाम पर जेसीबी मशीनों द्वारा खोदे गये बड़े-बड़े गहरे गड्डे नहीं होते थे। अब तो यह भी पता नहीं कि किस सड़क या गली में बारिश के पानी में डूबे मल-निकासी हेतु भूमिगत नाले का खुला मेनहोल बारास्ता पाताललोक से परलोकवासी बना दे। तभी तो बंदे का मन बारिश होते ही घबड़ाने लगता है। उसके ज़माने  में गोमती मैया में दो बार भयंकर बाड़ आयी थी। पहली बार 1960 में और दूसरी बार 1971 में। सुना था कि हज़रतगंज के मेफे़यर तिराहे तक नाव चली थी।


अब तो गोमती के दोनों तरफ दूर तक ऊंचे मजबूत बांध हैं। इससे शहर के दोनों ओर के तमाम इलाके महफ़़ूज़ हैं। लेकिन अब कुकरैल नाले में बाढ़ आती है। आस-पास के कई मोहल्ले डूब जाते हैं। सन 1986 में इसी कुकरैल नाले की बाढ़ ने इंदिरा नगर और नये बस रहे गोमती नगर के कुछ हिस्सों को डूबो दिया था जिसके कारण रातों-रात वहां ज़मीन के दाम गिर गये थे। अब खुले मैदान नहीं रहे तो हर छोटी-बड़ी सड़क तलैया बनती है। कई जगह तो घुटनों के ऊपर तक पानी रहता है।

Tuesday, July 15, 2014

ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद !

- वीर विनोद छाबड़ा

लखनऊ यूनिवर्सिटी। सत्तर के दशक का शुरुआती दौर।
मस्त ज़िंदगी। कोई दुःख नहीं, गम भी नहीं। हर शोक और फिक्र को धुंए में उडाते चले जाने वाले  मोड का युग।
हम पांच साथी थे। मैं, रवि प्रकाश मिश्रा, प्रमोद जोशी, विजय वीर सहाय और उदय वीर श्रीवास्तव। हमारा ग्रुप हरफनमौला था। किसी को कोई दिक्कत होती थी तो हमारी शरण में आता था। उसकी परेशानी ज़मीन आसमान एक कर के दूर देते।  
एक बार परेशां सहपाठी बड़ी आस लिए मिले। दिल खोल दिया। मामला एक तरफ़ा दिल का था। हमारे दिल पसीज गए। उसे यकीन दिलाया कि इस मोहब्बत को अंजाम तक पहुंचाएंगे। इसके अंजाम पर रोना नहीं होगा और न दूर खड़े होकर गुब्बार देखना होगा। यह बहारों फूल बरसाओ में कन्वर्ट होगा।
वो आश्वस्त हुआ। हम होंगे कामयाब एक दिन।
बस फिर क्या था। हम जुट गए। खून-ए-जिगर से लबरेज़ एक खत महबूब की ओर से महबूबा को लिखा। न पाने वाले का नाम लिखा और न देने वाले का। ताकि पकड़े जाने पर मुकर जाने की गुंजाईश बनी रहे। चांद-तारे तोड़ कर सब महबूबा के नाम पर कर दिए। मोहब्बत के लिए सारी खुदाई तक छोड़ने की क़सम। जाने क्या-क्या लिखा। दावा किया कि इस ख़त को पढ़ कर खिंची चली आएगी। उसे महबूब की शक्ल में सारी क़ायनात दिखेगी।
ख़त के बॉर्डर और हर खाली जगह पर तमाम फूल-पत्ती की नक्काशकारी की गयी। एक गुलाबी रंग के एनवलप में उस इज़हार-ए-मोहब्बत वाले  खत को रख कर उस प्रेमरोगी को पकड़ाया - जा बेटा। पकड़ा दे महबूबा को और फिर देख कमाल। खिंची चली आएगी। बड़े से बड़ा तांत्रिक और जादूगर भी महबूबा को सम्मोहित होने से नहीं रोक सकता।

Saturday, July 12, 2014

मरीज़ का हाल ठीक नहीं है!

- वीर विनोद छाबड़ा

एक ज़माना था जब बंदा बहुत सोशल हुआ करता था। सगे-संबंधी व प्रिय मित्र ही नहीं, अपितु अड़ोस-पड़ोस या आफ़िस के कलीग या किसी मित्र के परिजन भी बीमार पड़ते थे अथवा अस्पताल में भर्ती होते थे, तो ख़ैरीयत पूछने, जल्दी ठीक होकर घर लौटने की कामना करने और तन-मन-धन से सेवा के लिये सदैव तत्पर रहने वालों में सबसे आगे बंदा ही खड़ा मिलता था। लेकिन एक दिन उसने अचानक ही यह समाज सेवा बंद कर दी। दरअसल हुआ ये था कि एक बार वह गंभीर रोग से ग्रस्त परिजन को देख कर घर लौटा ही था कि पीछे-पीछे खबर आ गयी कि वो परिजन भगवान को प्यारे हो गये। मरीज़ के संबंधियों ने बंदे पर इल्जाम लगा दिया कि बंदे के जाते ही उनकी तबीयत बिगड़ गयी। न बंदा देखने जाता न यमदूत आते। ऐसा दो बार फिर हुआ। यद्यपि ये मात्र संयोग के मामले थे, लेकिन दबी जुबान में बंदे को ही इसके लिये को दोषी माना गया। बंदे को भी ऐसा लगा था कि जब वो अस्पताल में भरती प्रियजन को देखने जाता है तो यमदूत भी उसके साथ हो लेते है।

डसके बाद से बंदा अस्पताल के नाम से भी डरने लगा। वो सदैव भगवान से प्रार्थना करता था कि उसके अस्पताल में भरती होने की कभी नौबत न आये। दो-तीन बार वो भरती होते होते बचा। एक बार सड़क पर बिखरे चिकने तेल पर स्कूटर स्किट कर गया। नतीजे में उसका कंधा जगह से हट गया। डाक्टर भरती करने पर तुल गया। बोला था- एनीथीसिया देना पड़ेगा। लेकिन बंदे ने बिना एनीथीसिया लगवाये
असहनीय दर्द बर्दाश्त करके कंधा फिट करा लिया तो डाक्टर ने उसे बहादुर आदमी का खिताब देकर छोड़ दिया। दूसरी बार पीठ पर निकली एक गिल्टी ने बहुत परेशान किया। लेकिन आपरेशन के चार घंटे बाद उसे इसलिये छुट्टी दे दी कि अस्पताल में बेड खाली नहीं था। मोतिया बिंदू के आपरेशन के दो घंटे बाद डाक्टरों ने खुद ही छुट्टी कर दी।

लेकिन एक दिन बंदा ऐसा फंसा कि उसे मजबूरन अस्पताल में भरती होना ही पड़ा। डी-हाईड्रेशन के साथ टाईफाईड भी था। हालांकि बंदे ने अस्पताल में भरती होना एक बहुत सीक्रेट मिशन रखा लेकिन पत्नीश्री के अति उत्साह ने मिशन का बेड़ा ग़र्क कर दिया। दरअसल पत्नी को मरीजों को अस्पताल में भरती परिजनों की मिजाज़पुरसी और सेवा करने का बड़ा शौक है। आज उसे भी अवसर मिला था कि पति बीमार होकर भरती हैं और भारी मात्रा में लोग मिजाज़पुरसी को आयें। यानि बोई फसल काटने का वक़्त आया था।

Tuesday, July 8, 2014

ओ बिजली वाले बिजली बना!

-वीर विनोद छाबड़ा

सुबह-सुबह दरवाजा कोई बुरी तरह पीट रहा था। लगा कोई बहुत गुस्से में है या भयंकर आफत आई है। बंदा जल्दी से उठा। देखा पड़ोसी शाहजी मोहल्ले भर को बटोर कर बंदे के द्वारे मजमा लगाये हैं। इससे पहले कि बंदा पूछने का साहस करता शाहजी चिंग्घाड़े- ‘‘तान के सो रहे हो। होश है कि नहीं? मोहल्ले की बिजली गायब है। अब यह न कहना कि सब्र करो, थोड़ी देर में आती होगी। अरे, ट्रासंफारमर दगा है, ट्रासंफारमर। अब दिन भर हम ही झेलेंगे। तम्हारा क्या? बिजली वाले हो। स्पेशल अंडरग्राऊंग केबिल बिछी है।’’

ऐसी जली-कटी व उत्तेजित भाषा से बंदा तनिक विचलित नहीं होता। ऐसे नज़ारे आये दिन देखता है। उसका यह समझाना हमेशा व्यर्थ जाता है कि हम मामूली बिजली कर्मी हैं। न तो बिजली उत्पादन से संबंध है और न ही प्रेषण या वितरण से। मगर इन शाहजी को और मोहल्ले वालों को क्या समझाऊं। बिजली संबंधी हर मुसीबत के लिये बंदे को ही जिम्मेदार मानते हैं। दरअसल बिजली वालों पर गुस्सा उतारने के लिये उन्हें यह निरीह बंदा ही सबसे निकट दिखता है। करे कोई, भरे कोई।

हृदय विदीर्ण तो तब होता है जब पत्नी और बच्चे भी कोसने वालों के सुर में सुर मिलाते हैं। पत्नी आये दिन ताना मारती है- ‘‘बड़ी शान से कहते हैं राजधानी है प्रदेश की। चैबीस घंटे बिजली। यही सोच कर ब्याह किये थे। मगर असलियत देखो। कभी जंपर उड़ा है तो कभी तार टूटा। और कभी मुआ ट्रांसफारमर फुंक गया। न जाने का टाईम और न आने का। अच्छा हुआ मेरी मां नहीं आयी। टी0वी0 पर राजधानी की बिजली का बुरा हाल सुन के प्रोग्राम कैंसिल कर दिया। गंगा बाबू की बेटी ने भी सगाई तोड़ दी है। कहती है ब्याह वहीं करेगी जहां चैबीस घंटे बिजली होगी।’’

Friday, July 4, 2014

आत्महत्या से पूर्व !

- वीर विनोद छाबड़ा

बंदा जब कभी आत्महत्या का समाचार पढ़ता या सुनता है तो उसे अस्सी और नब्बे के दशक के दौर के वो दिन याद आते हैं जब वो आत्महत्या को सारी समस्याओं के समाधान के रूप में देखता था। दरअसल उसे महसूस होने लगा था कि पत्नी को उसकी आवश्यकता नहीं है। वो बच्चों को बंदे से दूर रखने के सतत प्रयास में रत रहती है। बंदे को पुस्तकों में खोया देखना, पत्र-पत्रिकाओं के लिये लिखना उसे तनिक भी पसंद नहीं है। उसकी दृष्टि में ऐसे लोग प्रथम श्रेणी के मूर्ख होते हैं। मित्रों का घर आना भी उसे सुहाता नहीं है। वस्तुतः वो बंदे को वह अपने पिता के समान ढालना चाहती थी। उसे किंचित मात्र अच्छा नहीं लगता था जब कोई बंदे की कोई प्रशंसा करता। ऐसे में बंदे को विश्वास हो गया कि उसे पति की नहीं एक ‘अल्सेशियन’ की आवश्यकता है, जिसकी डोर मालिक के हाथ में हो। उसकी आज्ञा से वो उठे-बैठे। लिखना-पढ़ना छोड़ दे। निठल्ले बाबू की भांति विलंब से आफ़िस जाये और शीघ्र लौटे। थैला उठा कर उसके निर्देशानुसार सब्जी-राशन लाये। चौका-बर्तन व झाड़ू बुहारने में हाथ बटाये। इस मामले में उसके पिता के अतिरिक्त चंद पड़ोसी भी उसके आदर्श थे। बंदे ने उसे प्रसन्न करने की बहुतेरी चेष्टा की, परंतु वो संतुष्ट नहीं हुई। तब बंदे को लगा कि कुत्ता बन कर भी मिली फटकार से अच्छा तो परलोकवासी हो जाना है। यों भी उसके न रहने से पत्नी को लाभ ही लाभ थे। बंदे के स्थान पर मृतक आश्रित कोटे से नौकरी मिलेगी। पारिवारिक पेंशन भी प्राप्त करेगी। बंदे ने देखा है कि पति के असामायिक निधन पर कई परिवार टूटे नहीं, अपितु मरणोपरांत देय सरकारी धनराशि प्राप्त करके पहले से कहीं अधिक दृढ़ता के साथ खड़े हुए और निर्बाध गति से खूब फले-फूले।

यह सोच कर बंदे में आत्महत्या करने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। डायरी में बैंक-बैलेंस, एलआईसी, प्राविडेंट फंड में जमा धनराशि और मरणोपरांत देय लाभों का विस्तृत विवरण अंकित किया। मकान क्रय, हाऊस टैक्स, वाटर व सीवेज टैक्स व बिजली व गैस संबंधी समस्त अभिलेख के यथा स्थान रखे होने का भी उल्लेख किया। मरणोपरांत अंतिम संस्कार के सारे विधि-विधान तथा उस व्यय होने वाली धनराशि को भी सविस्तार लिखा। बंदे की अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने हेतु रिश्तेदारों व निकटवर्ती मित्रों के टेलीफोन व मोबाईल नंबर भी लिखे। उनकी सूची भी बनायी जिन्हें विधि-विधान के अनुसार नहला-धुला कर अर्थी पर लिटा कर बैकुंठ धाम ले जाने की समस्त प्रक्रिया का भी दीर्घ ज्ञान है। यह इच्छा भी व्यक्त की कि अंत्येष्टि हेतु विद्युत शवगृह उपयुक्त होगा। वहां शवदाह फ्री है। मैनपावर की आवश्यकता भी न्यूनतम है। अल्प व्यय वाले कम क्रिया-कलाप हैं। उन मित्रों के नाम अंकित किये जिन्होंने बरसों पूर्व ऊंची राशि ऋण स्वरूप ली थी परंतु अनेक बार स्मरण कराने के उपरांत भी वापस नहीं की थी। सुझाव दिया कि उनके नाम ‘उठाले’ के दिन भरी सभा में घोषित किये जायें। यदि उनमें ज़रा सी शर्म शेष होगी तो ब्याज सहित ऋण राशि को लौटा देंगे। उन सहयोगियों के नाम रेखांकित किये जो बंदे के दिवंगतोपरांत सहायक होंगे और उनके नाम भी लिखे जिनसे विशेषकर दूर रहना है।