Monday, June 16, 2014

पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा!

- वीर विनोद छाबड़ा

पानी की बूंद-बूंद का पैसा देना होगा। घर घर में मीटर लगेंगे। ढाई तीन रुपये प्रति हजार लीटर की दर को बढ़ाकर तिगुना कर दिया जायेगा। सरकार की तरफ से ऐसी धमकी भरी खबरें पानी को तरसती जनता-जनार्दन को समाचार पत्रों के माध्यम से पढती है। इससे कुछ लोग व्याकुल व व्यथित होते हैं और
बीच चैराहे पर दस और लोगों को सुना कर दहशत फैलाते हैं। सरकार जन आंदोलन से घबरा कर पानी में  बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव वापस ले लेती है।

उन्मुक्तता से जल का दुरुपयोग करने के आदी समाज को ऐसी खबरें निसंदेह अच्छी नहीं लगती है। मगर जुगाड़ू समाज की भृकुटि नहीं तऩती है। जिस तरह इनके लिये कटिया लगा कर मुफ़्त बिजली खीचना मामूली बात है वैसे ही अंडरग्राउंड वाटर पाईपलाईन को पंक्चर करके पाईप जोड़ना भी बड़ी बात नहीं है। यों भी शहर भर के लोग पाईपलाईन से पानी खींचने के लिये अवैध रूप से बिजली से चलने वाला टुल्लू और सबमर्सिबल पंप इस्तेमाल करते ही हैं। लेकिन बंदा दिल तोड़ने और हतोत्साहित करने वाली किसी भी खबर से तनिक भी विचलित नहीं होता है। बल्कि उसे बर्दाश्त करने का कोई सकारात्मक समाधान ढूंढ़ता है। और मुंह के बल गिरने पर नया मार्ग ही निर्मित करने की ठानता है।

समस्या समाधान हेतु सर्वप्रथम बंदा आदतन छप्पन साल पीछे यादों की गली में भ्रमण पर निकलता है। उन दिनों ओवरहैड वाटर टैंक न होने के कारण लखनऊ के आलमबाग इलाके के चंदरनगर मोहल्ले में चंदरनगर मार्किट के ऊपर रिहाईशी मकानों में पानी नहीं चढ़ता था। टुल्लू पंप का तो किसी ने नाम तक
नहीं सुना था। कुछ रसूखदारों ने हैंडपंप लगा रखे थे। पाईप लाईन में जब सुबह-शाम पानी सप्लाई होता था तो रसूखदार हैंडपंपों से खींच लेते थे। बंदे के परिवार सहित बाकी तमाम जनता पंक्तिबद्ध होकर  म्यूनिस्पालटी के बंबों से पानी भरती थी। बंदा तब आठ-दस साल का था। उसे पंक्ति में पानी भरने में और फिर दुमंज़िले पर चढ़ाने में आनंद की अनुभूति होती थी। आनंदित होने का एक कारण यह भी था कि उतनी देर तक के लिये पढ़ाई से भी निजात रहती। घर के सामने उजाड़ मैदान था जहां सरकार ने एक बड़ा सा पक्का कुंआं बनवा दिया था। इसके इर्द-गिर्द तीन फिट ऊंचा प्लेटफार्म था। यहां बैठ कर नहाने का रोमांच भी निराला था। पानी भी साफ सुथरा होता था। लोग सभ्य थे। मोहल्ले के अलमबरदार ख्याल रखते थे कि कोई इसमें कूड़ा करकट डालने की हिमाकत नहीं करे। बंदे जैसे अनेक बच्चे वहां जमा हो जाते थे। बाल्टी से बंधी रस्सी द्वारा पानी खींचते थे। वहां मौजूद चाचा लोग भी खुशी-खुशी मदद करते थे।

वर्षा ऋतु की शुरूआती वर्षा में नहाने का भी खूब मज़़ा था। घर की छत पर चले जाते थे। तब मार्किट के ऊपर बने सारे रिहाईशी मकानों की छत एक दूसरे से मिली हुई थी। दो फुट की छोटी सी बाउंडरी होती थी जो हर ब्लाक की विभाजन रेखा थी। इसे पार करना मुश्किल काम नहीं था। बंदा इसे एक छलांग में पार कर जाता था। तेज बारिश में सब बच्चे इन्हीं छतों पर खूब उछल-कूद करते और शोर मचाते हुए इधर से उधर दौड़ लगाते थे।

छुट्टी वाले रोज तो बड़ा मजा आता। सुबह सैर के बहाने करीब डेढ़ मील दूर सिंगार नगर और कृष्णानगर को विभाजित करती कल-कल बहती नहर में नहाने निकल लेते थे। यहां एक पक्का घाट भी था। घाट की
पहली सीढ़ी पर सिर्फ़ टखनों तक पानी होता था। यहीं बैठ कर नहाने का लुत्फ उठाने से खुद का रोक नहीं पाते थे। और कोशिश यह रहती थी कि नहाते समय सिर न भीगे। ताकि मां-बाप समझ न पायें कि हम नहर में नहाये हैं। कई बार फंसे भी। जबरदस्त डांट पड़ी। कभी-कभी पिटे भी। दरअसल नहर में बह जाने या डूबने का खतरा जो होता था। लेकिन हम बच्चे फितरती थे। मानते ही नहीं थे। इसी नहर के समानांतर एक और नहर भी थी। यह काफी गहरी थी। इसके किनारे बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी जाने की मनाही थी। अब ये नहरें विलुप्त हैं।

वो दौर सादा जीवन, सादा भोजन और उच्च विचार का था। इसलिये हाज़मा दुरुस्त था। बार-बार टायलट जाने की भी छुट्टी। इसी कारण पानी वेस्ट से एक और बचत। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों से बेहतर संबंध थे। लिहाजा आना-जाना निरंतर बना रहता था। इसी बहाने भरपेट पानी हलक के नीचे उतार कर ही लौटते थे। इस तरह बंदे को बचपन से ही पानी का मोल समझने और इसे बूंद-बूंद बचाने के महत्व का विपुल अनुभव है।

यही कारण है कि आज पानी की कमी और इसके अपव्यय के दृष्टिगत सरकार की पानी की मीटरिंग और इसका मूल्य बढ़ाने की धमकी से बंदा व्यथित नहीं है। बचपन के अनुभव को आज़माने और इसे शेयर करने बंदा निकल पड़ता है। पड़ोसियों-रिश्तेदारों के घर विजिट करने का टाईम टेबुल बनाया। लेकिन बंदे का अनुभव आज के परिवर्तित मूल्यों के सामने पिट गया। ‘अतिथि देवो भवा’ की भावना विलुप्त हो गयी है। पड़ोसी के घर घंटों बैठे रहे। नाशुक्रों ने पानी तक नहीं पूछा। चाय तो बहुत दूर की बात हुई। स्वतः स्पष्टीकरण दिया कि आज दिन भर बिजली नहीं रही। पानी स्टोर नहीं हुआ। मुश्किल से एक बोतल बच्चों के लिये बचा रखी है। बंदा समझ गया कि पब्लिक बहुत समझदार हो चुकी है।

लेकिन बंदा कतई हतोत्साहित नहीं होता। उसने कुछ दूसरे नुस्खे आजमाये। जंकफूड को तिलांजलि देकर सादा भोजन करने की सलाह दी। ताकि पेट खराब होने पर बार-बार टायलेट न जाना पड़े। दफ्तर वालों को सलाह दी कि घर की बजाय दफ्तर में टायलेट करने की आदत डालें। स्कूटी या कार के ऊपर बैठ कर नहायें। एक पंथ दो काज हो जायेंगे। मुफ्त सिंचाई का लाभ उठाने हेतु घरेलू बगिया और गमलों के बीच खड़े होकर नहाने का बढ़िया आईडिया भी दिया। लेकिन प्रदूषण फैलने और डूबने के डर से नदिया तीरे नहाने से मना किया।

सर्दियों में दिसंबर से होली तक बाईवीकली नहाईये। ज़रूरत पड़े तो वीकली नहायें। अगर फिर भी काम न चले तो फोर्टनाईटली कर दें। और अगर हालात काबू से बिलकुल बाहर हों तो वनस इन मंथ नहाना भी चलेगा। और हां अवधि दिसंबर से होली तक के स्थान पर दीवाली से होली तक करें।


बूंद-बूंद से सागर भरता है। जगह-जगह से बूंदें जमा करें और घर में जितनी बाल्टियां, ड्रम, लोटे, पतीले, गिलास और बोतलें हैं सब भर डालें। विवाह आदि समारोहों में तीन-चार खाली बोतलें साथ ले जायें और नज़र बचा भर लें। पार्टियों में जाने से पहले नहाने की प्रथा पर पूर्ण विराम लगा दें। फ्रांसिसीयों की तर्ज़ पर शरीर की बदबू परफ्यूम से दूर करें।

परंतु मनोवांछित बंदे की पानी बचाओ मुहिम औधें मुंह गिर पड़ी। कोई मानने को तैयार नहीं हुआ। जगहंसाई अलग से हुई। एक साहब ने मनोचिकित्सक को रेफर कर दिया। परिचितों ने एवाईड करना शुरू कर दिया। पत्नी-बच्चों ने फालतू घोषित कर दिया। लेकिन बंदा इन विपरीत हालात के बावजूद निराश न हुआ। मुकाबले के लिये खुद ही पहल करने की ठानी। बूंद-बूंद से समुद्र भरता है। बंदे को विश्वास है कि इसी तरह अकेला चलेगा और लोग साथ होते जायेंगे। कारवां बनता जाएगा।

मगर दो ही दिन बाद बंदे की समझ में आ गया कि वो किसी मजबूत सीमेंट कंपनी की दीवार से सिर टकरा रहा है जिसमें दीवार का नहीं अपितु खुद का नुक्सान हो रहा है।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा नगर
लखनऊ - 226016
मोबाईल 7505663626

दिनांक 17 06 2014

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